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संपादन की
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युगबाहु एवं मणिरथ की मृत्यु के बाद युगबाहु के पुत्र चंद्रयशा को राजगद्दी
पर बिठाया गया था ।
एक बार नमिराजा का मुख्य हाथी जो स्तंभ से बधा हुआ था, वह स्तंभ को जड़ से उखाड़कर भाग छूटा। वह अटवी में घूम रहा था तब चंद्रयशा राजा के हाथ लगा । नमिराजा के आदमियों ने आकर चन्द्रयशा से हाथी की माँग की । चन्द्रयशा ने उन्हें धुत्कार दिया। इस कारण दोनों राजा एक-दूसरे से लड़ने के लिये तैयार हो गये । नमिराजा अपने सैन्य के साथ सुदर्शनपुर आये और नगरी को चारों ओर से घेर लिया।
मदनरेखा जिन्होंने यतिधर्म ग्रहण किया था, जिनका साध्वीरूप में सुव्रता नाम था, उन्होंने दोनों भाइयों के कलह की बात जानी। दोनों सगे सहोदर भाई होने पर भी लड़ेंगे और हजारों जीवों का घात होगा। पाप के भागी दोनों भाई होकर नरक को जायेंगे - ऐसा सोचकर अपनी गुरुजी की आज्ञा लेकर वह दोनों युद्धकर्ताओं के पास पधारीं । नमिराजा को मिलने पर नमि राजा ने उनकी वंदना की, उनसे धर्मोपदेश सुना। और कहा कि चन्द्रयशा उसका ज्येष्ठ भ्राता है। उसका पूर्व सम्बन्ध उसे सुनाया। सुव्रता साध्वी उसकी माता है यह जानकर भी नैमिराजा ने युद्ध करने का रूख चालू ही रखा। इस कारण से सुव्रताश्रीजी दूसरे भाई चंद्रयशा के पास जाकर कहा, 'तुम दोनों लड़ रहे हो, लेकिन दोनों सगे भाई हो, लड़ने में कुछ फायदा नहीं है और दोनो ही नरक गति के पाप बांधोगे, ' ऐसी बात समझा दी। चन्द्रयशा अपने भाई से मिलने चल पड़ा। बड़ा भाई मिलने आ रहा है, यह जानकर नमिराजा भी संग्राम छोड़कर ज्येष्ठ भ्राता के चरणों में गिर पड़ा। बड़े भाई ने उसे उठाकर गले लगा लिया और उत्साहपूर्वक अपने भाई को नगर प्रवेश कराया । चन्द्रयशा ने नमिराजा को राज्यग्रहण करने के लिए कहा। माताजी ने दोनों का सम्बन्ध समझाया था, इसलिए चन्द्रयशा ने नमिराजा को कहा, 'अब मुझे राज्य की जरूरत नहीं है, मैं संयम के मार्ग पर जाऊँगा।' नमिराजा भी संयम ग्रहण हेतु तैयार हुए लेकिन बड़े भाई की छोटे भाई को राज्य सौंप करके दीक्षा लेना ही योग्य है ऐसा समझाकर राज्यधूरा नमिराजा को सौंपकर चन्द्रयशा ने दीक्षा ग्रहण कर ली । साध्वी मदनरेखा याने सुव्रताश्रीजी सर्व कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष पधारीं ।
जिन शासन के चमकते हीरे ६९