Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 799
________________ कथाएं : परि-२ 605 दीर्घकाल तक शील का पालन करके अब विषयों में रमण मत करो। क्या समुद्र को बाहों से तैरने वाला व्यक्ति गोपद जितने स्थान में डूब सकता है?' आषाढ़भूति ने कहा—'आपका कथन सत्य है लेकिन प्रतिकूल कर्मों के उदय से, प्रतिपक्ष भावना रूप कवच के दुर्बल होने पर, कामदेव का आघात होने से तथा मृगनयनी रमणी की कटाक्ष से मेरा हृदय पूर्णरूपेण जर्जर हो गया है।' इस प्रकार कहकर उसने गुरु-चरणों में रजोहरण छोड़ दिया। 'मैं ऐसे निष्कारण उपकारी गुरु को पीठ कैसे दिखाऊं' यह सोचकर वह पैरों को पीछे करता रहा। 'पुनः किस प्रकार गुरु के चरण-कमलों को प्राप्त करूंगा' इस प्रकार विविध विकल्पों के साथ वसति से निकलकर वह विश्वकर्मा के भवन में आ गया। नटकन्याओं ने आदरपूर्वक मुनि के शरीर को अनिमिष दृष्टि से देखा। उन्होंने अनुभव किया कि मुनि का रूप आश्चर्यजनक है। शरद चन्द्रमा के समान मनोहर इसका मुख मण्डल है। कमलदल की भांति दोनों आंखें हैं, नुकीली नाक तथा कुंद के फूलों की भांति श्वेत और स्निग्ध दंत-पंक्ति है। कपाट की भांति विशाल और मांसल वक्षस्थल है। सिंह की भांति कटिप्रदेश तथा कर्म की भांति चरणयगल हैं। विश्वकर्मा ने आदरसहित मुनि को कहा—'अहोभाग! ये मेरी दोनों कन्याएं आपको समर्पित हैं। आप इन्हें स्वीकार करें।' नट ने दोनों कन्याओं के साथ आषाढभति का विवाह कर दिया। विश्वकर्मा ने अपनी दोनों कन्याओं को कहा—'जो व्यक्ति मन की ऐसी स्थिति को प्राप्त करके भी गुरु-चरणों की स्मृति करता है. वह नियम से उत्तम प्रकति वाला होता है अत: इसके चित्त को आकष्ट करने के लिए तम्हें स मद्यपान से रहित रहना है अन्यथा यह तुमसे विरक्त हो जाएगा।' आषाढ़भूति सकल कलाओं के ज्ञान में कुशल तथा नाना प्रकार के विज्ञानातिशय से युक्त था अतः सभी नटों में अग्रणी हो गया। वह सर्वत्र प्रभूत धन तथा वस्त्र-आभरण आदि प्राप्त करता था। एक बार राजा ने नटों को बुलाया और आदेश दिया कि आज बिना महिलाओं का नाटक करना है। सभी नट अपनी युवतियों को घर पर छोड़कर राजकुल में गए। आषाढ़भूति की पत्नियों ने सोचा कि हमारा पति राजकुल में गया है अतः सारी रात वहीं बीत जाएगी। आज हम यथेच्छ मदिरा-पान करेंगी। उन्होंने वैसा ही किया तथा उन्मत्तता के कारण वस्त्र रहित होकर घर की दूसरी मंजिल में सो गईं। इधर राजकुल में किसी दूसरे राष्ट्र का दूत आ गया अतः राजा का चित्त विक्षिप्त हो गया। यह नाटक का समय नहीं है', यह सोचकर राजा ने सारे नटों को वापस लौटा दिया। जब आषाढ़भूति ने दूसरी 'मंजिल में पहुंचकर अपनी दोनों पत्नियों को विगतवस्त्रा एवं बीभत्स रूप में देखा तो उसने चिन्तन किया'अहो! मेरी कैसी मूढ़ता है? विवेक विकलता है, जो मैंने इस प्रकार की अशुचियुक्त तथा अधोगति की कारणभूत स्त्रियों के लिए मुक्तिपद के साधन संयम को छोड़ दिया। अभी भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं गुरु-चरणों में जाकर पुन: चारित्र ग्रहण करूंगा तथा पाप-पंक का प्रक्षालन करूंगा।' यह सोचकर आषाढ़भूति अपने घर से निकलने लगा। विश्वकर्मा ने उसको देख लिया। आषाढ़भूति के चेहरे के हाव-भाव से उसने जान लिया कि यह संसार से विरक्त हो गया। उसने अपनी दोनों पुत्रियों को उठाकर उपालम्भ देते हुए

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