Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 808
________________ 614 जीतकल्प सभाष्य अकेली रानी हाथी पर रह गई। राजा वृक्ष से नीचे उतरा और दुःखी मन से चंपा नगरी लौट आया। इधर हाथी रानी को निर्जन अटवी में ले गया। वहां हाथी को प्यास का अनुभव हुआ। उसने एक बड़ा तालाब देखा और उसमें उतरकर क्रीड़ा करने लगा। रानी भी धीरे-धीरे नीचे उतरी, तालाब से बाहर आई। वह अपने नगर की दिशा नहीं जानती थी। 'अहो! कर्मों की गति कितनी विचित्र है। मैं अकल्पित विपत्ति में फंस गई हूं। अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? मेरी क्या गति होगी?' ऐसा सोचते-सोचते वह रोने लगी। क्षण भर बाद उसने धैर्य धारण करके सोचा-'हिंसक एवं जंगली पशुओं से युक्त इस भीषण वन में कुछ भी हो सकता है अतः हर क्षण अप्रमत्त रहना चाहिए।' उसने अर्हत् आदि चार शरणों को स्वीकार किया। अनाचरणीय की आलोचना की और सकल जीव-राशि के साथ मानसिक रूप से क्षमायाचना की। उसने सागारिक भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। वह नमस्कार महामंत्र का जाप करती हुई एक दिशा में प्रस्थित हुई। बहुत दूर जाने पर उसे एक तापस दिखाई पड़ा। तापस के पास जाकर उसने अभिवादन किया। तापस ने पूछा- 'मां! आप : कौन है? यहां निर्जन वन में कहां से आईं हैं?' वह बोली—'मैं चेटक की पुत्री हूं। राजा दधिवाहन की पत्नी हूं। हाथी मुझे यहां तक ले आया।' वह तापस चेटक से परिचित था। उसने रानी को आश्वासन दिया कि तुम डरो मत। तापस ने भोजन के लिए उसे फल दिए और अटवी के पार पहुंचा दिया। तापस ने कहा'यहां से आगे हल के द्वारा जोती हुई भूमि है अतः मैं आगे नहीं जा सकता। आगे दन्तपुर नगर है। वहां का राजा दन्तवक्र है।' वह अटवी से बाहर निकली और दंतपुर नगर में आर्याओं के पास प्रव्रजित हो गयी। पूछने पर भी उसने अपने गर्भ के बारे में कुछ नहीं बताया। कुछ समय पश्चात् महत्तरिका को गर्भ के बारे में ज्ञात हुआ। प्रसव होने पर उसने नाममुद्रिका के साथ बालक को कंबलरत्न से आवेष्टित कर श्मशान में छोड़ दिया। श्मशान में रहने वाले चांडाल ने उस बालक को उठा लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। उसका नाम अवकीर्णक रख दिया। आर्या पद्मावती ने उस चांडाल के साथ मैत्री स्थापित कर ली। अन्य साध्वियों ने उससे पछा'तुम्हारा गर्भ कहां है?' उसने कहा—'मृतक पुत्र पैदा हुआ था अतः उसे श्मशान में डाल दिया।' वह बालक बढ़ने लगा और बच्चों के साथ खेलने लगा। वह बच्चों से कहता-'मैं सब का राजा हूं अतः तुम सब मुझे 'कर' दो। एक बार उसे सूखी खाज हो गई। वह बालकों से कहता कि मेरे खाज करो। हाथ से खाज करने के कारण बच्चों ने उसका नाम करकंडु रख दिया। बालक करकंडु भी उस साध्वी के प्रति अनुरक्त हो गया। वह साध्वी भी भिक्षा में जो मोदक आदि अच्छी चीज मिलती, बालक को देती थी। बड़ा होने पर वह श्मशान की रक्षा करने लगा। 57. खुड्डगकुमार को वैराग्य साकेत नगर में पुंडरीक राजा राज्य करता था। उसके युवराज का नाम कंडरीक था। युवराज की , १.जीभा 2364, उशांटी प. 300, 301 //

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