________________ 276 जीतकल्प सभाष्य क्षेत्रवृद्धि में कालवृद्धि की भजना है। द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि में भजना होती है। 59. काल सूक्ष्म होता है लेकिन क्षेत्र उससे भी सूक्ष्मतर होता है। अंगुलश्रेणिमात्र आकाश-प्रदेश का परिमाण असंख्येय अवसर्पिणी की समय-राशि जितना होता है। 60. त्रिसमयआहारक आदि आठ गाथाओं (गाथा 52-59) के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करना चाहिए, जैसा आवश्यक (विशेषावश्यक भाष्य) में कहा गया है। 61. इस प्रकार वर्धमान अवधिज्ञान संक्षिप्त में कहा गया। हीयमान अवधिज्ञान का स्वरूप इस प्रकार है। 62. जो अप्रशस्त अध्यवसायों और अशुद्ध चारित्र में वर्तमान है तथा जो संक्लिश्यमान चित्त से युक्त है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से घटता जाता है। 63, 64. जो अवधिज्ञान अंगुल के संख्येय भाग, असंख्येय भाग, अंगुल पृथक्त्व, हस्त, धनु, योजन, सौ योजन, सहस्र योजन, संख्येय योजन, असंख्येय योजन यावत् सर्वलोक को देखकर प्रतिपतित हो जाता है, वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। 1. क्षेत्र अत्यन्त सूक्ष्म है। उसकी अपेक्षा काल स्थूल है। यदि अवधिज्ञान की क्षेत्रवृद्धि होती है तो कालवृद्धि भी होती है। द्रव्य क्षेत्र से भी अधिक सूक्ष्म होता है क्योंकि एक आकाश प्रदेश में भी अनंत स्कंधों का अवगाहन हो सकता है। पर्याय द्रव्य से भी सूक्ष्म है क्योंकि एक ही द्रव्य में अनंत पर्याय होती हैं। द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्याय-वृद्धि निश्चित है लेकिन क्षेत्र और काल की वृद्धि में भजना है। अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य की संख्येय और असंख्येय पर्यायों को जानता है। पर्यायवृद्धि होने पर द्रव्यवृद्धि की भजना है-वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती। अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र और काल की वृद्धि चार प्रकार की होती हैं। द्रव्यों की वृद्धि-हानि दो प्रकार की तथा पर्यायों में वृद्धि-हानि छह प्रकार की होती है। विस्तार हेतु देखें विभा 729-33, श्रीभिक्षु भा. 1 पृ. 52, 53 1. नंदीमटी प.९५। 2. धवला में हीयमान अवधि को कृष्ण पक्ष के चन्द्रमण्डल से उपमित किया है। इसका अन्तर्भाव देशावधि में होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जो उत्पत्तिकाल के साथ ही बुझती हुई अग्निज्वाला के समान क्षीण होने लगता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। 1. षट्ध पु. 13, 5/5/56, पृ. 293 / 2. नंदीहाटी पृ.२३; उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायधूमध्वजार्चिव्रतिवदित्यर्थः / 3. नंदी चूर्णि के अनुसार अप्रशस्त लेश्या से रंजित चित्त तथा अनेक अशुभ विषयों का चिन्तन करने वाला संक्लिष्ट चित्त कहलाता है। भाष्यकार ने वर्धमान अवधि की भांति हीयमान अवधि के ह्रास के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। १.नंदीचू प.१९; अप्पसत्थलेस्सोवरंजितं चित्तं अणेगासुभत्थचिंतणपरं चित्तं संकिलिटुंभण्णति। 4. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद क्षयोपशम के अनुरूप कुछ समय अवस्थित रहकर बाद में प्रदीप की भांति पूर्णतः बुझ जाता है, वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिपाती अवधि को जात्यमणि के दृष्टान्त से समझाया है, जिसकी प्रभा किसी कारण से नष्ट हो गई है। नंदीसूत्र में प्रतिपाती अवधि का विषय विस्तार से वर्णित है। १.नंदीमटी प.८२; यत्पुनः प्रदीपइव निर्मलमेककालमपगच्छति तत्प्रतिपाति। २.नंदीहाटी पृ. 23; कथञ्चिदापादितजात्यमणिप्रभाजालवत्। ३.नंदी 20 //