________________ 93 व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श होना चाहिए। इसी प्रकार साथ में आने वाली साध्वी ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न, उचित और अनुचित का विवेक करने में सक्षम, अवस्था से परिणत होनी चाहिए। इन गुणों के बिना वह आलोचक साध्वी का विश्वास प्राप्त नहीं कर सकती। आलोचना और माया आलोचना और ऋजुता का गहरा संबंध है लेकिन छद्मस्थता के कारण साधक ऋजुतापूर्वक अपने दोषों को प्रकट नहीं कर पाता। स्थानांग सूत्र में मायावी व्यक्ति द्वारा आलोचना-प्रतिक्रमण न करने के आठ कारण बताए गए हैं-१. मैंने अकरणीय कार्य किया है 2. मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूं 3. मैं अकरणीय कार्य करूंगा 4. मेरी अकीर्ति होगी 5. मेरा अवर्ण होगा 6. मेरा अविनय होगा 7. मेरी कीर्ति कम हो जाएगी 8. मेरा यश कम हो जाएगा। मायावी व्यक्ति माया करके भी तीन कारणों से आलोचना, निंदा और गर्दा करके गुरु से प्रायश्चित्त प्राप्त करके विशुद्ध हो जाता है -1. आलोचना करने वाले का वर्तमान जीवन गर्हित होता है। 2. उसका उपपात प्रशस्त होता है। 3. आगामी जन्म प्रशस्त होता है। ___ उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि कदाचित् भिक्षु क्रोध में आकर कोई अकरणीय कार्य कर ले तो उसे छिपाए नहीं। गुरु के सामने स्वीकार करे कि मुझसे यह अपराध हुआ है। नियुक्तिकार के अनुसार शस्त्र, विष, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यंत्र और क्रुद्ध सर्प भी उतना कष्टदायक नहीं होता, जितना कि माया आदि भावशल्य। स्थानांग सूत्र में मायावी व्यक्ति की माया से उसके भीतर होने वाली तप्ति को अनेक उपमाओं से उपमित किया है। मायावी व्यक्ति अकरणीय कार्य करके उसी प्रकार अंदर ही अंदर जलता है, जैसे लोहे को गालने की भट्टी, तांबे को गलाने की भट्टी, त्रपु को गलाने की भट्टी। लोहकार की भट्टी जैसे अंदर ही अंदर जलती है, उसी प्रकार मायावी माया करके अंदर ही अंदर जलता है आदि। यदि कोई बिना आलोचना या प्रतिक्रमण किए ही कालगत होता है तो ऋद्धिमान्, द्युतिमान्, यशस्वी और 1. बृभा 398 नाणेण दंसणेण य,चरित्त-तव-विणय-आलयगुणेहिं। वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो।। २.बृभा 396; नाण दंसणसंपन्ना, पोढा वयस परिणया। इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसे बिइज्जिया।। ३.स्था 8/9 / 4. स्था 3/342 / "4.31/11 / 6. ओनि 803,804; न वि तं सत्थं व विसं व, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमाइणो कुद्धो।। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि। दुल्लभबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च।। 7. पंचा 15/36; सम्म दुच्चरितस्सा, परसक्खिगमप्पगासणं जंतु। एयमिह भावसल्लं, पण्णत्तं वीयरागेहिं / / ___गीतार्थ के समक्ष अपने अकृत्य का प्रकाशन न करना भावशल्य है।