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श्री वंधक मुनि
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जीतशत्रु राजा एवं धारणी देवी के पुत्र... । धर्मघोष मुनि की देशना से प्रतिबोध पाया । खंधक मुनि छठ्ठी और अष्टमी का तप करते, कठिन परिषह सहन करते थे । तप करते करते काया बहुत सूख गई । हड्डियां गिन सको ऐसा शरीर हो गया। संसार अस्थिर है - यूं समझकर कड़े तप करते गये।
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विहार करते करते एक दिन वे उनकी संसारी बहिन जहाँ के राजा के साथ ब्याही थी, उस शहर में पधारे। बहिन ने राज्यभवन में से मुनि को देखा, भाई का प्रेम याद आया और आँख में से अश्रु बहने लगे । राजाजी ने यह देखा और मन में विचार करने लगे, 'यह राजी का पुराना यार लगता है, यह कांटा शहर में नहीं रहना चाहिये ।'
राजा ने सेवकों को बुलाकार साधू की चमड़ी उतार लाने की आज्ञा दी। रानी को इस आज्ञा का पता न चला।
ध्यानावस्था में खड़े खंधक मुनि के पास सेवक आये और कहा, 'हमारे राजा की आज्ञा है कि आपकी चमड़ी उतारकर उनको सौंप दे। समता के समुद्र जैसे खंधक मुनि ध्यान से चलित न हुए और मन से आनंद पाकर सोचने लगे कि कर्म खपाने का शुभ अवसर आया है। ऐसे समय पर कायर बनना ठीक नहीं। उन्होंने सेवकों को कहा, 'यह चमड़ी रुक्ष हो गई है, आपको उतारने में कठिनाई होगी, इसलिये आप कहे उस प्रकार मेरा शरीर रखूँ जिससे आपको चमड़ी उतारने में तकलीफ न हो।' ऐसा कहकर काया को भूला डाली (मानसिक तौर पर छोड़ दी ) और चार शरणा का ध्यान करते हुए स्थिर रहे । चड़ चड़से चमड़ी उतरने लगी। मुनि ने वेदना का स्वागत हर्षपूर्वक किया, शुक्ल ध्यान लगा दिया और क्षपक श्रेणी में पहुँचकर केवलज्ञान पाया, अजरअमर पद पर पहुँच गये ।
वहाँ खून से लथपथ वस्त्र पड़े थे। उसमें से मुहपत्ती को एक पक्षी चोंच मे लेउडा और खून से लथपथ मुहपत्ती रानी के झरोखे में जा गिरी। यह मुहपत्ती तो मेरे भाई की ही है - पहचान ली। भाई की हत्या की गई है - ऐसा समझकर रानी भाई के विरह में रोने लगीं। राजा को सच बात
जिन शासन के चमकते हीरे ५४