________________ अनुवाद-जी-१ 337 649. यदि प्रतिसेवक को छेद' प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो (सांकेतिक रूप में) कहे कि भाजन का छेदन कर दो। यदि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि आचार्य के मूल-पास जाकर प्रायश्चित्त लो। यदि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि गच्छ में अव्यापृत होकर रहो। यदि पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त हो तो कहे कि अद्वितीय-एकाकी होकर विचरण करो। 650. पांच दिन से लेकर छह माह आदि का छेद आने पर भाजन के छेद का माप कहा जाता है। साधु के मूल-पास में जाने का कहने पर मूल प्रायश्चित्त तथा पहले का सारा छोड़ने का तात्पर्य हैअनवस्थाप्य। पाराञ्चित प्रायश्चित्त में पांच आभवद् व्यवहार से सम्बन्ध नहीं रहता। 651. लिंग आदि का योग दो प्रकार का जानना चाहिए-जघन्य उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट जघन्य। इसमें साधु पाराञ्चित प्रायश्चित्त अर्थात् अद्वितीय-एकाकी होकर विचरण करे। 652. द्वितीय कार्य अर्थात् कल्प प्रतिसेवना से सम्बन्धित चौबीस प्रकार की आलोचना सुनकर आलोचनाचार्य सांकेतिक शब्दों में कहलवाते हैं कि तुमको नमस्कारसहिता-नवकारसी में आयुक्त होना चाहिए। 353. इस प्रकार आचार्य के वचनों को धारण करके वहां जाकर वह मुनि आलोचना करने के इच्छुक मुनि को यथोपदिष्ट रूप में प्रायश्चित्त देता है, धीर पुरुषों ने इसे आज्ञाव्यवहार कहा है। 654. आज्ञाव्यवहार का यह यथोपदिष्ट यथाक्रम वर्णन किया गया, अब मैं धारणा व्यवहार के बारे में कहूंगा, वत्स! उसे तुम सुनो। 655. धारणा व्यवहार के ये एकार्थक हैं-१. उद्धारणा 2. विधारणा 3. संधारणा 4. संप्रधारणा। 656-58. प्रबलता से अथवा अर्थ के निकट पहुंचकर छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को धारण करना उद्धारणा है। विविध प्रकार से अर्थपदों को धारण करना विधारणा, सं उपसर्ग एकीभाव अर्थ में तथा धृ धातु 1. महावीर के तीर्थ में अतिचार-विशुद्धि हेतु उत्कृष्ट छह मास के तप का प्रायश्चित्त मिलता है। छह मास के तप से भी शुद्धि संभव न हो तो छेद आदि प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2. व्यवहारभाष्य में पणग से लेकर छह माह तक के छेद का प्रायश्चित्त आने पर उसके गूढार्थ का विस्तार से वर्णन किया है। पांच दिन-रात का छेद आने पर आचार्य संदेश भेजे कि अंगुल के छठे भाग जितने भाजन का छेद करो। दस दिन-रात जितना छेद आने पर संदेश भेजे कि अंगुल के तीसरे भाग जितने भाजन का छेद करो। पन्द्रह दिन-रात जितना छेद आने पर कहे कि अंगुल के आधे भाग जितने भाजन का छेद करो। बीस दिन. रात जितना छेद आने पर कहे कि तीन भाग कम अंगुल जितने भाजन का छेद करो। पच्चीस दिन-रात का छेद आने पर कहे कि छह भाग न्यून अंगुल जितने भाजन का छेद करो। एक मास जितना छेद आने पर कहे कि पूर्ण अंगुल * जितने भाजन का छेद करो, दो मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि दो अंगुल जितने भाजन का छेद करो, चार मास जितना छेद आने पर आचार्य कहे कि चार अंगुल जितने भाजन का छेद करो तथा छह मास जितने छेद का प्रायश्चित्त आने पर कहे कि छह अंगल जितने भाजन का छेद करो। १.व्यभा 4498,4499 मटी. प.८८। 3. छेदसूत्र के अर्थ को धारण करके जिस व्यवहार का प्रयोग किया जाता है, वह धारणा व्यवहार है।' ११:व्यभा 4503 मटी. प.८८; छेदश्रुतार्थावधारणलक्षणया यः सम्यग् ज्ञात्वा व्यवहारः प्रयुज्यते, तं धारणाव्यवहार धीरपुरुषा ब्रुवते।