________________
आहार न पचने व रात्रि के भोगविलास के जागरण के कारण शीघ्र ही रात्रि को विसूचिका व्याधि उत्पन्न हुई। पेट चढ़ गया। वायु बंद हो गई और तृषाकांत होने से अत्यंत पीड़ा होने लगी। अवसर पर व्रत का भंग करनेवाला है और अति पापी है' - ऐसा मानकर सेवक पुरुषों ने उसकी कोई चिकित्सा न की। उसने सोचा, 'यदि रात्रि बीत जाये तो प्रात:काल में ही सब सेवकों को मार डालूँ।' इस प्रकार रौद्र ध्यान में ही उसी रात्रि को कंडरीक ने मृत्यु पायी और सातवें नरक में अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में उत्पन्न हुआ।
पुंडरीक राजर्षि ने अपनी नगरी से चलते ही अभिग्रह लिया कि 'गुरु के पास जाकर व्रत ग्रहण करने के पश्चात् ही आहार लूंगा।' ऐसा अभिग्रह करके चलते हुए मार्ग में क्षुधा, द्वषा वगैरह परिसह सहन करने पड़े। कोमल देह फिर भी खेद न पाया। दो दिन छठ्ठी का तप होने पर गुरु के पास पहुँचकर चारित्र लिया। गुरु की आज्ञा लेकर पारणा करने के लिये गोचरी लेने गये। उसमें तुच्छ
और रुखा आहार पाकर उन्होंने प्राणतृप्ति की। परंतु ऐसा तुच्छ आहार पहले कभी किया न था जिससे उन्हें अति तीव्र वेदना हुई। फिर भी आराधना करके पुंडरीक राजार्षि की मृत्यु हुई। और वे सर्वार्थ सिद्धि नामक विमान में उत्पन्न हुए। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि हजार वर्ष तक विपुल संयम पालने पर भी यदि अंत में क्लिष्ट अध्यवसाय हो तो वे कंडरीक की भाँति सिद्धि पद नहीं पा सकते और कुछ समय के लिए भी चारित्र ग्रहण करके यथार्थ पालते हैं, वे पुंडरीक ऋषि की भाँति अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं।'
'इस प्रकार सम्यक् प्रकार से चारित्र पालकर कई जीव थोडे समय में मोक्षगति पातें हैं और अन्य अतिचार सहित लम्बे समय तक चारित्र पालते हैं फिर भी वे सिद्धि पद नहीं पा सकते।'
जो दृष्टि प्रभु दर्शन करे उस दृष्टि को भी धन्य है, जो जीभ जिनवर को भजे उस जीभ को भी धन्य है। पीवे मृद वाणी, सुधा, वे कर्ण को इस युग में धन्य हैं तेरा नाम मंत्र विशद घरे, उस हृदय को नित्य धन्य है।
जिन शासन के चमकते हीरे . ११८