Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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________________ परिशिष्ट-४. परिभाषाएं अंगार-• णिज्जाला हिलिहलया, इंगाला ते भवे मुणेतव्वा। (गा. 1531) अकृतयोगी-• अकडजोगिणो अपरिकम्मवियसरीरा। (जीचू पृ. 24) अतिपरिणामक-• जो दव्वखेत्तकतकालभावओ जं जहा जिणक्खातं / __ तल्लेसुस्सुत्तमती, अतिपरिणामं वियाणाहि॥ (गा. 1948) * अइपरिणामगा जे अववायमेवायरन्ति तम्मि चेव सज्जन्ति, न उस्सग्गे। (जीचू पृ. 23) अधःकर्म• तेसिं गुरूण उदएण, अप्पगं दुग्गतीऍ पवडतं। ण चएति विधारेउं, अहकम्मं भण्णते तम्हा।। (गा. 1114) * संजमठाणाणं कंडगाण लेस्साठितीविसेसाणं / भावं अहे करेती, तम्हा तु भाव अहेकम्मं॥ (गा. 1106). . अर्धापक्रान्ति-तत्रार्धस्यासमप्रविभागरूपस्य एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्य-अपक्रमणमवस्थानम्। शेषस्य बुद्ध्यादिपदसङ्घातरूपस्यैकदेशस्योर्ध्वगमनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषयार्धापक्रान्तिरुच्यते। (जीचूवि पृ. 53) अध्यवतर-अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उ। (गा. 1284) अध्वानानीत-अद्धोयणा परेणं, आणित णीतं व असण-पाणादी। एयऽद्धाणातीतं......। (गा. 964) अननुगामी अवधि–ण वि जाणति अण्णत्था, संखमसंखे उ जोयणे जो उ। ओही तु अणणुगामी, समासतो एसमक्खातो॥ , (गा. 49) अननुतापी-बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पती पच्छा। सो होति अणणुतावी....। (गा. 598) अनवस्थाप्य-तद्दोसोवरतस्स उ, महव्वयारुवण कीरती तस्स। अणवट्ठप्पो एसो....॥ (गा.७२८) * जम्मि पडिसेविए उवट्ठावणा अजोगो, कंचि कालं न वएसु ठाविज्जइ ; जाव पइविसिट्ठतवो न चिण्णो, पच्छा य चिण्णतवो तद्दोसोवरओ वएसु ठाविज्जइ ; एयं अणवटुप्पारिहं / (जीचू पृ.६) अनाभोग- अण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। इरियादिसु भूतत्थे, अवट्टतो एतदण्णाणं॥ (गा. 136) अनिश्रितवचन-णिस्सितों कोहादीहिं, रागद्दोसेहि वावि जं वयति। होति अणिस्सितवयणो... (गा. 177) अनुवासकल्प-• वासावासपमाणं, आयारउदुप्पमाणितं कप्पं / एतं अणुम्मुयंतो, जाणसु अणुवासकप्पो तु॥ (गा. 2078) अन्यतरक-अन्नतरगो नाम जो एक्कं सक्केइ काउं, तवं वेयावच्चं वा, न पुण दो वि सक्केइ। (जीचू पृ. 23) अपरिणत-जीवत्तम्मि अविगते, अपरिणतं। (गा. 1588) अपरिणामक-• अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहन्ति आयरन्ति य; अववायं पुण न सद्दहन्ति नायरन्ति य। (जीचू पृ. 23)

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