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आचार्यश्री इन युवकों का विनोद समझ चुके थे लेकिन इन युवकों को पाठ तो पढ़ाना ही चाहियें - ऐसा मानकर भद्रसेन को कहा, 'अरे भाई! तूझे दीक्षा लेनी ही है न?' भद्रसेन दुबारा मज़ाक में ही कहता है, 'नहीं महाराज! पलटे व दूसरे! दीक्षा लेनी ही है, चलिये दे दीजिये, मैं तैयार हैं।'
श्री चंडरुद्रसूरिजी एक दूसरे युवक को थोड़ी दूर पडी राख भरी मिट्टी की कुण्डी पडी है, वह लाने को कहते हैं। वह युवक ला देता है और भद्रसेन के सिर पर मलकर आचार्य उसके केश का लोच कर डालते हैं। आचार्यश्री का रोष उनकी मुखमुद्रा देखकर युवक स्तब्ध हो जाते हैं और यह तो लेने के देने पड़ गये यूं मानकर भागने की तैयारी की और भद्रसेन को कहा, 'चल, अब बहुत हो गया। साधुओं को अधिक सताने में सार नहीं है, चल हमारे साथ, दौड़... भाग चलें।'
भद्रसेन अब घर जाने के लिए ना कहता है, उसके हृदयमें निर्मल विचारणा जाग उठी है। वह मन ही मन कहता है कि 'मैं अब घर कैसे जाऊँ? मैंने स्वयं मांगकर व्रत स्वीकारा है। अब भागूंगा तो मेरी खानदानी लज्जित हो जायेगी, मेरा कुल कलंकित बनेगा। अब तो मैं विधिपूर्वक गुरुमहाराज से व्रत लेकर मेरी आत्मा का कल्याण साध लूँ। बिना कोई प्रयत्न से अचानक ऐसा उत्तम मार्ग मुझे मिल गया। मेरा तो श्रेय हो ही गया।' ऐसी निर्मल विचारणा करके वह आचार्यश्री को प्रार्थना करता है, 'भगवन! आपने कृपा करके मुझे संसारसागर से तारा है, आप विधिपूर्वक व्रत देकर मुझे कृतार्थ करिये। आपके मुझ पर अनंत उपकार हैं।
तत्पश्चात् चंडरुद्राचार्य उसे विधिपूर्वक व्रत ग्रहण कराते हैं और भद्रसेन अब भद्रसेन मुनि बनते हैं। नवदीक्षित अब सोचते हैं कि 'मेरे माँ-बाप, सास, ससुर, पत्नी वगैरह उज्जैन में ही हैं, वे यहाँ आकर मुझे दीक्षा छुड़वाकर घर ले जायेंगे, परंतु किसी भी प्रकार से मुझे यह धर्म छोड़ना नहीं है। इसलिए गुरुमहाराज को हाथ जोड़कर बिनती करते है, 'भगवान मेरा कुटुम्ब बड़ा है। उनको ये युवक खबर दे देंगे, वे मुझे यहाँ लेने आयेंगे और जबरदस्तीपूर्वक यहाँ से ले जाने का प्रयत्न करेंगे। आपका गच्छ तो बहु बड़ा है। सबके साथ शीघ्र विहार तो हो नहीं पायेगा। लेकिन हम दोनों को यहाँ से चुपके से चल देना चाहिये। सब विहार करेंगे तो लोग जान जायेंगे और हमें अटकायेंगे, तो कृपा करके जल्दी कीजिये।'
जिन शासन के चमकते हीरे . १०८