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पर्यास
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भेद व लक्षण
पर्याप्त अपर्याप्त सामान्यका लक्षण ।
पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्मके लक्षण ।
पर्याप्त मेद ।
छहों पर्याप्तियों के लक्षण |
निर्वत पर्यापर्यास लक्षण।
पर्याप्त व अपर्याप्त निर्वृतिके लक्षण ।
लब्ध्यपर्याप्तका लक्षण ।
अतीत पर्याप्तका लक्षण ।
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पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
षट् पर्याप्तियोंके प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल सम्बन्धी नियम |
गर्म शरीरकी उत्पत्तिका क्रम
३० जन्म / २ / था।
कमदयके कारण पर्याप्त व अपर्याप्त पर्याप्तापर्याप्त प्रकृतिबोका बंध उदय व स
- दे० वह वह नाम ।
कितनी पर्याप्त पूर्ण होनेपर पर्याप्त कहलायें।
३
४ विग्रहमतिमै पर्याप्त कहें या अपर्याप्त ।
५
निवृति अपर्याप्तको पर्याप्त कैसे कहते हो।
६ इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जानेपर भी माझापैका ग्रहण
क्यों नहीं होता।
पर्याप्त व प्राणों अन्तर ।
उच्छ्वास पर्याप्ति व उच्छ्वास प्राणोंमें अन्तर ।
- दे० उच्छ्वास | पर्याप्तापर्याप्त जीवोंमें प्राणोंका स्वामित्व ।
- दे० प्राण/१
३ पर्याप्तापर्यातका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ ।
पर्याशियोंका काय मार्गणानें अन्तर्भाव ।
-दे० मार्गणा। सभी मार्गणाओं में आपके अनुसार व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गमा । पर्याप्तों की अपेक्षा अपर्याप्त जीव कम है। - ६० अन्यत्व/२/६/२ किस जीवको कितनी पर्याप्तियों सम्भव है । अपर्याप्तोंको सम्बत्व उत्पन्न क्यों नहीं होता। जब मिश्रयोगी व समुदूधात केवली में सम्यक्त्व पाया जाता है, तो अपयश में क्यों नहीं।
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- ३० आहारक /४/et एक जीनमें पर्याप्त अपर्याप्त दोनों भाव कैसे सम्भव है। - ३० बाहारक /४/६ पर्याप्त नियमसे सम्मूमि ही होते हैं।
० मूर्च्छन ।
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१. भेद व लक्षण
अपर्याप्तकोंके जन्म व गुणस्थान सम्बन्धी ।
- दे० जन्म / ६ । - दे० लेश्या / ५ ।
पर्याप्त अवस्थामै लेवायें। अपर्याप्त कालमें सर्वोत्कृष्ट क्लेश व विशुद्धि समय नहीं । ० विशुद्धि । अपयशावस्थामें विभंग ज्ञानका अभाव ।
-दे० अवधिज्ञान/1
पर्याप्तपर्याप्त गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थानके स्वामित्व सम्बन्धी १० प्ररूपणाएँ । - दे० सत् । पाप सत् (अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन,
काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ । - दे० वह वह नाम । अपर्याप्तावस्थामै आहारक मिश्रकाययोगी, तिच नारक, देव आदिकोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थानोंके विधि निषेध सम्बन्धी शंका समाधान ।-- दे० वह वह नाम । अपर्याप्तकोंसे लौटे हुए जीवोंके सर्व लघु कालमें संयमादि उत्पन्न नहीं होता । अपर्याप्त अवस्थामें तीनों सम्यक सम्बन्धी नियम आदि ।
- दे० संयम / २० सद्भाव व अभाव - दे० जन्म / ३०
१. भेद व लक्षण
१. पर्याप्ति - अपर्याप्त सामान्यका लक्षण
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पं. सं / प्रा / १ / ४३ 'जह पुण्णापुण्णाई गिह-घड-वस्थाइयाई दव्वाईं । सह पुण्यापुण्णाओं पत्तियरा मुणेयन्या ॥४३॥ जिस प्रकार गृह, घट, वखादिक अचेतन इम्य पूर्व और वपूर्ण दोनो प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपने दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवोंको पर्याप्त और अपूर्ण जीवोंको अप जानना चाहिए। (ध. २/११/गा. २११/११७); (पं.सं./ /९/१२७); (गो, जी / मु. / ११ / ३२६) ।
१/१.१.२४/२४०/४ पर्यानीनामर्ध निम्पन्नावस्था अपर्याप्त जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमा पर्यानिरुच्यते । घ. १/१.१००/३१९/६ आहारशरीर निष्पतिः पर्याष्ट पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्त कहते हैं। इन्द्रियादिमें विद्यमान जीवनके कारणपने की अपेक्षा न करके इन्द्रियादि रूप शक्तिकी पूर्णतामात्रको पर्याप्त कहते है | २५० आहार शरीरादिको निष्पत्तिको पर्याप्त कहते है। १११ (ध.१/१.१.४०/२६०/१० )
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का अ. / मू / १३४ - १३५ आहार-हरीरीदियणिस्सा मुसा भास-मणसाणं परिणयाबारे जाओससीओ | १३४१ तस्सेवकारण पुग्गलान जाहू विपत्ती सा पद ॥१३३॥ - आहार शरीर, इन्द्रिय आदिके व्यापारोंमें अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शक्तियों है, उन शक्तियोंके कारण जो गल स्कन्ध है उन पुद्गल स्कन्धोंकी निष्पत्तिको पर्याप्त कहते है । गो जी जी प्र/२/२१/१ परि समन्याय, अष्ठि-पर्याप्तिः शक्तिनिष्पत्तिरित्यर्थ । चारों तरफसे प्राप्तिको पर्याप्ति कहते है ।
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