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जो कोई भी अतिचार लगा हो तो मन, वचन, काया से मैं उसकी निंदा करता हूँ। निःशंकित वगैरह जो आठ प्रकार के दर्शनाचार कहे है, उसमें जो कोई भी अतिचार हुआ हो तो उसे मैं मन, वचन काया से क्षमा माँग रहा हूँ, लोभ या मोह से मैंने प्राणियों की सूक्ष्म या बादर जो हिंसा की हो उसकी मन, वचन, काया से क्षमा माँगता हूँ। हास्य, भय, क्रोध एवं लोभ वगैरह से मैंने जो मृषा भाषण किया हो, उन सब की निंदा करता हूँ और उसका प्रायश्चित करता हूँ। रागद्वेष से थोड़ा कुछ अदत्त परद्रव्य लिया हो तो सर्व से क्षमा माँगता हूँ। पूर्व मैंने तिर्यंच सम्बन्धित, मनुष्य सम्बन्धित या देव सम्बन्धित मैथुन मन से, वचन से या काया से सेवन किया हो तो उसकी में त्रिविधता त्रिविधता से क्षमा माँगता हूँ। लोभ के दोष से धन धान्य एवं पशु वगैरह नाना प्रकार के परिग्रह मैंने पूर्वधारण किये हो उसे मन, वचन, काया से बोसराता हूँ। इन्द्रियों से पराभव पाकर मैंने रात्रि को चतुर्विध आहार किया हो उसकी मैं मन, वचन एवं काया से आलोचना करता हूँ। क्रोध, लोभ, राग, द्वेष कलह, चुगली, परनिंदा, अभ्याख्यान (कलंक लगाना) और अन्य कालचारित्राचार के दुष्ट आचरण किये हों उनकी मैं मन, वचन, काया से क्षमापना करता हूँ। बाह्य या अभ्यंतर तपस्या करते समय मुझे मन, वचन, काया से जो अतिचार लगे हो उसकी मैं मन, वचन, काया से निंदा करता हूँ। धर्म के अनुष्ठान में जो कुछ वीर्य स्खलित हुआ हो, उस वीर्याचार के अतिचार की मैं मन, वचन, काया से निंदा करता हूँ। मैंने किसीको पीटा हो, दुष्टवचन कहे हो, किसीका कुछ हर लिया हो अथवा किसीका अपकार किया हो तो मेरे सर्व मित्र या शत्रु, स्वजन या परजन हो वे सब मुझे क्षमा करना। मैं ही सर्व में समान बुद्धिवाला हूँ। तिर्यंचपन तिर्यंच, नारकीपन में नारकी, देवपन में देवता और मनुष्यपने में जो मनुष्यों को मैंने दुःखी किये हो, वे सब मुझे क्षमा करना। मैं आपसे क्षमा माँग रहा हूँ। अब मेरी उन सर्व से मैत्री है। जीवित, यौवन, लक्ष्मी, रूप और प्रिय समागम-ये सब वायु ने नचाये हुए समुद्र के तरंग जैसे चपल (चंचल) हैं। व्याधि-जन्म-जरा और मृत्यु से ग्रस्त बने प्राणियों को श्री जिनोदित धर्म के अलावा संसार में अन्य कोई शरण नहीं है। सर्व जीव स्वजन भी हुए हैं एवं परजन भी हुए हैं तो उनमें कौन किंचित लेकिन ममत्व का प्रतिबंध करे? प्राणी अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मृत्यु पाता है, अकेला ही सुख का अनुभव करता है और अकेले ही दुःख का अनुभव करता है। प्रथम तो आत्मा से यह शरीर अन्य है। धन धान्यादिक से भी अन्य है, बंधुओं से भी अन्य है और देह, धन, धान्य तथा बंधुओसे यह जीव अन्य (भिन्न) है, फिर भी वे मूर्ख जन वथा मोह रखते है। चरबी, माँस, रुधिर, अस्थि, ग्रंथि, विष्टा और मूत्र से भरपूर यह अशुचि के स्थान रूप शरीर में कौन बुद्धिमान पुरुष मोह रखेगा? यह शरीर
जिन शासन के चमकते हीरे . ९६