Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 843
________________ 649 परिभाषाएं : परि-४ पाणिपतद्ग्रही-• वग्गुलिपक्खसरिसगं, पाणितलं तेसि धीरपुरिसाणं। माएज्ज घडसहस्सं, धारेज्ज व सो तु सागरा सव्वे। जो एरिसलद्धीए, सो पाणिपडिग्गही होति॥ (गा. 2167, 2168) पाराञ्चित-पारं तीरं तपसा अपराधस्य अंचति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराञ्ची। (जीचूवि पृ. 39) जम्मि पडिसेविए लिंगखेत्तकालविसिट्ठाणं, तं पारञ्चियारिहं। (जीचू पृ. 6) प्रकटकरण (भिक्षा का दोष)-आहारसेज्जाइयं साहुणो भुंजिस्संति, रंधिउं अन्नो सव्वमेवाहारं बहिं नीणेइ साहुअट्ठाए, एयं पागडकरणं। (जीचूवि पृ. 45) प्रकाशकरण-रयणप्पईवजोईवायायणकुड्डछेड्डाइएहिं उज्जोयकरणं साहुअट्ठाए एवं पगासकरणं। (जीचूवि पृ. 45) प्रणीत-जं पुण गलंतणेहं, पणीतमिति तं बुहा बेंति। (गा. 1626) प्रतिक्रमणार्ह-• मिच्छादुक्कडमेत्तेण, चेव जं सुज्झती तु पावं तु। ण य विगडिज्जति गुरुणो, पडिकमणरिहं हवति एयं॥ (गा.७१९) प्रतिपृच्छा-• प्रतिपृच्छा सा च प्राग्नियुक्तेनापि कार्यकरणकाले कार्या। (जीचूवि पृ. 41) __* पुन्वनिसिद्धेन होइ पडिपुच्छा। प्रदुष्टचित्त-कोहादी व अतीव तु, पदुद्दचित्तो मुणेतव्वो। (गा. 2306) प्रमाणदोष-• पकामं च निकामं च, जो पणियं भत्त-पाणमाहारे। अतिबहुयं अतिबहुसो, पमाणदोसो मुणेतव्वो॥ (गा.१६२५) प्रमाद (प्रतिसेवना)-पमाओ नाम जं राओ दिया वा अप्पडिलेहंतो अपमज्जयंतो य पाणाइवायाइयमावज्जइ। (जीचू पृ. 25) प्रवयण-जीवादिपयत्था वा, उवदंसिज्जंति जत्थ संपुण्णा। सो उवदेसो पवयण....। (गा. 3) . बकुश-• बउसं सबलं कब्बुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं / - अइयारपंकभावा, सो बउसो होइ नायव्वो॥ (जीचूवि पृ. 43) बकुशत्व-बाउसत्तं सरीरसुस्सूसापरायणत्तं। (जीचू पृ. 9) भाव अपरिणत-यत्र द्वयोः साध्वोर्भिक्षार्थं गतयोरेकस्य मनसि तदशुद्धं परिणतम्, अन्यस्य तदेव शुद्धं मनसि परिणतं, तदपि भावापरिणतम्। (जीचूवि पृ. 48) भाषासमित-अहव य भासति कज्जे, णिरवज्जमकारणे ण भासति य। __विकह-विसोत्तियपरिवज्जितो जती भासणासमितो॥ (गा.८२४) मध्यगत अवधि-• जह पुरिसो कोइ चुडुलिमादीणि काउं सिरम्मि गच्छति, मज्झगतो एस ओही तु॥ (गा. 43) मनःपर्यवज्ञान- तं मणपज्जवणाणं, जेण विजाणाति सण्णिजीवाणं / दटुं मणिज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं॥ (गा. 86)

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