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किराये के मकान की तरह अंत में अवश्य छोड़ देना है। अर्थात् चाहे जैसा लालनपालन किया हो फिर भी नाशवंत है। धीर या कायर सभी प्राणियों को अवश्य मरना ही है। बुद्धिमान पुरुष को इस प्रकार मरना चाहिए जिससे दुबारा मरना ही न पड़े। मुझे अरिहंत प्रभु की शरण रहे, सिद्ध भगवंत की शरण रहे, साधुओं की शरण रहे और केवली भगवंत ने कहे धर्म की शरण रहे । मेरी माता श्री जिनधर्म, पिता गुरु, सहोदर साधू और साधर्मी मेरे बंधू हैं। उनके सिवा इस जगत् में सर्व मायाजाल समान है। श्री ऋषभदेव वगैरह इस चौबीसी में हो चुके तीर्थंकर और अन्य भरत, ऐरावत तथा महाविदेह क्षेत्र के अर्हतो को मैं नमन करता हूँ। तीर्थंकरों को किये हुए नमस्कार प्राणियों को संसार छेदन के लिए व बोधि के लाभ के लिये होते हैं। मैं सिद्ध भगवंतो को नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने ध्यानरूप अग्नि से हजार भव के कर्मरूप कष्टों को जला डाला है। पंजविध आचार को पालनेवाले आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ जो सदा भवच्छेद में उद्यत होकर प्रवचन (जैनशासन) को धारण करते हैं । जो सर्वश्रुत को धारण करते हैं और शिष्यों को पढ़ाते है तथा महात्मा उपाध्यायों को मैं नमस्कार करता हूँ। जो लाखों भव में बंधे हुए पाप को पलभर में नष्ट करते हैं, ऐस शीलवान व्रतधारी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ, सावध योग तथा बाह्य और अभ्यंतर बला (बाह्य बला वस्त्र, पात्र आदि उपकरण एवं अभ्यंतर झंझाल विषय, कषाय आदि)को मैं हृदयपूर्वक मन, वचन, काया से छोड़ रहा हूँ। मैं यावज्जीव चतुर्विध आहार का त्याग करता हूँ और चरम उच्छ्वास के समय देह से भी क्षमापना करता हूँ।
दुष्कर्म की गर्हणा, प्राणियों की क्षमणा, शुभ भावना, चतुःशरण, नमस्कार स्मरण और अनशन अनुसार छ: प्रकार की आराधना करके वे नंदनमुनि अपने धर्माचार्य, साधुओं और साध्वीओं से क्षमायाचना करने लगें। क्रमानुसार महामुनि ६० दिन तक का अनशन व्रत पालकर पच्चीस लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके, मृत्यु पाकर प्राणत नामक दसवें देवलोक में पुष्पोत्तर नामक विस्तारवाले विमान की उपपात शय्या में उत्पन्न हुए।
इस देवलोक में उन्होंने बीस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके भरतक्षेत्र में देवानंदा की कुक्षी में आये। वहाँ सौधर्म देवलोक के इन्द्र ने सिद्धार्थ राजा की त्रिशला पटरानी जो उस वक्त गर्भिणी भी थी, उसके गर्भ का देवानंदा के गर्भ के साथ अदला-बदला किया। गर्भस्थिति पूर्ण होने पर त्रिशला देवीने सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र के गर्भ में आते ही घर में, नगर में और मांगल्य में धनादिक की वृद्धि हुई थी जिससे उसका नाम वर्धमान रखा गया। प्रभु बड़े उपसर्गों से भी कम्पायमान होंगे नहीं' ऐसा सोचकर इन्द्र ने जगत्पति का महावीर नाम रखा।
जिन शासन के चमकते हीरे . ९७