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और कहने लगा, 'अब तूं मेरी बहिन है, अब मैं तेरा क्या उपकार करूं।' मदनरेखा ने कहा, 'तूने मुझे शाश्वतातीर्थ का वंदन कराके महा उपकार किया है, तूं मेरा परम बांधव है।' मदनरेखा ने मुनि को अपने पुत्र का वृत्तांत पूछा तो मुनि ने कहा, 'पद्मरथ राजा ने अटवी में से तेरे पुत्र को ले जाकर अपनी रानी को सौंपा, पूर्वभव के स्नेह से उसका जन्म महोत्सव भी मनाया था और तेरा पुत्र इस समय सब प्रकार से सुखी है।'
उस समय आकाशमार्ग से एक विमान आकर ऊतरा । वह रत्नों के समूह से बना हुआ था। उसका तेज सूर्य और चन्द्र से भी बढ़कर था। उसमें से एक महा तेजस्वी देव ऊतरा । उसने मदनखा की तीन परिक्रमा करके उसके चरणों में झुका। यह देखकर मणिप्रभ बोला : 'अहो ! देव कैसा अकृत्य कर रहे हैं। मुनि को वंदन करने से पहले एक स्त्री को नमन कर रहे हैं? मुनि ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा, गत भव में यह देव इस मदनरेखा के पति युगबाहु थे। मृत्यु समय मदनरेखा ने धर्मज्ञान सुनाया जिससे वह उसके लिये धर्माचार्या बनीं। उसका ऋण वे अदा कर रहे हैं। सर्व प्रकार से मदनरेखा उसके लिए वंदन योग्य है।' - मुनि के वचन सुनकर विद्याधर ने देवता की क्षमा माँगी और देवता ने रानी को संबोधित करके कहा, 'मैं तेरा क्या भला कर दूं यह तूं बता।' तब वह बोली, 'मुझे जन्म-मरण निवारक अविचल मोक्ष सुख चाहिये, लेकिन देने के लिए आप समर्थ नहीं है। बन सके उतना जल्दी मुझे मिथिला नगरी पहुंचा दो जिससे मैं मेरे पुत्र का मुख देखकर यति धर्म ग्रहण कर लूं।' इसलिये देवता मदनरेखा को मिथिला ले गया, जहाँ पर उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ का जन्म और दीक्षा हुई थी। वहाँ श्री जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार, वंदना करके वे साध्वीजी के पास पहुंचे। साध्वीजी ने धर्मोपदेश दिया। धर्मदेशना सुनने के बाद देवता ने मदनरेखा को राजपुत्र के पास चलने के लिए कहा, लेकिन धर्मदेशना सुनने के बाद मदनरेखा ने कहा, 'दूसरा कुछ भी नहीं करना है, साध्वीजी के चरणों की शरण स्वीकारनी है।' मदनरेखा की बात सुनकर देवता अपने स्थानक पर लौट चले।
मदनरेखा के बालपुत्र को ले जानेवाले पद्मरथ राजा को बालक के प्रभाव के कारण शत्रु भी शीश झुकाने लगे। बालक का नाम नमि रखा गया। योग्य उम्र होते ही नमिकमार को योग्य कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया और राज सौंपकर पद्मरथ ने ज्ञानसागर सूरि से दीक्षा ली। तीव्र तपश्चर्या करके केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पाया। नमि राजा ने राज्य करते अनेक राजाओं को झुकाकर शकेन्द्र की कीर्ति
जिन शासन के चमकते हीरे • ६८