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श्री नमिराजा
नमिराजा और चंद्रयशा दोनों सहोदरों को लड़ने से बचाया एवं चंद्रयशा ने राज्य नमिराजा को सौंपकर दीक्षा ली, ये बातें मदनरेखा के चरित्र में देखी। नमिराजा न्यायमार्ग पर राज्य चला रहे थे । चन्द्रयशा से राज्य प्राप्त होने के पश्चात् लगभग ६ माह बाद उन्हें दाह ज्वर उत्पन्न हुआ । बैद्य उनकी दवा कर रहे थे लेकिन दाह ज्वर में थोड़ा भी फर्क न पड़ रहा था । दाह ज्वर को शांत करने के लिये उनकी रानियाँ चंदन घिस रही थी। उनकी चूडियों की आवाज़ नमिराजा को अत्यंत पीडा दे रही थी, उन्होंने पूछा, 'मुझे यह किसकी दारुण आवाज़ सुनाई दे रही है। सेवकों ने उत्तर दिया कि चंदन घिसा जा रहा है और चंदन घिसती रानियों के हाथ के कंगनो की यह आवाज है । तब सब रानियों ने एक एक कंगन रखकर बाकी के कंगन निकाल दिये जिससे आवाज़ बंद हो जाये । अधिकमात्रा के कंगन उतर जाने से आवाज़ बंद हो गई। नमिराजा ने पूछा, 'अब आवाज़ क्यों बंद हो गई? ' सेवकों ने उत्तर दिया कि 'एक सौभाग्य कंगन रखकर शेष कंगन उतार देने के कारण।'
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राजा सोचने लगा, कई कंगन थे और उनकी आवाज़ दुःखदायी थी । सिर्फ एक कंगन रखने से एकदम शांति हो गई। इस प्रकार अकेलेपन में ही महासुख है, जंजाल बढ़ने से दुःख बढ़ता है, सुख बढ़ता नहीं है। आत्महित के लिये जंजाल का त्याग करना ही ठीक रहेगा। ऐसे सोचते हुए मन से तय किया कि 'यदि मेरा दाह ज्वर बिलकुल शांत हो जायेगा तो मैं चारित्र ग्रहण करूंगा।' ऐसा सोचकर सो गये। सुबह उठे तब दाह ज्वर शांत हो गया था । रात्रि को स्वप्न में उसने ऐरावत हाथी और मेरु पर्वत देखा । ऐसे सुंदर सपने के कारण भी रोग दूर हुआ है - ऐसा नमिराजा ने सोचा । स्वप्न के बारे में सोच-विचार करते करते उन्हें जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । 'मैंने पूर्वभव में साधूपन पाला था । वहाँ से मृत्यु पाकर प्रणत देव लोक का देवता बना था । ' इस प्रकार जाति स्मरण ज्ञान होने के कारण अपने पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षा ग्रहण कर ली । नमिराजा ने चारित्र ग्रहण किया । इन्द्रराजा ब्राह्मण का रूप लेकर उनकी परीक्षा करने आये और कहा, 'हे राजन! तूने राज्य का तृणवत् त्याग किया, यह बहु अच्छा किया है लेकिन तूझे जीवदया पालनी
जिन शासन के चमकते हीरे ७०