Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 811
________________ कथाएं : परि-२ 617 59. सरसों की भाजी एक साधु ने सरसों की सुसंभृत सब्जी प्राप्त की। उसको उस सब्जी में अत्यन्त आसक्ति थी। भिक्षा के बाद उसने आचार्य को वह सब्जी निवेदित की। आचार्य को निमंत्रण देने पर उन्होंने वह सारी सब्जी खा ली। यह देखकर मुनि को तीव्र द्वेष उत्पन्न हो गया। ज्ञात होने पर आचार्य ने क्षमायाचना की, मिथ्या दुष्कृत किया फिर भी उसका रोष शान्त नहीं हुआ। मुनि ने आचार्य से कहा-“मैं तुम्हारे दांतों को तोडूंगा।" गुरु ने सोचा कहीं असमाधिमरण से मेरी मौत न हो अतः अन्य योग्य शिष्य को आचार्य रूप में स्थापित करके अन्य गण में जाकर वहां भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। आचार्य ने समाधिमरण प्राप्त कर लिया। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी मुनियों से गुरु के बारे में पूछा। उन लोगों ने इस संदर्भ में कुछ नहीं बताया। उसने दूसरे स्थान पर जाकर आचार्य के बारे में जानकारी प्राप्त की। साधुओं ने कहा "आचार्य समाधिमरण में कालगत हो गए हैं।" शिष्य ने पूछा "आचार्य के शरीर का कहां परिष्ठापन किया गया है?" आचार्य ने प्राणत्याग से पूर्व ही साधुओं से कह दिया था कि मेरे शरीर को जहां परिष्ठापित किया जाए, उस बारे में उस शिष्य को कुछ मत बताना। शिष्यों ने उसे कुछ नहीं बताया। अन्य स्रोत से उसने आचार्य के परिष्ठापित शरीर के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली। वह उस स्थान पर पहुंचा, जहां आचार्य का शरीर परिष्ठापित किया गया था। उसने आचार्य के शरीर को बाहर निकाला। गोल पत्थर लेकर उसने आचार्य के दांतों को तोड़ते हुए कहा "तुमने इन्हीं दांतों से सरसों की भाजी खाई थी।" इस प्रकार उसने अपने क्रोध को उपशांत किया। 60. मुखवस्त्रिका एक साधु ने अत्यन्त उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त की। उसने जब गुरु को मुखवस्त्रिका दिखाई तो वह मुखवस्त्रिका गुरु ने ले ली। उसके मन में गुरु के प्रति तीव्र प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। ज्ञात होने पर गुरु ने मुखवस्त्रिका उसे पुनः लौटाते हुए क्षमायाचना की। उसने मुखवस्त्रिका वापिस नहीं ली। उसके प्रद्वेष को जानकर गुरु ने अपने गण में ही भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। रात्रि में एकान्त पाकर शिष्य ने गुरु के पास जाकर उनका गला दबा दिया। संमूढ होकर गुरु ने भी उस दुष्ट शिष्य का गला दबा दिया। गुरु और शिष्य दोनों कालगत हो गए। 61. उलूकाक्ष ___ एक साधु सूर्यास्त के समय भी कपड़े सी रहा था। आचार्य ने उससे कहा-"अरे उलूकाक्ष! तूं सूर्यास्त होने पर भी क्यों सी रहा है?" वह रुष्ट होकर बोला "तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा है अत: मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।" आचार्य ने क्षमायाचना की लेकिन उसका कोप शान्त नहीं हुआ। यह जानकर १.जीभा 2483, 2484, बृभा 4988, 4989 टी पृ. 1333 / २.जीभा 2485, 2486, बृभा 4990 टी पृ. 1333,1334 /

Loading...

Page Navigation
1 ... 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900