Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सिद्धान्ततः ध्यान कायोत्सर्ग का ही एक रूप है, इसलिए संभव है कि इस आवश्यक पर भाष्य लिखने के उद्देश्य से उन्होंने कुछ गाथाएँ ध्यान पर लिखी हों। चूंकि वे अपने जीवनकाल में छहों आवश्यकों पर पूरा भाष्य नहीं लिख पाए, अतः कालान्तर में इन गाथाओं ने ध्यानाध्ययन नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का ही रूप ले लिया हो। दूसरी दृष्टि से, उनका उद्देश्य यह भी रहा होगा कि पाठकों को ध्यान का सर्वागीण ज्ञान प्राप्त कराने के लिए ध्यान के प्रतिपादक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की जाए और इस हेतु उन्होंने इस स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की हो ।
यद्यपि विशेषावश्यकभाष्य की प्रतिज्ञानुसार षडावश्यक के प्रत्येक आवश्यक पर एक - एक अध्ययन लिखा जाना था, किन्तु वे मात्र सामायिक - अध्ययन तक ही सीमित रह गए, बचे हुए अध्ययनों पर लेखन - कार्य नहीं हो सका, अतः एक दृष्टिकोण से यह भी संभव हो सकता है कि आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की रुचि ध्यान में रही हो, इसी कारण सामायिक - अध्ययन लिखने के पूर्व या पश्चात् उन्होंने ध्यानाध्ययन पर भाष्य-गाथाएँ लिखने का प्रयास किया हो और वे ही गाथाएं भविष्य में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में 'झाणज्झयण' के नाम से प्रसिद्ध हो गई हों ।
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तदनुसार, रचयिता द्वारा दिया गया ध्यानाध्ययन नाम ही सार्थक प्रतीत होता है। हरिभद्रसूरि ने आवश्यकनिर्युक्ति की टीका में झाणज्झयण को ही 'ध्यानशतक' नाम से उल्लेखित किया है, उसका मुख्य कारण प्रस्तुत ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या एक सौ पांच होना है, अतः जहाँ मूल ग्रन्थकार जिनभद्रगणि ने उसे 'ध्यानाध्ययन' नाम दिया हो, वहीं टीकाकार हरिभद्रसूरि ने उसे 'ध्यानशतक' नाम दिया हो। अपनी-अपनी जगह ये दोनों ही नाम उचित प्रतीत होते हैं। दूसरा यह कि हरिभद्रीय - युग में ग्रन्थों के नामकरण की प्रवृत्ति ग्रन्थों के श्लोक अथवा गाथाओं की संख्या पर आधारित थी । स्वयं आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों के नाम उनकी श्लोक संख्या के आधार पर दिए हैं, जैसेअष्टक, षोडशक, विंशिका, द्वात्रिंशिका, पंचाशक आदि। इसी प्रकार, योग पर आधारित उनके मुख्य ग्रन्थ का नाम भी 'योगशतक' है। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सारांश में यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम ध्यानशतक मूल कर्त्ता का न होकर ग्रन्थ के टीकाकार हरिभद्रसूरि द्वारा प्रदत्त । मूल ग्रन्थकार ने तो इसका नाम ध्यानाध्ययन (झाणज्झयण) ही दिया था ।
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