________________ 426 जीतकल्प सभाष्य 1506. अगर्हित म्रक्षित दो प्रकार का होता है-आर्द्र ओदन, गोरस-घृत, तैल आदि से संसक्त तथा असंसक्त। 1507. अचित्त म्रक्षित के चारों भंगों में आहार ग्रहण की भजना होती है। (देखें गा. 1501, 1502 का .. अनुवाद) अगर्हित में आहार ग्रहण कल्प्य है, गर्हित में प्रतिषिद्ध है। 1508. जीवों से संसक्त, अगर्हित गोरसद्रव तथा मधु, घृत, तैल, गुड़ आदि से खरंटित हाथ या पात्र से दी जाने वाली भिक्षा भी वर्ण्य है, इसका कारण है कि मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा न हो। 1509. गोरस अथवा घृत, तैल, गुड़ और चींटी आदि जीवों से संसक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। 1510. मद्य, मांस, वसा आदि से मेक्षित अर्थात् बहुत पुरानी, बासी आदि वस्तु का भी लौकिक गर्हित में / ग्रहण हो जाता है। 1511. दोनों ही गर्हित में मूत्र और उच्चार आदि से म्रक्षित हाथ से भिक्षा का ग्रहण अकल्प्य है। म्रक्षित का वर्णन पूर्ण हुआ, अब मैं निक्षिप्त दोष के बारे में कहूंगा। 1512. निक्षिप्त और स्थापित -ये दोनों एकार्थक हैं। अब स्थान (स्थापित) की व्याख्या का प्रसंग है। स्थान तीन प्रकार का होता है -सचित्त, मिश्र और अचित्त / 1513-16. यहां सचित्त आदि के साथ अनेकविध चतुर्भगियां होती हैं - * सचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * मिश्र पर सचित्त निक्षिप्त। * सचित्त पर मिश्र निक्षिप्त। * मिश्र पर मिश्र निक्षिप्त आदि। सचित्त और मिश्र की एक ही चतुर्भगी होती है। सचित्त-अचित्त की चतुर्भगी इस प्रकार है• सचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * अचित्त पर सचित्त निक्षिप्त। * सचित्त पर अचित्त निक्षिप्त। * अचित्त पर अचित्त निक्षिप्त। मिश्र और अचित्त की तृतीय चतुर्भंगी इस प्रकार है• मिश्र पर मिश्र निक्षिप्त। 1. वृत्तिकार का कथन है कि यह निर्देश जिनकल्पिक की दृष्टि से है / स्थविरकल्पी मुनि यथाविधि घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथों से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। १.पिनिमटी प.१५०; एतच्चोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकाद्यधिकृत्योक्तमवसेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृताद्यपि, गुडादिम्रक्षितमशोकवाद्यपि च गहन्ति।