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श्री नयसार
जंबूद्वीप में जयंती नामक नगरी थी । वहाँ शत्रुमर्दन नामक राजा राज्य करते थे। उसके पृथ्वी प्रतिष्ठान नामक गाँव में नयसार नामक स्वामीभक्त मुखिया थे। उसे कोई साधु-महात्माओं के साथ सम्पर्क न था । लेकिन वह अपकृत्यों से पराङमुख दूसरों के दोष देखने से विमुख और गुणग्रहण में तत्पर रहता था ।
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एक बार राजा की आज्ञा से लकड़े लेने वह पथ्य लेकर कई बैलगाडियों के साथ जंगल में गया । वृक्ष काटते हुए मध्याह्न का समय हुआ और खूब भूख भी लगी। उस समय नयसार साथ आये अन्य सेवकों ने उत्तम भोजन सामग्री परोसी, नयसार को भोजन के लिये बुलाया । स्वयं क्षुधातृषा के लिए आतुर था लेकिन 'कोई अतिथि आये तो उसे भोजन कराने के बाद भोजन करूँ' - ऐसा सोचकर आसपास देखने लगा । इतने में क्षुधातुर, तृषातुर और पसीने से जिनके अंग तरबतर हो गये थे ऐसे कुछ मुनि उस तरफ आ पहुँचे । 'अहा ! ये मुनि मेरे अतिथि बनें, बहुत अच्छा हुआ । ' ऐसा चिंतन करते हुए नयसार ने उनको नमस्कार करके पूछा, 'हे भगवंत ! ऐसे बड़े जंगल में आप कहाँ से आ गये ! कोई शस्त्रधारी भी इस जंगल में अकेले घूम नहीं सकता।' मुनियों ने कहा : 'प्रारंभ से हम हमारे स्थान से सार्थ के साथ साथ चले थे। मार्ग में हम एक एक गाँव में भिक्षा लेने गये और साथ चला पड़ा। हमें कुछ भी भिक्षा न मिली। हम सार्थ को ढूंढते हुए आगे ही आगे बढ़ते गये। लेकिन हमें सार्थ तो मिला नहीं और इस घोर बन में पहुँच गये।' नयसार ने कहा, 'अरे रे ! वह सार्थ कैसा निर्दय ! कैसा विश्वासघाती ! उसकी आशा पर साथ चले साधुओं को साथ लिये बिना स्वार्थ में निष्ठुर बनकर चल दिया। मेरे पुण्य से आप अतिथि रूप में पधारे हैं, यह अच्छा ही हुआ है।' इस प्रकार कहकर नयसार अपने भोजन स्थान पर ले गया और अपने लिये तैयार किये गये अन्न - पानी से मुनियों को प्रतिलाभान्वित किया। मुनियों ने अलग जाकर अपने विधि अनुसार आहार ग्रहण किया। भोजन करके नयसार मुनियों के पास पधारे और प्रणाम
जिन शासन के चमकते हीरे ४५