________________
जैनधर्मं जीवन और जगत्
१५८
आपका नाथ बनता हू । छोडिये इस कष्ट - साध्य साधना और कठिन तपस्या को । ससार मे प्रवेश करें और जीवन का सही आनन्द लूटें । मुनि - "राजन् ' आप स्वय भी अनाथ हैं । फिर कैसे बनेंगे मेरे नाथ ?" सम्राट् श्रेणिक आश्चर्य मे डूब गये । वे समझ नही रहे थे मुनि की रहस्य-भरी बात । मेरे जैसा अपार विभुता का स्वामी भी यदि अनाथ होगा तो फिर दीन-दुखियो का क्या होगा ?
•
जिज्ञासा के स्वर मे सम्राट् ने अनाथता की परिभाषा और मुनि की अनाथता का कारण पूछा। मुनि ने कहा- 'मैं कौशाम्बी नगरी के एक धनकुबेर पिता का पुत्र था । भरा-पूरा परिवार था । सुख-समृद्धि का सागर लहरा रहा था । एक बार मेरी आखो मे भयकर पीडा और शरीर मे दाहज्वर उत्पन्न हो गया । हर सभव उपचार असफल होता गया । पिता मेरे लिए सब कुछ न्योछावर करने के लिए प्रस्तुत थे । फिर भी मुझे रोग मुक्त नही कर सके । ममतामयी मा, सगे भाई - बहिनें तथा प्राणप्रिया पत्निया भी गोली पलको से मेरी ओर निहारती रही, पर कोई भी उस असह्य पीडा से मुझे नही उबार सका । राजन् | यह मेरी अनाथता थी । इस प्रकार मैंने स्वय को सब तरह से अनाथ पाकर अन्त मे धर्म की शरण ली। मैंने दृढ सकल्प किया- "यदि इस व्याधि से मुक्त हो जाऊ तो अनगार धर्म को स्वीकार करू ।" अगले ही दिन पीडा शात हो गई, और में धर्म की शरण मे आ गया । स्वयं स्वयं का नाथ बन गया ।"
1
साधुत्व स्वीकार कर उसका सम्यक् पालन न करने वाले तथाकथित साधको को भी महानिग्रंथ अनाथी ने अनाथ बताया । और प्रतिबोध की भाषा मे श्रेणिक से कहा - मेधाविन् | ज्ञान-गुणोपपेत इस सुभाषित अनुशासन को सुनकर और कुशीलजनो के मार्ग का सर्वथा परित्याग कर तुम महानिर्ग्रथो (तीर्थंकरों) के पथ का अनुसरण करो । ऐमा कर तुम भी स्वय के नाथ वन जाओगे, अपने स्वामी बन जाओगे |
यह सुनकर मगधराज श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । अजलि-बद्ध होकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन्होने कहा - " महामुने । आपने मुझे अनायता का सम्यग् बोध दिया । आपका जन्म सफल है । आप ही सही अर्थ मे सनाथ और सवधु हैं । क्योकि आप सर्वोत्तम जिनमार्ग मे अवस्थित हैं । मैंने आपको विषय-भोगो के लिए निमंत्रित किया । आपके ध्यान मे विघ्न उपस्थित किया । इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हू । मै आपका अनुशासन स्वीकार करता ह् ।" उसके अनन्तर मगध सम्राट् श्रेणिक महानिग्रंथ अनाथी को प्रणाम कर संवन्धु और सपरिजन धर्म मे अनुरक्त हुए ।
अनाथी निग्रंथ से धर्म-बोध मिलने के पश्चात् जैन-धर्मं के साथ सम्राट् श्रेणिक की घनिष्टता उत्तरोत्तर बढती गई । भगवान् महावीर के