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वाच्छल करने हेतु एकांतर उपवास करते थे। दो की रसोई बनती और बाहर के एक को भोजन कराते । एक को उपवास करना पड़ता था। दोनों साथ बैठकर सामायिक करते थे। अपनी स्थिति में संतोष मानकर सुखपूर्वक रहते थे । एक दिन सामायिक में चित्त स्थिर न रहने से श्रावक ने अपनी स्त्री को पूछा, 'क्यों! आज सामायिक में चित्त स्थिर रहता नहीं है। उसका कारण क्या? तुम कुछ अदत्त या अनीति का द्रव्य लाई हो?"
श्राविका ने सोचकर कहा, 'मार्ग में गोहरे पड़े थे वह लायी थी। दूसरा कुछ लाई नहीं हूँ।' पुणीआ श्रावक बोला, 'मार्ग में गिरी हुई चीज हम कैसे ले सकते है? वह तो राजद्रव्य गिना जाता है। सो गोहरे वापिस मार्ग पर फेंक देना और अब दुबारा ऐसी कोई चीज रास्ते पर से उठा मत लाना। हमें बेहक्क का कुछ भी नहीं चाहियें । '
धन्य पुणीआ श्रावक... जिसके बखान भगवान महावीर ने स्वमुख से किये ।
•*****.***. JOUR,
कन्या
प्यार के समुद्र जैसा मीठा झायका छोड़कर कोमल कली पराये घर पहुँच गई। लेकिन किरतार ने उसके कलेजे में अबीज समर्पण-कला भरी थी।
उबलती दाल में अपना स्वत्व गंवाकर दाल का स्वामीत्व पानेवाले नमक की भाँति सबके साथ मीठास से घुलमिल गई। परायों को अपना बनाया। अनजाने को आत्मीय बनाया। समर्पण के द्वारा पिता का कुल दीपाया और सेवा द्वारा पति के कुल को हँसाया ।
और इस प्रकार सेवा की नदी सर्वत्र बहायी। सास-ससुर, देवर, ननंद, । हृदय में से उसने माता, पिता और भाई-बहिन के स्नेह का झरना बहाकर, सबकी ! लाड़ली बन गई।
अपने सुख को टालकर सबका सुख चाहा। ताने-मर्मवचन सुनकर भी सबको प्रसन्न रखा.... तो उसे सास-ससुर के स्नेह का सिरछत्र मिला। स्वामिनी हृदयस्वामिनी बन गई व संसार ने उसे 'कुललक्ष्मी' कहकर बिरदाया। औ...र इसी कारण प्रभु को भी उसकी कोख में बालक बनकर अवतार । धरने का मन हुआ।
कन्या की भाँति स्नेह का झरना बहायें।
जिन शासन के चमकते हीरे • १२२