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बार पूछने पर भी सुदर्शन मौन ही रहे और राजा ने सोचा, 'संभव है कि सुदर्शन दोषित हो। क्योंकि, 'मौन' व्यभिचारियों का और चोरों का एक लक्षण है।' इस कारण राजा क्रोधाधीन हुआ और अपने सेवकों को सुदर्शन का वध करने की आज्ञा दे दी। सुदर्शन को ऐसे सजा दी जाये तो नगर में, लोगो में उत्तेजना फैल जायेगी। सदाचारी माने जाते सुदर्शन को ऐसी सजा साधारणतया नगरजन सहन नहीं करेंगे. इसलिए पहले सुदर्शन को गाँव में घूमाकर, उसके दोषों की विज्ञप्ति करने के बाद ही उसका वध करने की आज्ञा राजा ने फरमायी।
राजा की आज्ञानुसार राजसेवकों ने सुदर्शन को पकड़कर मुँह पर मसी पोती और शरीर पर लाल गेरु का लेप लगाया। गले में विचित्र प्रकार की मालाएँ पहनाई और गधे पर बिठाकर सूप का छत्र धरा । और फटा हुआ ढोल उसके आगे पीटते पीटते सुदर्शन को गाँव में ग्रजसेवक घूमाने लगे। वे उद्घोषणा करते हुए कहते थे कि 'सुदर्शन ने रानीवास में गुनाह किया है, इसलिए उसका वध किया जा रहा है, राज-आज्ञा है, लेकिन इसमें राजा का कोई दोष नहीं है।'
इतना बीतने पर भी सुदर्शन तो अपने ध्यान में पूर्ववत स्थिर ही रहे हैं। स्वयं सर्वदा निर्दोष होने पर भी केवल सदाचार की रक्षा के खातिर आफत झेलनी पड़ी हैं। खुद के उपर दुराचारी का कलंक आये, पूर्वकालीन अशुभोदय आया हो तो ही ऐसा हो सकता है। निर्दोष होने पर भी दोषित बनकर शिक्षा भोगने का वक्त आ गया है।
सुदर्शन को पूरे गाँव में घूमाते घूमाते उसके घर के सामने लाया गया। उसकी स्त्री महासती मनोरमा ने यह सब देखा, सुना और सोचा, 'मेरे पति सदाचारी हैं। मेरे पति ऐसा कार्य कर ही नहीं सकते। वाकई यह पूर्व के अशुभ कर्म का ही फल उपस्थित हुआ है।' उसने मनोमन निश्चय किया कि 'जहाँ तक मेरे पति पर आयी हुई विपत्ति टलेगी नहीं वहाँ तक मुझे कायोत्सर्ग में रहना है और अनशन करना है।'
महासती मनोरमा की दृढ प्रतिज्ञा एवं सुदर्शन सेठ का पवित्र शील अंत में विजयी बने । असत्य के गाढ़ आवरण टूट गये। राजा के नोकरों ने सुदर्शन सेठ को सूली पर चढाया तो सूली टूट गई और आश्चर्य के साथ सोने के एक सिंहासन पर सेठ दिखाई दिये। सुदर्शन श्रेष्ठी की जयजयकार हुई। शासन देवताओं ने इस अवसर पर रानी की पोल खोल कर रहस्योद्घाटन किया। रानी परदेश भाग गई।
राजा ने सेठ को आदरपूर्वक नमस्कार किया और अपराध के लिए क्षमा मांगी। दोनों ने एक-दूसरे को सांत्वना दी। क्रमानुसार संयम ग्रहण करके सुदर्शन सेठ केवलज्ञान पाकर मुक्तिपुरी में पहुंचे।
जिन शासन के चमकते हीरे . १२८