________________ 176 जीतकल्प सभाष्य उसको श्रेष्ठ गृहस्थ के कपड़े क्यों पहनाए जाते हैं? अथवा वस्त्र युगल क्यों पहनाए जाते हैं? उसको परिषद् के मध्य में धर्मकथा क्यों कही जाती है? इन सब प्रश्नों को समाहित करते हुए आचार्य कहते हैं कि इन सबको करने से उसका तिरस्कार होता है। तिरस्कार होने से वह भविष्य में वैसे अतिचार का सेवन नहीं कर सकता। गण में अन्य साधुओं तथा शैक्ष मुनियों के मन में भय पैदा हो जाता है कि गृहस्थभूत होना धर्म से रहित होना है अतः उसका यह रूप किया जाता है। पांच कारणों से प्रायश्चित्ती को गृहीभूत नहीं किया जाता१. राजानुवृत्ति-यदि राजा का यह आग्रह हो कि इस मुनि को गृहस्थ न बनाया जाए अथवा उस भिक्षु ने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो। 2. गण-प्रद्वेष-बिना गलती स्वगण ने द्वेषवश उसे यह प्रायश्चित्त दिलाया हो। 3. परमोचापन-अपने उपकारी आचार्य या भिक्षु को कठोर प्रायश्चित्त वहन करते देखकर अनेक शिष्य संघ या संयम छोड़ने के लिए उद्यत हो जाएं। 4. इच्छा-प्रायश्चित्त वहन कर्ता भिक्षु या अन्य अनेक शिष्यों का यह आग्रह हो कि गृहीभूत न किया जाए। 5. विवाद-उस प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में दो गणों में विवाद हो। बौद्ध-परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित्त की अनवस्थाप्य से आंशिक तुलना की जा सकती है। वहां इस प्रायश्चित्त-प्राप्ति के तेरह कारण बताए हैं। इस प्रायश्चित्त का विस्तृत वर्णन विनयपिटक में मिलता है।' अनवस्थाप्य और पाराञ्चित में अंतर अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-दोनों में परिहार तप वहन किया जाता है लेकिन अनवस्थाप्य में बारह वर्ष तक गण में रहते हुए यह प्रायश्चित्त वहन किया जाता है लेकिन पाराञ्चित में परिहारतप वहन करता हुआ मुनि सक्रोश योजन प्रमाण क्षेत्र से बाहर अकेला रहता है। उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष पूर्ण होने पर उसको पुनः व्रतों में उपस्थापित किया जाता है।' 10. पाराञ्चित प्रायश्चित्त अञ्चु गतिपूजनयोः धातु से पाराञ्चित शब्द बना है। जिस प्रायश्चित्त को वहन कर साधु संसारसमुद्र के तीर अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, वह पाराञ्चित प्रायश्चित्त है। जिस प्रतिसेवना में तप 1. जीभा 2464 / 2. व्यभा 1210 अग्गिहीभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। परमोयावण इच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा।। .. 3. विनयपिटक (महावग्ग 150 पृ. 140, 141) / 4. बृभा 712 टी पृ. 216 /