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यह सब छोड़कर साधू के दर्शन करने की कैसी बात बहनोई कर रहे हैं? वाकई यह मनुष्य एक अजूबा है।
विचार भंवर में पड़े उदयसुंदर से रहा नहीं गया, उसने हँसते हँसते बहनोई को टोका, 'साधु तो नहीं बनना है न? दीक्षा लेनी है क्या?' उदयसुंदर ने मजाक में कहा तो सही लेकिन वज्रबाहु की आत्मा सामान्य तो न थी। उसके जीवन में बाल्यकाल से ही साधुओं के प्रति अनुराग भरा पड़ा था। कुल संस्कार, माँ-बाप आदि बुझुर्गों की धर्मभावना वज्रबाहु में भरी पड़ी थी, इस कारण वज्रबाहु ने उत्तर में कहा, 'हाँ, श्री जिनेश्वर के पवित्र त्यागमार्ग के प्रति किसका मन न होवे? दीक्षा की भावना तो हैं परंतु...।' ____ 'परंतु बरंतु क्या कहते हो बहनोई? भावना है तो हो जाओ तैयार। मैं करूंगा मदद आपको।' उदयसुंदर मज़ाक समझकर बात बढ़ा रहा था। लेकिन साले की हँसी को बहनोई सगुन की गाँठ मानकर उत्तर देते हैं, 'मैं तैयार हूँ, आप सहाय करने बैठे हैं तो मुझे और क्या चाहिये? अपने वचन का पालन करना।' ऐसा कहकर वज्रबाहु शीघ्र ही रथ से ऊतर पड़े। वज्रबाहु की निडर वाणी सुनकर उदयसुंदर चमक पड़ा - उसे लगा यह तो रंग में भंग पड गया। वज्रबाहु यूं उलटी गंगा बहा देंगे - ऐसा उदयसुंदर की कल्पना में भी न था।
वह बात को घूमा फिराने लगा, 'भाई! आप ऐसे चल पड़ो यह कैसे हो सकता है? मैंने तो साले के नाते बहनोई की मसखरी ही की है। ऐसी छोटी बात को इतना बड़ा रूप देना आप जैसे के लिये योग्य नहीं है।'
लेकिन वज्रबाहु की आत्मा संसार से उब चुकी थी। मात्र निमित्त की ही जरूरत थी। जो सरलता से मिल गया था। उसने उदयसुंदर को कहा :
'अब आपको दूसरा कोई विचार करना ही नहीं है। क्षत्रिय पुरुष बोले हुए वचन से हटते नहीं है। प्रवज्या के पुण्यपथ पर हमारे पूर्वज चले हैं और उसी मार्ग पर चलने में ही जीवन की सच्ची सफलता है।' ___अपनी छोटी बहिन के हाथ पर विवाह के चिह्न रूप मदनफल बंधा हुआ है, उसके संसार का क्या? उदयसुंदर को यह चिंता खाये जा रही थी। कितकितनी आशाएँ, मनोरथ तथा सपनों के साथ संसार में कदम रखा है, उसका सौभाग्य यूं बेमौके मुरझाता हुआ भाई का स्नेहार्द्र हृदय कैसे सह पाता?
उसने बड़े आग्रह से वज्रबाहु को कहा : 'आप एकदम यह साहस करने
जिन शासन के चमकते हीरे • ६२