________________ अनुवाद-जी-८०-८४ 495 कोई दूसरा अतिचार सेवन किया है तो उस अतिचार का प्रायश्चित्त उसी में समाहित हो जाता है, वह प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। 2280. वैयावृत्त्य करता हुआ यदि किसी अन्य अतिचार का सेवन करता है तो वह जितना प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ हो, उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2281. वैयावृत्त्य करने वाले का प्रायश्चित्त कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाता है, जिसको वह वैयावृत्त्य के बाद में पूरा कर सके। यह तपोर्ह प्रायश्चित्त का वर्णन किया, अब मैं छेदाह प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 80. तप गर्वित', तप करने में असमर्थ, तप में श्रद्धा नहीं करने वाला, तपस्या करने पर भी अदम्य स्वभाव वाला, अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी-इन सबको तप प्रायश्चित्त की प्राप्ति होने पर भी छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। 81. पिण्डविशोधि आदि उत्तरगुणों को अधिक भ्रष्ट करने वाला, बार-बार छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करने वाला, पार्श्वस्थ', कुशील आदि (साधुओं की सेवा में तप्ति का अनुभव करने वाला) अथवा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को तप्त करने वाला (छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है)। 82. उत्कृष्ट तपोभूमि अर्थात् छहमास तप के प्रायश्चित्त को अतिक्रान्त करने वाले साधु का जितने दिन का पर्याय है, उसमें पणग आदि का छेद' प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2282, 2283. मेरा शरीर तपबलिक है, मैं तप करने में समर्थ हूं, इस प्रकार तप का गर्व करने वाला तथा तप करने में असमर्थ ग्लान या बाल आदि जो तप के प्रति श्रद्धा नहीं करता अथवा तप से भी जिसका १.छह मास का तप करने वाला अथवा अन्य विकृष्ट तप करने वाला साधु यह सोचे कि इस तप प्रायश्चित्त से मेरा क्या होगा, इस प्रकार गर्व करने वाला तपगर्वित कहलाता है। २.जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यक् रूप से आयुक्त नहीं है तथा ज्ञान आदि के पार्श्व-तट पर स्थित है, वह पार्श्वस्थ है। भाष्यकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है कि जो बंध के हेतुभूत प्रमाद आदि पाशों में स्थित है, वह पार्श्वस्थ है। आचार्य महाप्रज्ञ ने पार्श्वस्थ शब्द की सुंदर परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार 'पासत्थ' का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ ही होना चाहिए। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में स्थित पार्श्वस्थ / पार्श्वनाथ की परम्परा के जो साधु श्रमण महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग हुआ। भगवान् पार्श्व का आचार मृदु था अतः जब तक शक्तिशाली आचार्य थे, तब तक दोनों परम्पराओं में सामञ्जस्य रहा। जब शक्तिसम्पन्न आचार्य नहीं रहे, तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना बढ़ने लगी अतः 'पार्श्वस्थ' शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में रूढ़ हो गया। 1. व्यभा 854 ; दंसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति। एतेण उ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ। 2. व्यभा 855 पासो त्ति बंधणं ति य, एगटुंबंधहेतवो पासा।पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ। 3. देखें सू 1/1/32 का टिप्पण। ३.इस गाथा का भावार्थ यह है कि महावीर के तीर्थ में उत्कृष्ट तपस्या छहमास की विहित है। जो साधु छह मास के तप प्रायश्चित्त से अधिक अतिचार का सेवन कर लेता है तो उसे फिर तप प्रायश्चित्त न देकर अतिचार-विशुद्धि , हेतु छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है।