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'हा प्रभु !'
'लेकिन वाकई ऐसा हो सकता है? तीर्थंकर हंमेशा अपना आयुष्य पूर्ण करके ही निर्वाण पाते हैं। उनके आयुष्य को न कोई घटा सकता है, न कोई बढ़ा सकता है।'
'लेकिन प्रभु !' अणगार रोते रोते गिड़गिड़ाये, 'सकल संघ आपकी स्थिति देखकर व्यथित हो रहा है।'
'प्रभु ! स्वयं के लिए नहीं तो हमारे मन की शांति के लिए आप औषध सेवन करिये। आपकी पीड़ा क्षणमात्र देखने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ।'
सिंह मुनि के ऐसे आग्रह से प्रभु ने कहा : 'इस गाँव में रेवती नामक श्राविका ने मेरे लिए कद्दू का कटाह पकाया है, वह तूं मत लेना, लेकिन उसने अपने लिए बीजोरे का कटाह पकाया है वह ले आ। तेरे आग्रह से वह कटाह मैं औषध के रूप में लूंगा जिससे तुम्हें धैर्य प्राप्त होगा ।'
सिंह अणगार नाच उठे । उनका अंग अंग हर्ष से रोमांचित हो उठा। रेवती का ठिकाना ढूंढकर सिंह अणगार उसके आँगन में पधारे।
विनयपूर्वक रेवती ने वंदना की । हाथ जोड़कर पूछा : 'कहो भगवान् ! पधारने का कारण ?' 'हे श्राविका ! तूंने भगवान के लिये जो औषध बनाया है वह नहीं परंतु जो तेरे स्वयं के लिये औषध बनाया है उसकी हमें जरूरत
है ।
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रेवती आश्चर्यचकित होकर बोली, 'हे भगवान्! कौन ऐसे दिव्यज्ञानी हैं जो इस गुप्त बात को जान गये।'
'सर्वज्ञ भगवान के सिवा अन्य कौन हो सकता है रेवती ! '
रेवती ने आनंदपूर्वक वह औषध सिंह अणगार को अर्पण किया । और जैसे ही पात्र में औषध गिरा, देवों ने महादानम् महादानम् का दिव्यध्वनि किया। सिंह अणगार त्वरित गति से भगवान के पास आये और भगवान को औषध का आहार कराया। अल्पकाल में भगवान की देह रोगमुक्त हो गई । चतुर्विध संघ ने आनंद उत्सव मनाया, सिंह अणगार की आँखो से हर्ष के अश्रु की धारा बह रही थी और मुख भगवान के सामने मुस्करा रहा था ।
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जिन शासन के चमकते हीरे ४९