Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 864
________________ 670 जीतकल्प सभाष्य फड्डग-अंश। गा. 1210 करने की क्रिया। गा. 1571 फड्डावती-गण के अवान्तर विभाग रुक्ख-वृक्ष / गा. 480 का नायक। गा. 781 रुवई-रूई। जीचूवि पृ. 55 फरुस-कुम्भकार। गा. 2531 रेल्लय-पानी का प्रवाह। जीचूवि पृ. 44 बाहाडा-प्रचुर, अत्यधिक। गा. 857 रोट्ट-तंडुल पिष्ट, चावल आदि भोइग-पति। गा. 1342 का आटा। जीचू पृ. 16 भोइणी-भार्या। गा. 1342 रोर-दरिद्र, सामान्य। गा. 1651 भोइय-ग्राम का नायक। गा. 2004 लइअ-पहना हुआ। गा. 2485 मइल-मैला। गा. 1650 लंबण-कवल। गा. 1613 मंडुक्कलि-मेंढकी। गा. 800 | लागतरण-भूने हुए चावलों से बनाया / मग्गत-पीछे। गा. 41 गया पेय विशेष। गया पेय विशेष। गा.६०५ मल्लग-पात्र। गा. 902 | लाढय-निर्दोष आहार से जीवन महल्ल-बड़ा। गा. 1566 यापन करना। गा. 1779 महिलिया-महिला, स्त्री। गा. 1622 लाण-नाक का मैल। गा.८१६ मालग-घर का ऊपरी भाग, मंजिल। गा. 1270 लुक्क-मुण्डित। गा. 1237 मुदित-योनि-शुद्ध राजा-'मुदिओ | वइया-लघु गोकुल। गा.५१८ जो होति जोणिसुद्धो तु।' गा. 1999 वट्ट -जादू का खेल, इंद्रजाल। गा. 1723 मुहणंत-मुखवस्त्र। गा. 682 वडग-बड़ा। गा.१६१४ मुहमंगलि-चापलूसी। गा. 1356 वत्त-एक बार-वत्त णामं एक्कसि। गा. 676 मूइंग-चींटी। गा. 1263 वद्धणिया-झाडू गा.१५५१ मूडक-लकड़ी और मूंज का बना व ब्भ-जूता विशेष। जीचूपृ.१८ हुआ बैठने का साधन। जीचूवि पृ. 46 वरंडा-भीत, दीर्घ काष्ठ। जीचूवि पृ. 51 मूतिंगलिया-चींटी। गा. 21 वलवा-घोड़ी। गा.१३४७ मूरग-भञ्जक, तोड़ने वाला। गा.८ वाइंगण-बैंगण। गा. 1614 मोय-प्रस्रवण। गा. 1040 वाडि-बाड़, वृति। गा.१७२२ रुंचंत-रूई से कपास को अलग वालुंक-पक्वान्न विशेष। गा.१६१४ 1. एकस्मिन् हस्ते गोलकद्वयमेकस्मिन् गोलकत्रयं, दर्शयित्वा पुनरिन्द्रजालप्रयोगेन केचिद् व्यत्ययेन गोलकान्यत्र दर्शयन्तीन्द्रजालिकास्तद् वट्टखिड़मुच्यते (आवटि प.५३)।

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