Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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________________ परिभाषाएं : परि-४ 647 चलचित्त-सम्यक्त्वादिषु योऽस्थिरः स चलचित्तः। __ (जीचूवि पृ. 32) चूर्णपिण्ड (भिक्षा का दोष)-• एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं। / ___ उप्पाएती पिंडं, सो होती चुण्णपिंडो तु॥ (गा. 1456) छिन्नमडम्ब-अड्डाइयजोयणभ्यन्तरे जत्थ वसिमं अन्नं नत्थि तं छिन्नमडम्बं। (जीचूवि पृ.५४) छेदाह (प्रायश्चित्त का भेद)-छेयारिहं-जम्मि य पडिसेविए संदूसियपुव्वपरियायदेसावछेयणं कीरइ। (जीचू पृ. 6) जीतव्यवहार-• सुत्ताओ पुण हीणं समं अइरित्तं वा जीयदाणमिति। (जीचू पृ. 4) * वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो आसेवितो महाणेणं। एसो तु जीतकप्पो....। (गा. 675) * जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपः प्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते। (जीचूवि पृ. 38) जीव-सव्व-कालमुवओग-लक्खणत्तणओ जीवो। (जीचू पृ. 2) तथाकार-तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवंरूपः। (जीचूवि पृ. 41) तदुभय (प्रायश्चित्त का भेद)-• जं पाव सेवितूणं, गुरुणो विगडिज्जती उ सम्मं तु। ___ गुरुसंदिट्ठ पडिक्कम, तदुभयमेतं मुणेतव्वं॥ (गा.७२१) तपोऽहं (प्रायश्चित्त का भेद)-णिव्वीतियमादीओ, छम्मासंतो उ जत्थ दिज्जति तु। एय तवारिह भणितं। (गा.७२४) तरमाणक-तरमाणगा-जे जं तवोकम्मं आढवेति तं नित्थरंति। (जीचूवि पृ.५९) तलवर-तलवरपट्टेण तलवरो होति। (गा. 2004) तितिणिक-तितिणिओ स्तोकोक्तेऽपि यत्किञ्चनभाषी। (जीचूवि पृ. 44) तिर्यक्गामिनी (नौका)-तिरिच्छगामिणी णदिं छिन्दन्ती गच्छइ। (जीचू पृ. 11) त्यक्तकृत्य- चत्तं जेण दरिसणं, चारित्तं वावि सो तु णातव्वो। चत्तक्किच्चो.... // (गा. 2295) * जं अववायेण निसेवियं गिलाणाइकारणे असंथरे वा, पुणो ते चेव हट्ठसमत्थो वि होउ निसेवंतो चियत्तकिच्चो भवइ। (जीचूवि पृ. 34) श्रुतव्यवहार-जे पुण सुयववहारी ते सुयमणुवत्तमाणा इंगिआगार-वत्त-णेत्त-वयण-विगाराइएहिं भाव मुवलक्खिऊण तिक्खुत्तो अइयारं आलोयावेऊण ; तं जहा-सुओवएसेण पलिउंचियमपलिउंचियं वा आलोयणाकाले जं जहा आलोएज्जा तं तहा सुओवएसेण ववहरन्तीति, एस सुयववहारो। (जीचू पृ. 4) श्रुतोपसम्पत्–श्रुतग्रहणायान्याचार्यमुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसम्पत्। (जीचूवि पृ. 41)

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