Book Title: Jeetkalp Sabhashya
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 804
________________ 610 जीतकल्प सभाष्य वेला में कुलपति वहां पहुंचा। श्रावकों ने उसका पाद-प्रक्षालन करना प्रारंभ किया लेकिन पाद-लेप दूर होने के भय से उसने पैरों को आगे नहीं किया। तब श्रावकों ने कहा—'बिना पाद-प्रक्षालन किए आपको भोजन करवाने से हमको अविनय दोष लगेगा। विनयपूर्वक दिया गया दान अधिक फलदायी होता है।' श्रावकों ने बलपूर्वक पैर आगे करके उनको प्रक्षालित कर दिया। भोजन के बाद कुलपति अपने स्थान पर जाने के लिए तैयार हुआ। श्रावक भी सब लोगों को बुलाकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुलपति ने सपरिवार कृष्णा नदी को पार करने हेतु नदी में पैर रखा लेकिन पादलेप के अभाव में वह डूबने लगा। लोगों में उसकी निंदा होने लगी। __इसी बीच कुलपति को बोध देने के लिए आचार्य समित वहां आए। उन्होंने सब लोगों के सामने नदी से कहा—'हे कृष्णे! हम उस पार जाना चाहते हैं।' तब कृष्णा नदी के दोनों किनारे आपस में मिल गए। नदी की चौड़ाई उनके पैरों जितनी हो गई। आचार्य कदम रखकर नदी के उस पार चले गए। पीछे से नदी चौड़ी हो गई पुनः उसी प्रकार वे वापस आ गए। यह देखकर सपरिवार कुलपति एवं सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। कुलपति ने अपने पांच सौ तापसों के साथ आर्य समित के पास दीक्षा ग्रहण कर ली, आगे जाकर वह ब्रह्मशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुई। 51. द्रव्य ग्रहणैषणा : वानरयूथ-दृष्टान्त विशालशृंग नामक पर्वत था। उसके एक वनखण्ड में वानरों का समूह रमण करता था। उसी पर्वत पर दूसरा वनखण्ड भी सब प्रकार के पुष्प-फल आदि से समृद्ध था। उसके मध्यभाग में स्थित हृद में एक शिशुमार रहता था। जो कोई मृग आदि पशु पानी पीने हेतु हृद में प्रवेश करते, वह उन सबको खींचकर खा जाता था। एक बार पुष्प और फलों से रहित वनखण्ड को देखकर वानर यूथपति ने जीवन निर्वाह योग्य अन्य वनखण्ड की खोज हेतु वानरयुगल को भेजा। खोज करके वानरयुगल ने यूथाधिपति को निवेदन किया 'अमुक प्रदेश में एक वनखण्ड है, जो सब ऋतुओं में पुष्प-फल आदि से समृद्ध तथा हमारे जीवन-यापन के योग्य है।' यूथाधिपति अपने यूथ के साथ वहां गया। वह समस्त वनखण्ड को ध्यान से देखने लगा। यूथपति ने जल से परिपूर्ण हृद को देखा। हृद में प्रवेश करते हुए श्वापदों के पदचिह्न थे लेकिन वहां से वापस निकलते हुए श्वापदों के पदचिह्न नहीं थे। तब यूथ को बुलाकर वानर-यूथपति ने कहा'कोई भी इस हद में प्रवेश करके पानी न पीए। तट पर स्थित नाले से ही पानी पीए, यह हृद उपद्रव रहित नहीं है।' यहां मृग आदि के प्रवेश करते हुए के पदचिह्न दिखाई देते हैं लेकिन निकलते हुए के दिखाई नहीं देते। जिन वानरों ने उसके वचन का पालन किया, वे सुखपूर्वक विहार करते रहे। जिन्होंने यूथपति के वचनों का पालन नहीं किया, वे समाप्त हो गए। 1. जीभा 1460-66, पिनि 231/2-4, मटी प. 144, निभा 4470-72, चू पृ 425 / 2. जीभा 1474, पिनि 236/1-3, मटी प. 146 /

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