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नहीं है। तूं मेरे वचन क्यों सूनता नहीं है? ये तेरे कान के छिद्र क्या फोगट ही है?' इतना कुछ कहने के बाद जब प्रभु से उत्तर न मिला तो क्रोधित होकर प्रभु के दोनों कान में बबूल की शूलें डाल दीं। शूले आपस मे इस प्रकार मिल गई मानो वे अखण्ड एक सलाई समान दिखने लगी। ये कीले कोई निकाल ले - ऐसा सोचकर वह ग्वाला, बाहर दिखता शूलों का भाग काटकर चलता बना। उस समय शूलों की पीड़ा से प्रभु जरा से भी कंपित न हुए। वे शुभ ध्यान में लीन रहे और प्रभु वहां से विहार करके अपापानगरी पधारें। सिद्धार्थ नामक बनिये के यहाँ पधारे, वहाँ खरल नामक वैद्य ने कान का यह शल्य देखा और प्रभु के कान में से दो सँड़सी द्वारा दोनों कान में से दोनों कील एक साथ खींच निकाली। रुधिर सहित दोनो कीलें मानो प्रत्यक्ष अवशेष पीड़ाकारी कर्म निकल जाते हो उस प्रकार निकल पड़ी। कीले खींचते समय प्रभु को ऐसी भयंकर वेदना हुई कि उनसे भयंकर चीख निकल पड़ी। खरल वैद्य और सिद्धार्थ वणिक ने अंहोरिणी औषधि से प्रभु के कान का इलाज किया और प्रभु के घाव भर गये। इस प्रकार त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में गर्म सीसा भरने का कर्म प्रभु के भव में भगवान को कान में कीले ठुकवाकर भुगतना पड़ा।
पुराना हुआ रे देवल पुराना रे हुआ । पुराना हुआ रे देवल पुराना रे हुआ: मेरा हंसला छोटा और देवल पुराना रे हुआ...(टेक) यह काया रे हँसा' डोलने लगी रे; गिर गये दांत, अंदरूनी रेखु तो रही... मेरा तर मेरे बीच हसा प्रीत बंध गई रेः उड गया हस, पिंजरा पड़ा रहा रे...मेरा० बाई मीरा कहे प्रभु गिरधर के गुणः
प्रेम प्याला आपको पीलाऊँ और पीऊ रे... मेरा ।। शरार र जीवात्मा. ३. आत्मा, .. दात की जगह
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जिन शासन के चमकते हीरे • ४४