Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________ परिशिष्ट-७ उपमा और दृष्टान्त * धूमेण अग्गिं व्व। (गा.१७) * पणुल्लयंतो व्व जह पुरिसो। (गा. 40) * जाणति पिहुज्जणो वि हु, फुडमागारेहि माणसं भावं। एसुवमा तस्स भवे.....। (गा. 87) * पंकसलिले पसादो, जह होति कमेण तह इमो जीवो। (गा. 90) * चंदमुहीव तु सो वि हु, आगमववहारवं होति। (गा. 110) * जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ णिउणो। (गा. 118) * णातमिणं तत्थ धमएणं। (गा. 121) * जह आममट्टियघडे, अंबेव ण छुब्भती खीरं। (गा.१८१) * जाहगदिटुंतेणं। (गा. 183) * जाणति पयोगभिसजो, वाही जेणाऽऽतुरस्स छिज्जति ऊ। (गा. 193) * सीतघरम्मि व डाहं। (गा. 236) * वंजुलरुक्खो व जह व उरगविसं। (गा. 236) * घुणक्खरसमो तु पारोक्खी। (गा. 258) * जह धणिओ सावेक्खो, निरवेक्खो चेव होति दुविधो तु। (गा. 292) * तिलहारगदिटुंतो। (गा. 308) * जह दीव-तेल्ल-वत्ती, खओ समं तह सरीरायुं। (गा. 350) * जह सुकुसलो वि वेज्जो, अण्णस्स कहेति अप्पणो वाधी। (गा. 409) * जह वाऽऽउंटियपादे, पादं काऊण हत्थिणो पुरिसो। (गा. 483) * उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो ण साहते कजं। (गा. 484) * लावए पवए जोहे, संगामे पत्थिए इय। आतुरे सिक्खगे चेव, दिटुंत समाहिकामेते॥ (गा. 485) * सम-विसमम्मि व पडितो, अच्छति जह पादवो व णिक्कंपो। (गा.५१९) * वायादीहिं तरुस्स व। (गा. 520) * जह चालणि व्व कतो। (गा.५३३) * जह णाम असी कोसी, अण्णा कोसी असी वि खलु अण्णो। (गा.५४०) * जह ण वि कंपति मेरू। (गा.५५५)

Page Navigation
1 ... 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900