________________
पर्या
पत्ति जब शरीर पर्यास पूर्ण हो जाती है तब निवृत्ति पर्याप्त कहते हैं। १२१ का.अ./१३६ गोमयजन्ति पजाब समणोदि तावित अपुण्य मन पुणो भन्दे पुण्यो | १३६॥ जीवपर्यास को ग्रहण करते हुए जब तक मन पर्याप्तिको समाप्त नही कर लेता तबतक निवृत्यपर्याप्त कहा जाता है। और जब मन पर्याप्तिको पूर्ण कर लेता है तब (निवृत्ति) पर्याप्त कहा जाता है।
६. पर्याप्त व अपर्याप्त निर्वृतिके लक्षण
घ १४ / ५, ६,२८७/३५२/८ जहण्णाउ अबधो जहण्णियापज्जन्तणिव्वत्तीणाम भवस्स पढमसमयप्पहुडि जान जहणाउवबधस्स चरिमसमयो त्ति ताव एसा जहणिया णिव्त्रत्ति त्ति भणिद होदि । ••जहण्णधोतो संतं कुदो जीवणियाणा विसेसादो (१२५३/६
८. १४/५६६४६/५०४/२ घात खुदा भवग्गणस्वरितत्तो स अद्धाणं गतूण सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्ताणं बघेण जहणणं जं णिसेया भवग्गणं तस्स जहणिया अपणसमिति सिन्धा । १४/५.६.६६२/१६/१० सरीरजती पतिविसी सरीरनिव्यतिटूट्ठाण णाम । १. जघन्य आयुबन्धकी जघन्य पर्याप्तनिवृत्ति सज्ञा है । भवके प्रथम समयसे लेकर जघन्य आयुबन्धके अन्तिम समय तक यह जघन्य निवृति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ जघन्य बन्ध ग्रहण करना चाहिए जघन्यसत्त्व नहीं, क्योंकि अन्यथा जीवनीय स्थान विशेष अधिक नहीं बनते । २० घात क्षुल्लक भव ग्रहण के ऊपर उससे सख्यातगुणा अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके जघन्य निषेक क्षुल्लक भव ग्रहण होता है। उसकी जघन्य अपर्याप्त निवृति सज्ञा है । ३, शरीरपर्याप्तिकी निवृतिका नाम शरीर नि तिस्थान है।
७. लयपर्यातका लक्षण
भ १/१.१.४०/२६०/११
अपयशनामकर्मोदयजनितशनस्याविभक्ति
वृत्तय अपर्याप्ता । = अपर्याप्त नामकर्म के उदयसे उत्पन्न हुई शक्ति जिन जीवोंकी शरीर पर्याप्त पूर्ण न करके मरने रूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है, उन्हें अपर्याप्त कहते है ।
=
गो. जी /मू./१२२ उसे दु अनुग्णरस य सगसगजन्य विदि तोमर अपजस साडु | १२२॥ अपर्याप्त नामकर्म के उदयसे एकेन्द्रियादि ने जो अपने-अपने योग्य पर्यायोंको पूर्ण न करके उच्छ्वासके अठारहवे भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मे ही मरण पाव ते जीन सन्धि कहे गये है।
का अ./मू./१२० उसासद्वारसमे भागे जो मरदि म य समाणेदि । एक्को वि य पज्जती लद्धि अपुण्णो हवे सो दु ११३७ जो जीव श्वासके अठाहने भागमे मर जाता है, एक भी पर्याप्तिको समाप्त नही कर पाता. उसे लब्धि अपर्याप्त कहते है ।
४२
गो. जी जो / १२२ / ३३२/४ ला स्वस्थ पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पन्ना लब्ध्यपर्याप्ता इति निरुक्ते । -लब्धि अर्थात् अपनी पर्यामियॉकी सम्पूर्ण ताकी योग्यता तोहिरि अपर्याप्त अर्थात निष्पन्न न भये ते सन्धि अपर्याप्त कहिए ।
८. अतीत पर्याप्तिका लक्षण
घ. २/१, १/४१६/१३ एदासि छण्हमभावो अदीद पज्जत्ती णाम । छह पर्यायोंके अभावको अतीत पर्याप्त कहते है।
Jain Education International
२. पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
२. पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
१. षट् पर्याप्तियोंके प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल सम्बन्धी नियम
१. सामान्य नियम
घ. १/१.१.२४/२६४/६ सा (आहारपर्यास) च नान्तर्मुहूर्त मन्तरेण समयेके वोपजायते आत्मनोऽक्रमेण तथाविधपरिणामाभावाच्छरीरोपादानप्रथमखमयादारभ्यान्तर्मुहुर्ते नाहारपर्या शर्मिष्पद्यत इति यावत् । -साहारपर्याप्त' पश्चादन्तर्मुहुर्तेन निष्पद्यते। सापि तत पश्चादन्तर्मुहूर्तादुपजायते । एषापि तस्मादन्तर्मुहूर्त काले समतीते भवेत्। एषापि (भाषापर्याहि अपि) पश्चादन्तर्मुहूर्ता
एतासा प्रारम्भोऽक्रमेण जन्मसमयादारम्य तासां सत्त्वाभ्युपगमात् । निष्पत्तिस्तु पुन क्रमेण । =वह आहार पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त के बिना केवल एक समयमे उत्पन्न नहीं हो जाती है, क्योंकि आत्माका एक साथ आहारपर्याप्त रूपसे परिणमन नही हो सकता है। इसलिए शरीरको ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर एक अन्तर्मुहुर्त में आहारपर्या पूर्ण होती है। वह शरीर पर्याप्ति आहार पर्याप्तिके पश्चात एक अन्तर्मुहूर्तमे पूर्ण होती है यह इन्द्रियपर्यात भी शरीरपर्याप्त के पश्चाद एक अन्तर्मुहुर्त में पूर्ण होती है। नासोमा पर्यात भी इन्द्रियपति एक अन्तर्मुहूर्त परचाय पूर्ण होती है भाषा पर्याप्ति भी आनपान पहिले एक अन्तर्मुहूर्त पश्चाद पूर्ण होती है.इन हो पर्याप्तयोका प्रारम्भ युगपद होता है, क्योंकि जन्म समयसे लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है । परन्तु पूर्णता क्रमहोती है । (गो. जी./मू. व. जी. प्र / १२०/३२८ ) । २. गतिकी अपेक्षा
मु. आ /१०४९ पज्जतीपाता भिण्मुहुरोण होति गायल्या अणु'समयं पज्जती सव्वेसि चोववादीण | १०४८। मनुष्य तिर्यंच जीव पर्या सियोकर पूर्ण अन्तर्मुहूर्त में होते है ऐसा जानना और जो देव नारकी है उन सबके समय-समय प्रति पूर्णता होती है । १०४८ ॥ दि. प / अधिकार/गाया न पायेण णिरय मिले जावूर्णता मुहूत्तमेते ।
मी पावसाकस्सिम भयजुदो हो |२/१९३३ उपजते भवने उनवादपुरे महारि सय पाति उपजत जादा अतोमुहतेग 1३/२००१] जायंते रसोए उबादपुरे महारिहे सपने जादा य मुहुसेणं छप्पज्जन्त्तीओ पार्वति । ८/५६७॥ - नारकी जीव.. उत्पन्न होकर एक अन्तर्मुहूर्त कालमें यह पर्याप्तियोको पूर्ण कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है । (२/३१३)। भवनवासियो के भवन में (देव) उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहुर्त मे ही वह पर्याप्तियोको प्राप्त कर लेते है | (२०६) देव सुरलोकके भीतर एक मुहूर्त में ही छह पयोको प्राप्त कर लेते है | ( ८ ५६८ ) ।
२. कर्मोदयके कारण पर्याप्त व अपर्याप्त संज्ञा घ. ३/१,२,७०/३९१/२ एत्थ अजयमेग अपनन्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्वा । अण्णा पज्जत्तणामकम्मोदयसहितणिव्वत्ति अपज्जन्त्ताण पि अपज्जत्तवयणेण गहणप्पसगादो। एवं पज्जन्ता इदि पुणे पज्जतणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तम्या अण्णाज्जामकम्मोदयसहिद शिव्यतित गहनाववतीयो यहाँ सूत्रमें अपर्याप्त पदसे अपयश नामकर्मके उदयसे युक्त जीवाण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त निवृत्त जीवोंका भी अपर्याप्त इस वचनसे ग्रहण प्राप्त हो जायेगा । इसी प्रकार पर्याप्त ऐसा कहनेवर पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोका ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त निवृत्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होगा ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
C
www.jainelibrary.org