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-कुबेरदत्ता
मथुरा नगरी...वहाँ एक प्रसिद्ध वेश्या रहती थी। रूपवती और वैभवशाली। नाम उसका था कुबेरसेना । कर्म योग से एक बार उसे गर्भ ठहर गया। वेश्यागृह की मालकिन बाई ने गर्भ गिरा देने के लिए कहा। कुबेरसेना संमत न हुई। 'बालक का जन्म होने पर कुछ सोचेंगे' ऐसा कहकर गर्भ न गिरवाया।
नौ मास पूर्ण होने पर कुबेरसेनाने जुड़वों को जन्म दिया। एक पुत्र और एक पुत्री। मालिकिन बाई तो हाथ धोकर पीछे ही पड़ गई। कूटनखाने में छोटे बालक पुसाने योग्य नहीं है - ऐसा समझाकर दोनों बालकों को कपड़े में लपेटकर, उनके नाम की अंगूठी पहिनाई और संदूक मे रखकर नदी में बहता छोड़ दिया। संदूक तैरता तैरता शोरीपुरी नगरी के किनारे पर पहुँचा।
ई दो व्यक्तिओं ने संदूक देखां, नदी से बाहर निकाला। संदूक खोला और उसमें दो बालक देखें। दोनों प्रसन्न हुए। जरूरत अनुसार एक भाईने बालक एवं दूसरे ने बालिका को रख लिया। बालक की अंगूठी पर उसका नाम कुबेरदत्त अंकित था। बालिका की अंगूठी पर कुबेरदत्ता अंकित था। उसी अनुसार उन्होंने बच्चों के नाम रख दिये।
दोनों वयस्क हुए। एक दूसरे को पहिचानते नहीं है। माँ-बाप ने दोनों का ब्याह कर दिया और कर्म के संयोग से भाई-बहिन पतिपत्नी बन गये।
एक बार दोनों सोकटाबाजी खेल रहे थे, कुबेरदत्त की अंगठी उछलकर कुबेरदत्ता की गोद में जा गिरी। कुबेरदत्ता अंगूठी देखकर सोच में डूब गई। दोनों अंगूठी एक जैसी ही हैं। एक ही कारीगर ने गढ़ी हैं। दोनों एक साथ बनी है ऐसा दिखता है। नजदीक से देखने पर पता चला कि दोनों के रूप व आकृति सब एक से ही लगते हैं। क्या दोनों भाई-बहिन तो नहीं होगे! दोनों ने अपने माँ-बाप को पूछा तब स्पष्टीकरण हुआ कि 'तुम दोनों एक पेटी में से निकले थे।'
कुबेरदत्ता समझ गई कि यह मेरा सगा भाई है। भाई के साथ ब्याह हुआ यह ठीक न हुआ। बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वैराग्य उत्पन्न हुआ। फलस्वरूप पाप धोने के लिए कुबेरदत्ता दीक्षा लेकर साध्वी बनी। तप, जप करके आत्म साधना करने लगी।
जिन शासन के चमकते हीरे . ९३