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तो हमारा क्या होता?'
वे धर्मग्रंथो की रचना करने लगे। वे आचार्य बने लेकिन सर्वप्रथम मार्गदर्शक बनकर जिसने नई गाथा का श्रवण कराया था, उस याकिनी साध्वीजी को अपनी धर्ममाता के रूप में कभी न भूले। और इसलिये वे जैनशासन में 'याकिनी धर्मपुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जीवन के दौरान उन्होंने महान ग्रंथ रचे हैं, जिसमें श्री नन्दीसूत्र, अनुयोग द्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र आदि आगमों पर विषद् टीकाएँ भी रची हैं। षड्दर्शन सम्मुचय, शास्त्रवार्ता सम्मुचय, ललित विस्तरा नामक चैत्यवंदन सूत्रवृत्ति, पंचाशक, योगबिंदु, योगविशिका, धर्मबिन्दु आदि उनके प्रसिद्ध ग्रंथ है। उनका साहित्य विविध मौलिक और गहरा चिंतनवाला है। उन्होंने १४४४ ग्रंथो की रचना की थी। १४४० ग्रंथ रचे जा चुके थे लेकिन चार ग्रंथ बाकी थे। उस समय उन्होंने चार ग्रंथ के स्थान पर 'संसार दावानल' शब्द से प्रारंभ होनी चार स्तुति बनायी, उसमें चौथी श्रुतिदेवी की स्तुति का प्रथम चरण रचा और उनकी बोलने की शक्ति बंद हो गई। बाकी की तीन चरणरूपी स्तुति उनके हृदय के भावानुसार श्री संघ ने रची, तब से तीन चरण श्री संघ द्वारा 'झंकारा राव सारा' पक्खी और संवत्सरी प्रतिक्रमण में उच्च स्वर से बोली जाती है।
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गुरुचरनन की मोरी लागी लटक गुरुचरनन की चरन बिना मोहे कछु नहीं भावे झूठी माया सब सपनन की मोरी भवसागर अब सूक गया है फिकर नहीं मुझे तरनन की. मोरी मीरा कहे प्रभु गिरधरनागर उलट भई मोरे नयनन की• मोरी
जिन शासन के चमकते हीरे . १३२