________________ 576 जीतकल्प सभाष्य चेटक के साथ नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी-ये अठारह गणराजा पराजित हुए। युद्ध में चेटक के रथिक ने राजा कूणिक के वध हेतु निरन्तर बाणों की वर्षा की लेकिन वज्रमय कवच के कारण वे बाण व्यर्थ हो गए। तब उसने वृक्ष पर चढ़कर क्रोधपूर्वक क्षुरप्र से चेटक के शिर का छेदन कर दिया। 6. दुर्भिक्ष : कौशलक श्रावक एक बार दुर्भिक्ष के समय कौशल देश के श्रावक ने अन्यत्र विहार करते हुए पांच सौ साधुओं को यह निवेदन करके रोक लिया कि मैं आप लोगों को भक्त-पान दूंगा। बाद में लाभ विशेष के लोभ से उसने अपने धान्य को बेच दिया। दुर्भिक्ष के समय भिक्षा न मिलने के कारण पांच सौ साधुओं में कुछ श्वास निरोध आदि करके, कुछ गृध्रपृष्ठ से तथा कुछ फांसी के द्वारा बाल-मरण को प्राप्त हो गए। 7. आचार्य स्कंदक श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी तथा युवराज स्कन्दक था। राजा की पुत्री का नाम पुरंदरयशा था। उसका विवाह उत्तरापथ में कुंभकारकट नगर के दंडकी राजा के साथ किया गया। दंडकी राजा के पुरोहित का नाम पालक था। एक बार श्रावस्ती नगरी में तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी पधारे। उनके समवसरण में अनेक व्यक्ति उपस्थित हुए। स्कन्दक भी देशना सनने गया। धर्मवार्ता सनकर उसने श्रावक-व्रत स्वीकार कर लिए। एक बार पालक पुरोहित दूत के रूप में श्रावस्ती नगरी आया। सभा के बीच में ही वह जैन साधुओं की निंदा करने लगा। उस समय कुमार स्कन्दक ने अपनी तेजस्वी वाणी से उसे निरुत्तरित कर राज्य से बाहर निकाल दिया। इस घटना से उसके मन में स्कन्दक के प्रति रोष उमड़ पड़ा। उसी दिन से पालक गुप्तचरों के माध्यम से स्कन्दक का छिद्रान्वेषण करने लगा। कालान्तर में कुमार स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनिसुव्रत तीर्थंकर के पास दीक्षित हुआ। ज्ञानाभ्यास से उसने बाहुश्रुत्य को प्राप्त कर लिया। उसकी योग्यता का मूल्यांकन करके कुछ समय बाद तीर्थंकर मुनिसुव्रत ने उसे पांच सौ शिष्यों का प्रमुख बना दिया। एक बार स्कन्दक ने भगवान् को निवेदन किया कि मैं अपनी संसारपक्षीय बहिन पुरंदरयशा को प्रतिबोध देने जाना चाहता हूं। यह सुनकर तीर्थंकर मुनिसुव्रत ने कहा-'वत्स! वहां मारणान्तिक कष्ट आ सकता है।' स्कन्दक ने पूछा-'उपसर्ग में हम सब आराधक होंगे या विराधक?' भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया-'तुमको छोड़कर अन्य सभी साधु आराधक होंगे।' उसने कहा-'अच्छा है, इतने मुनि यदि आराधक होते हैं तो शुभ है। भगवान् के मना करने पर भी आचार्य स्कन्दक अपने पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकारकट नगर में पहुंचे। सभी मुनि नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे। 1. जीभा 479-81, भ 7/173-210, भा. 2 पृ. 385, 386, निर. 1, व्यभा 4363-65 टी प.७३। 2. जीभा 503-06, व्यभा 4385 / 3. यह कथा जीतकल्पभाष्य में दो स्थानों पर आई है। देखें जीभा 2499, 2500 /