Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 185
________________ १६० जैनधर्म : जीवन और जगत् जाऊगा ? क्या आपकी पर्यपासना का यही फल मिलेगा? भगवान् ने कहा-राजन् । ऐसा नहीं है । नरक का आयुष्य तो तूने मृगया-गृद्धि के कारण पहले ही बाध रखा है। मेरी पर्युपासना का फल तो यह है कि तुम नरक से निकल कर मेरे हो समान तीर्थकर वनोग । जैसे मैं इस युग का अन्तिम तीर्थकर हूँ, वैसे ही तू विकासशील युग का प्रथम तीर्थकर होगा। यह मगल सवाद सुनकर श्रेणिक का मन उल्लास से भर गया । उसने प्रार्थना की-"भगवन । ऐसा भी कोई उपाय है जिससे मेरी नरकयात्रा टल सके ?' भगवान् ने कहा-"श्रेणिक ? यदि कपिल नाम की ब्राह्मणी दान दे, कालशौकरिक कसाई प्रतिदिन की जाने वाली ५०० भैसो की हिंसा छोड दे और तुम पूणिया श्रावक की सामायिक-साधना खरीद सको तो तुम्हारी नरक-यात्रा टल सकती है।" श्रेणिक के मन मे इतनी छटपटाहट लगी हुई थी अपने उद्धार के लिए कि वह हर सभव प्रयत्न करने को तैयार था। लेकिन श्रेणिक की बात न कपिला ने मानी, न कालशौकरिक ने। राजा ने अपनी सत्ता के बल पर ऐसा करवाना चाहा, पर सफलता नही मिली। कपिला ने राजाज्ञा से दान दिया, पर बिना मन के । इसलिए उसने कहा-यह दान मैं नहीं दे रही हू, राजा ही दे रहे हैं । कालशौकरिक को कुए मे डाल दिया गया, पर वह वहा भी मिट्टी के भैसे बनाकर मारने लगा। श्रेणिक अब भी निराश नही था । वह स्वय भगवान् के परम उपासक समता के विशिष्ट साधक "पूणिया" श्रावक के पास गया और कहामहाश्रावक | मुझे तुम्हारी एक सामायिक की आवश्यकता है, मात्र एक सामायिक की। महाप्रभु ने तुम्हारी सामायिक-साधना की बहुत सराहना की है । इसमे इतनी शक्ति है कि उसमे मेरी नरक-यात्रा टल जायेगी। श्रावक प्रवर ! ___ अनुग्रह करो, अपनी एक सामायिक मुझे दो और उसका जितना मूल्य हो मेरे राज्य-कोष से अदा करो। श्रावक ने मन ही मन मुस्कराते हुए कहा-नरपुगव । जिन भगवान् ने आपको सामायिक खरीदने का निर्देश दिया है, उसका मूल्य भी वे ही बतायेंगे। जो मूल्य होगा, वह आप पूछ आइये, मैं आपको सामायिक दे दगा। मैंने आज तक यह धधा किया नही सम्राट् हर्ष से उछलता हुआ प्रभु के चरणो मे पहुचा और बोला

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