________________
जैनधर्म : जीवन और जगत्
जानने-देखने लगता है । "जिन" सर्वज्ञ होते हैं। केवली होते हैं । वे वस्तुजगत के प्रति प्रियता-अप्रियता की सवेदना-रहित, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा भाव मे अवस्थित रहते हैं।
___ सर्वज्ञ को अनतचक्षु कहा गया है। उनकी निर्मल ज्ञान-चेतना में अनन्त धर्मात्मक वस्तु समग्रता से प्रतिबिम्बित होती है। इसलिए वे सत्यद्रष्टा और सत्य के प्रतिपादक होते हैं। वे जन-कल्याण हेतु प्रवचन करते हैं । उनके प्रवचन का उद्देश्य होता है--
• प्रकाश का अवतरण ० बन्धन-मुक्ति ० आनन्द की उपलब्धि ।
जैन-धर्म बहुत प्राचीन है, वह वेदो की तरह अपौरुषेय या अन्याकृत नहीं है।
वह वीतराग-सर्वज्ञ-पुरुषो द्वारा प्रणीत है।। इस युग के आदि धर्म-प्रवर्तक थे- भगवान् श्री ऋषभदेव ।
ऋषभदेव का काल-निर्णय आज की संख्या मे नहीं किया जा सकता। वे बहत प्राचीन हैं। वे युग-प्रवर्तक थे, मानवीय सभ्यता के पूरस्कर्ता थे। वे इस युग के प्रथम राजा बने । लम्बे समय तक राज्य-तत्र का सचालन कर उन्होने राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओ का सूत्रपात किया। वे मुनि बने । दीर्घकालीन साधना की। घोर तप तपा। कैवल्य को उपलब्ध हुए। सर्वज्ञ-मर्वदर्शी बने । धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। धर्म-तीर्थ की स्थापना कर तीर्थकर कहलाए । ऋपभ इस युग के प्रथम तीर्थंकर थे और श्रमण भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थकर । जन-धर्म के वाईस तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल मे हुए । पाश्र्व और महावीर ऐतिहासिक पुरुष हैं । तीर्थंकर वह होता है जो स्वय प्रकाशित होकर प्रकाश-पथ का निर्माण करता है । वह स्वतत्र चेतना का स्वामी होता है । अत किसी दूसरे का अनुगमन या अनुकरण नही करता। इसीलिए प्रत्येक तीर्थकर अपने युग के आदिकर्ता होते हैं। युग-प्रणेता होते हैं । अत देश और काल की सीमाओ से परे रहकर यह कहा जा सकता है कि जैन-धर्म के प्रणेता तीर्थकर होते हैं। वे जिन, वीतराग, अर्हत्, सर्वज्ञ आदि स्पो मे वदित-अभिनदित होते हैं। भगवान महावीर इस युग के अतिम तीयंकर थे, अत वर्तमान को जैन परम्परा का भगवान महावीर से गहरा मम्बन्ध है।
? सूयगडा, ६६ । २ आवश्यक सूय १३ निग्गथ-पावयणे थिरीकरण सुत्त – उसभाइ
महावीर पज्जवमाणाण ।