Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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निपजें जी, विणसे तिमज निःशंक ॥ १ ॥ सुविवेक विचारी जुओ जुओ वस्तु स्वभाव ॥ ए आंकणी ॥ छतें योग यौवन वती जी, वांझणी न जणें बाल मूंछ नहीं महिला मुखें जी, कर तलें उगे न वाल ॥ २ ॥ सु० ॥ विण स्वभाव नवि संपजें जी, किमहीं पदारथ कोय; अंब न लागे लींबडे जी, वास वसंतें जोय सु० ॥ ३ ॥ मोरपीछ, कुण चीतरें जी, कुण करे संध्या रंग; अंग विविध सविजीव नां जी, सुंदर नयन कुरंग ॥ ४ ॥ सु० कांटा बोर बब्बुलनां जी, कोण अणि आला कीध; रूप रंग गुण जूजूआजी, तरु फल फूल प्रसिद्ध ॥ सु० ॥ ५ ॥ विसहर मस्तक नित्य वसेंजी, मणी हरें विष तत्काल ॥ पर्वत स्थिर चल वायरो जी, ऊर्द्ध अग्निनी झाल ॥ सु० ॥ ६ ॥ मच्छ तुंब जलमां तरेंजी, बूर्डे काग पहाण ॥ पंखी जाति गयणें फिरेंजी, इंणि परे सहज विनाण सु० ॥ ७ ॥ वाय सुंठ घी उपसमें जी, हरडें करें विरेक; सीझे नहीं कण कांगडुं जी शक्ति स्वभाव अनेक सु० ॥ ८ ॥ देश विशेषे काष्ठनो जी, भोंयमां थाय पाषाण, शंख अस्थिनौ नीपजें जी, क्षेत्र स्वभाव प्रमाण
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