Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 852
________________ 658 जीतकल्प सभाष्य * संसारखड्डपडितो, णाणादवलंबितुं समुत्तरति। (गाः 591) * होति विसोहण सोहण, जह तू वत्थस्स तोयमादीहिं। (गा.७०५) * अमयमिव मण्णमाणो। (गा.८४०) * चंदणमिव मण्णंतो। (गा.८४४) * जह तिक्खउदगवेगे, विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। (गा. 951) * जह विसमइयं तु मारगं होति। (गा. 1122) * जह अण्णत्थ पउत्ते, कूडे जो पडति सो बज्झे। (गा. 1123) * चित्तकम्मट्टित व्व। (गा..१३६८) * जह इंगाला जलिता, डहति जं तत्थ इंधणं पडितं / (गा. 1646) * धूमायंतं तहा छगणं। (गा. 1649) * जह वावि चित्तकम्मं, धूमेणोरत्तयं ण सोभति उ। (गा. 1650) * उदही विव अक्खोभा। (गा. 2169) * सूरो इव तेयसा जुत्ता। (गा. 2169) * सिप्पंणेउणियट्ठा, घाते वि सहति लोइगा गुरुणो। ते इहलोगफलाणं, महुरविवागेस उवमा तु॥ (गा. 2381) * कंडुव्व कच्छुल्लो। (गा. 2409) * कुवितपियबंधवो विय। (गा. 2456) * परोवदेसुज्जता जहा मंखा। (गा. 2471) * आयरिया जह दिया चेव। (गा. 2471) * जह उदगम्मि घते वा। (गा. 2528) * जह ताव छेज्ज णिहसे, अविकोवि सुवण्णगं मुणेतव्वं / (गा. 2600) * आमे घडे णिहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति। (गा. 2603)

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