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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
साध्वी कनकश्री ( सेवा निकाय व्यवस्थापिका)
जैन विश्व भारती प्रकाशन
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स्वर्गीय पूज्य
पिताश्री रामचन्द्रजी सोनी की पुण्य स्मृति में उनके पुत्र पदमकुमार, विमलकुमार, सज्जनकुमार चेतनकुमार सोनी सोजतरोड (बम्बई) के अर्थ - सौजन्य से प्रकाशित ।
द्वितीय सस्करण : १९९७
मूल्य : बीस रुपये / प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनू, नागौर (राज० )/ मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनू - ३४१ ३०६ ।
JAINDHARM. JIVAN AUR JAGAT Sadhvi Kanaksri
Rs 20.00
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आशीर्वचन
जैन-दर्शन का निरूपण जीव और अजीव-इन दो तत्त्वो को आधार मानकर किया गया है । धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह पद्रव्यात्मक लोक है। इसमे जीव और अजीव-दोनो का समावेश है। लोक के स्वरूप को अधिगत करने के लिए छह द्रव्यो का बोध आवश्यक है। जीव फो उसके सपूर्ण विकास की प्रक्रिया से गुजरने के लिए नौ तत्त्वो का वोध आवश्यक है। "जैनधर्म जीवन और जगत्" पुस्तक मे द्रव्यवाद और तत्त्ववाद का सक्षिप्त और समीचीन स्वरूप उजागर हुआ है ।
ज्ञान-प्राप्ति के लिए तीन वातें जरूरी है- ज्ञान देने वाला विद्वान, जान दान का माध्यम साहित्य और जिज्ञासु पाठक या श्रोता । देखा जाए तो आज तीनो ही श्रेणियो के व्यक्ति कम उपलब्ध होते हैं । निप्काम भाव स ठोस शान देने वाले गुरु कहा है ? जीवन-स्पर्शी गम्भीर साहित्य कहा है ? गहरी जिज्ञासा रखने वाले विद्यार्थी भी कहा है ? इस क्षेत्र में जो कमी आई है, आ रही है, उसकी सपूर्ति के लिए विशेष ध्यान देने की अपेक्षा है।
हमने अपनी ओर से इस त्रिकोणात्फ अभियान को गति देने का लक्ष्य बना रया है । फलत' यहा अच्छे शिक्षक, अच्छा साहित्य और अच्छे विधापी उपलब्ध हैं । वतमान को अति व्यस्त जीवन-शैली मे जैन-दर्शन का ठोस अध्ययन करने के लिए कुछ अवकाश रहे, इस दृष्टि से "जन-विश्व भारती" फे समण सस्कृति सकाय की ओर से "जनविद्या" के साथ पत्राचार पाठमाला का एक सार्थक कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
साहित्य-लेयन के क्षेत्र में हमने अपने धर्मसघ की साध्वियो को विशेष रूप से प्रेरित किया । अनेक साध्वियों ने उस प्रेरणा को पफमा और लेखन में रम लिया । साध्वी कनकधी उनमें एक है । वह अध्ययनशील है, प्रपर घरता है और अच्छी लेयिका है। वह अपने लेखन को अधिक गतिगोल बनाए । इसवे साप मेरी यह भी अपेक्षा है कि गभीर और ठोम साहित्य पे पाठको को सख्या में अभिवृद्धि हो । जैन विश्व भारती,
गणाधिपति तुलसी १ मई, १९९६
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मगल-संदेश
प्रस्तुत पुस्तक मे जैन-धर्म के माध्यम से जीवन और जगत् को समझने का प्रयत्न है। जीवन को समझने के लिए जगत् को समझना जरूरी है और जगत् को समझने के लिए जीवन का समझना जरूरी है। दोनो मापेक्षता है, परस्परता है इसलिए एक यो समझे बिना दूसरे को समझा नहीं जा सकता। जगत् अस्तित्ववादी अवधारणा है और जीवन व्यवहारवादी अथवा उपयोगितावादी अवधारणा । जगत् का स्वरूप है-द्रव्यवाद । द्रव्य फी मीमामा करने वाले का दर्शन विशुद्ध, दृष्टिकोण समीचीन बन जाता है । दशन-शुद्धि आचार-शुद्धि का स्रोत बनती है । यह वचन मननीय है
दयिए दसणसुद्धी दसणसुद्धस्स घरण तु । साध्वी कनवश्री ने द्रव्यवाद और आचारवाद-दोनो को एक माला में पिरोने का प्रयत्न किया है। यह साथक प्रयत्न है। जीवन और दर्शन की पो दिशागामिता वांछनीय नहीं है। अपेक्षा है जीवन-दर्शन की। दर्शनशून्य जीवन (आचार और व्यवहार) और जीवन-शून्य दर्शन समस्या का समाधान नहीं बनते । जीवन और दशन का समन्वित प्रयोग नई धारा हो सकती है, किन्तु आज यह उपेक्षित हो रही है। दर्शन-शास्त्र और आचारशास्त्र ये मध्य लक्ष्मण-रेखा पीचना सगत अभियोजन नहीं है।
गणाधिपति श्री तुलसी ने साध्वी-समाज को अध्ययन, अध्यापन और लेपन की दिशा मे नई गति दी है। फलत अनेक साध्वियो के चरण इस दिगा में आगे बढ़े हैं । साध्वी कनकधी का हिन्दी भाषा पर अधिकार है और दमन एप आपार पे विषय का अध्ययन है। उनकी लेखनी ने भाषा और विषय-दोनो की सम्यग् योजना की है। विकास के लिए बहुत अवकाश है, किन्तु जो है, वह अपने बाप में रमणीय है, पाठय पे लिए उपयोगी है।
आचार्य महाप्रज
जन पिश्य भारती, सानू (राज.)
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पुरोवाक्
जन तत्त्व-दर्शन भारतीय चितन और आध्यात्मिक जीवन-शैली का प्रतिनिधि दर्शन है । वह शुद्ध अर्थ मे मोक्ष-दर्शन है, अध्यात्म-दर्शन है, फिर भी उगका तत्य-नान अत्यन वैज्ञानिक है। जैन-दर्शन की अवधारणा मे मोलिन-तत्त्व टो है-जीव और अजीव अथवा जड और चेतन। इन दोनो का सयोग ही ससार है तथा वियोग मोक्ष है । मोक्ष का मूल है सयम-साधना। उसके लिए जीव अजीव का बोध आवश्यक है। जैन तत्त्व-विद्या का पल्लवन पन्ही दो ध्रुवो से हुआ है। शास्त्रकार लिखते हैं---
नंफाल्य द्रव्यपटक, नवपदसहित जीवपटकापलेश्याः, पञ्चान्ये धास्तिकाया प्रत समितिगति ज्ञान चारित्र भेदा. । इत्येतन्मोक्षमूल विभवनमाहितं प्रोक्त महंदि रोरा, प्रत्येति प्रदधाति स्पृशति घ मतिमान् य.स शुद्धिवृष्टिः ।।
कालिय अस्तित्व वाले छह द्रव्य, नो पदार्थ, पड़जीव निकाय, छह नेपया, पञ्चास्तिकाय प्रत, समिति, गतिघक, ज्ञान और चारिप-यह मोक्षमूलक ज्ञान लोकत्रय पूजित अहंतो द्वारा प्रतिपादित है। जो प्राणी इस धर्म पर प्रतीति करता है, श्रद्धा करता है और इसका पालन करता है, वही गुट जोयनदृष्टि सपन्न है।
नतिम, सरितिया एव आध्यात्मिक मूल्यों की सुरक्षा के लिए अपेक्षित है जैन तत्त्व-विधा पे साथ युवा-मनीपा की सवादिता स्थापित हो, इससे आध्यात्मिक, सदाचार सम्पन्न, जिज्ञासु और तत्त्वज्ञ व्यक्तित्वो का निर्माण हो पता है । जैनधर्म और दर्शन की मौलिफता सुरक्षित रहे, ग्वाध्याय बी एफ पिशिष्ट शैली का जन्म हो, इस दृष्टि से गणाधिपति पूज्य गुरदेव श्री तुलगी धावक नमाज में स्वाध्यायशीलता और तरवरचि का अलय पट रोपला पाते है।
परमपूज्य गुरदेव पी पी सचेतन मन्निधि में चलने वाली लोक मगनवारी यिविध आयामी प्रवत्तियो पी पटकन है-जैन विश्व भारती । मा जैनधर्म, दर्गा, तत्त्व-दिशा, ए भारतीय प्राच्य विधान के अध्ययन, भायापन सया बसुमधान या अनूठा पेन्द्र है । जैन-मुम्बार निर्माण की दृष्टि में विश्व भारती घेतांन मनप-सम्वृति नगर पे तत्वावधान में जनपिया या नद वारि र पत्राचार-पाटमाला या द्विवार्षिक पाठ्यक्रम निर्या
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आठ
ग्नि है । मुक्ति परीक्षाओ का क्रम चालू है। इन परीक्षाओ मे देश भर ने मंक डोरेन्दो से हजारो छात्र-छात्राए प्रतिवर्ष सम्मिलित होते हैं ।
पूज्यपाद गुरुदेव श्री एव श्रद्धेय आचार्यप्रवर ने अमीम अनुग्रह कर योगक्षेम वर्ष पूर्व पनाचार पाठमाला की पाठ्य सामग्री लिखने का निर्देश मु प्रदान पिग । इमे में अपना विशेष सौभाग्य मानती हू। सन् १९८९९० में ये पाट तैयार हुए । पाठ्यक्रम मे स्वीकृत/प्रयुक्त भी हो गये ।।
मन् १९९१ गुरुदेव श्री का जयपुर प्रवास । आदरास्पद महाश्रमणी जी का मरेत मिला जैनधर्म को आधुनिक भाषा-शैली और सदर्भो मे प्रस्तुत करने की अपेक्षा है। यद्यपि जैनधर्म को समग्रता से जानने/समझने हेतु हमारे धर्म गघ में काफी साहित्य लिखा गया है, किंतु विषय की गभीग्ला और भाषा की जटिलता के कारण जन-सामान्य उसका पूरा लाभ नही उठा माता । आज के पढ़े-लिखे युवक-युवतियो का जैन तत्त्व-दर्शन में प्रोग हो, ह भी जारी है। इन दष्टियो से पत्राचार पाठमाला के लेखो का अच्छा उपयोग हो सकता है। यदि वे पुस्तक रूप में एकत्र उपलब्ध हो जाए गो परीक्षायियों के अतिरिक्त आम पाठक को भी सुविधा हो सकती है। गायीप्रमुखात्रीजी की इसी प्रेरणा की निष्पत्ति है प्रस्तुत पुस्तक "जैनधर्म जीवन और जगत्"। इसके माध्यम से मैंने जैनधर्म के विचार और आनार पक्ष को जीवन मूल्यो एव जागतिक सदर्भो मे सरल भाषा-शैली में प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयत्न किया है ।
मेरे अध्ययन, अनुशीलन एव लेखन मे आधारभूत ग्रन्थ रहे हैं महामरिम पूज्यपाद गुरुदेव श्री तुलसी द्वारा रचित न मिद्धात दीपिका, श्री मिक्ष न्यायणिका, जैन तत्त्व-विद्या, गहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने गयादि कसा महान दानित आचार्यश्री महाप्रज्ञ की उत्कृष्ट कृतियापोधि, जैनदर्णन मान और मीमाना आदि । ये ग्रथ प्रस्तुत पुस्तक लिखते समान मादीप की भाति मेग माग-दर्शन करते रहे हैं। मैंने इनका भरपूर
fr । मो लिए श्रद्धाप्रणत ह आराध्य दयी के प्रति । मुनि श्रीमानी द्वितीय की पुस्नर विश्व प्रहेलिका तथा अन्य विद्वानो/
iri यो घोगा भी ययावश्यर उपयोग किया है। उनके प्रति दादि- तामाता यावी ।
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दायरे काफी व्यापक बन गये है । इन सस्थान से प्रकाशित होने वाले साहित्य का भी अपना मूल्य है । " जैनधर्म जीवन और जगत्" जैन दर्शन के प्रशिक्षुओं के लिए मदमं प्रथ के रूप में उपयोगी सिद्ध हुआ है, इसका प्रमाण हे पुस्तक यो मांग और लोकप्रियता । यह किसी भी लेखक को सफलता का 'माइन स्टोन' माना जा सकता है। पुस्तक का द्वितीय संस्करण पाठको की माग पूरी करेगा, वही मेरी अगली माहित्य-यात्रा की नयी सभावनाए भी नयी दिपाए उद्घाटित करेंगी । इसका स्रोत है गुरुकृपा का प्रसाद ओर मगनमय आशीर्वाद 1
साध्वी कनकश्री
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१ भान है आलोफ अगम का २ जैनधर्म : एक परिचय ३ विपदी-अस्तित्व के तीन आयाम ४ जैनधर्म मे तत्त्ववाद ५ जैनधर्म में जीव-विज्ञान ६ सूक्ष्म जीव-जगत् और विज्ञान ७ जन्मान्तर-यात्रा (गतिच) - शत्ति-स्रोत-पर्याप्ति ९. जीवन-पक्ति-प्राण १० शरीर और उममा आध्यात्मिक मूल्य ११ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म १२ पुण्य कोर पाप १३ बन्धन और उसके हेतु १४ मोड और उसके उपाय १५ जनदर्णन मे ट्रव्यवाद १६ जादांत मे पुद्गल । १० जनदर्शन में भात्मवाद १८ जनदर्शन में पमंचार १९ जनदर्शन मे बनेकातपाद २० नदशन मे स्थाद्वाद
१ नधर्म में जातिवाद फा बाधार २२ यी जेल माधना का आधार - जन गररप पी आचार-सरिता २४ 7 मुनि पी आचार-सरिता २५ मुनियोपी पद-याना और उसको उपलब्धियां २६ म-पापना-इतिहास माया
पंचानी गगतष के अध्यक्ष सगाट चेटक २८ मान्न नरेगमपध-सजाट पिर
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ज्ञान है आलोक अगम का
दुख-मुक्ति का उपाय है विधा और आचरण ! अविद्यावान प्राणा दरा-परम्पग का मर्जक होता है। माचरण हमारा गन्तव्य-पर है। विद्या है गस्ता दिखाने वाला प्रकाश । वह जीवन के यात्रा-पथ में मदा साप रहता है और पथिक के आगे-आगे चलता है।
एक युवा यात्री को मघन वन पार कर दूरवर्ती कम्वे में जाना था। उचट ग्यावर पहाटी गस्ता । अगला गाव दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। मुरमई साम उतर आई । युवक का दिल घटक रहा था । लवा रास्ता, चागे ओर फैला निर्जन वन, गत का समय, यह डगवना बघेग, मेरे पाम सिर्फ छोटो-गी टॉर्च, काँगे पार कर सकूगा इम विपम मार्ग पो?
दिमाग में विचारो को उपन-पुथल, भय और नागा, दिल में घटकन. तन-चपन में पसीना, मनझनाहट । एक दम भी आगे बढना पठिन । यह निराण-ताश हो रही बैठ गया। शरीर शिपिन, मन तनाव-प्रम्त । अधेरे की चादर ओढ़े, महमा-दुबका-मा वह युवक, एक हारे-पये यूद्ध की भांति बैठा था।
उधर से उसके पास से एक वृद्ध व्यक्ति गुजरा। उन और नाति मे चूदा होते दर भी मन मे तरण, गति में उत्साह पी मनका, माखो में विश्याम मी चमक । समीप आते ही युवक ने पूछा--पग बात है ? गन्ते मे ही पाते बैठ गए ? युवक ने कहा -- या पद ? मुनीवन में पिर गया है। गम्मा नम्बा, अन्धेरा गरग और प्रकाशनमा-मा । म टॉचं पा प्रमाण तो दो-चार पदमो से जधिय माप नही देगा। व लोदा गाय तर ग
गरगा?
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जैनधर्म जीवन और जगत्
रहता है । माण पयासयर-~-ज्ञान हमारे पथ को आलोकित करता है । अतश्चेतना को जगाता है ।
भारतीय अध्यात्म के आचार्यों ने अथवा प्रवक्ताओ ने धर्म को मुक्ति का साधन माना है । धर्म क्या है ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए जैन आगमो मे बताया गया, धर्म दो प्रकार का होता है-श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । इस वर्गीकरण से धर्म की परिभाषा फलित होती है। यानी श्रुत का, शास्त्रो का अध्ययन और आचार का अनुशीलन ही धर्म है। सामान्यत सयम, शील, सदाचार को धर्म माना जाता है। पर भगवान महावीर ने एक नई दृष्टि दी, वह है-"नाणस्स सारो आयारो"--आचार तो ज्ञान का सार है । यदि ज्ञान नही तो आचार का अवतरण कहा से होगा? आचार का स्रोत ज्ञान ही है । इसीलिए ज्ञान की प्राप्ति और उसका उत्तरोत्तर विकास मानवीय जीवन का सर्वोच्च घोष है ।
उपयोगिता के परिप्रेक्ष्य मे यह चिंतन उभरता है कि जिन विपयो का ज्ञान हमारे कार्य-क्षेत्र मे उपयोगी होता है, हमे अधिक से अधिक ससाधन उपलब्ध करा सकता है, हमारे कार्य-क्षेत्र की सफलता का हेतु बनता है, उन विषयो को भली-भाति जानना चाहिए। किन्तु तत्त्व ज्ञान तत्त्व विद्या से जन-सामान्य को क्या लाभ हो सकता है ? तत्त्व उनके लिए है जो आत्मापरमात्मा तथा जीवन और जगत के सूक्ष्म रहस्यो को जानना चाहे। घरगृहस्थी का सचालन तत्त्व-ज्ञान से नहीं होता। बात सही है, पर हम हमारे वास्तविक जीवन मे क्या होना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, इससे पहले हमारी दृष्टि का निर्धारण-परिमार्जन आवश्यक है। तत्त्व-विद्या हमारे सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करती है । सम्यक् दृटिकोण ही हमारे आचारव्यवहार की बुनियाद है।
आचार-दर्शन आदर्श मूलक विज्ञान है। वह जब नैतिक जीवन का आदर्श निर्धारित करने और परम ध्येय के साथ उसका सबध स्थापित करने का प्रयत्न करता है, तब वह तत्त्व-चर्चा का विषय बन जाता है ।।
तत्त्व-मीमासा सत् के स्वरूप पर विचार करती है। जबकि आचारदर्शन जीवन-व्यवहार मे मूल्यो का निर्धारण करता है। विचार के ये दोनो क्षेत्र एक दूसरे के बहुत निकट हैं। जब हम किसी एक क्षेत्र में गहराई से प्रवेश करते हैं तो दूसरे की सीमा का अतिक्रमण कर उसमे भी प्रविष्ट होना पडता है।
मैकेंजी का कथन है कि जब हम यह पूछते हैं कि मानव-जीवन का मूल्य क्या है ? तब हमे यह भी पूछना पडता है कि मानव-व्यक्तित्व का तात्त्विक स्वरूप क्या है ? वास्तविक जगत् मे उसका क्या स्थान है ? इन
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भान वालोर बगम या
पर प्रश्नों गा ममाधान तत्त्व-मीमाता में ठोर धरातल में ही उपलब्ध हो गया है।
यापार-वर्णन बोर तत्व-भीमाना रे पारम्परिक मवध पो स्पष्ट पन्ते Prioराधान निग्रने है रि~~"गोई भी आचार मात्र तत्त्व-दान पर परम- दानिक निदान पर अवश्य बाधित होता है। पग्मम गवध मे हमारी जैसी अवधारणा होती है, उनके अनुप ही मारा जागरण होता । र्णन और वापरण माप-ताप चलते हैं।
चालय में जब तक नत्य के न्याप या जीवन में मादनं या योध मी माता, गर तर नाचरण ण मूल्यापन भी समय नहीं। क्योकि यह मूल्यांना नो पबहार वापरल्यशिस नादम ६ में ही विराजा गरा; । गरीब ऐगा विदु है, पहा तत्त्व-मीमामा और नापार दर्णन मिलो ।। मा दीगो गो एक-दूसरे ी अलग नहीं किया जा सकता।
मानीया में तीन पक्ष(1) गानारपग (२) बाभूत्यात्मर (2) विद्याप । IT HITT RAT भी नी पिभाग हो जाते है(१) TREAT (२) प्रम-दगंन (३) आपार-दान ।
Tीनो गोपि-गु भिन्न नी।। मात्र अध्ययन में पायो यी fr-71
रिनी र यो पति लिा विशिष्ट प्रकार का TITUTII गय नध्य एमार, उनी पियामी और माद - परति ET पशो पर गमता म विशार दिया जाता है। नितीनने
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जैनधमं जीवन और जगत्
रहता है | नाण पयासयर- -ज्ञान हमारे पथ को आलोकित करता है । अतश्वेतना को जगाता है ।
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भारतीय अध्यात्म के आचार्यों ने अथवा प्रवक्ताओं ने धर्म को मुक्ति का साधन माना है । धर्म क्या है ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए जैन आगमो में बताया गया, धर्म दो प्रकार का होता है- श्रुत धर्म और चारित्र धर्मं । इस वर्गीकरण से धर्म की परिभाषा फलित होती है । यानी श्रुत का, शास्त्रो का अध्ययन और आचार का अनुशीलन ही धर्म है । सामान्यत सयम, शील, सदाचार को धर्म माना जाता है । पर भगवान महावीर ने एक नई दृष्टि दी, वह है- " नाणस्स सारो आयारो " -- आचार तो ज्ञान का सार है । यदि ज्ञान नही तो आचार का अवतरण कहा से होगा ? आचार का स्रोत ज्ञान ही है । इसीलिए ज्ञान की प्राप्ति और उसका उत्तरोत्तर विकास मानवीय जीवन का सर्वोच्च घोष है ।
उपयोगिता के परिप्रेक्ष्य मे यह चिंतन उभरता है कि जिन विषयो का ज्ञान हमारे कार्य-क्षेत्र मे उपयोगी होता है, हमे अधिक से अधिक ससाधन उपलब्ध करा सकता है, हमारे कार्य क्षेत्र की सफलता का हेतु वनता है, उन विषयो को भली-भाति जानना चाहिए । किन्तु तत्त्व ज्ञान तत्त्व विद्या से जन-सामान्य को क्या लाभ हो सकता है ? तत्त्व उनके लिए है जो आत्मापरमात्मा तथा जीवन और जगत् के सूक्ष्म रहस्यो को जानना चाहे । घरगृहस्थी का सचालन तत्त्व-ज्ञान से नही होता । बात सही है, पर हम हमारे वास्तविक जीवन मे क्या होना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, इससे पहले हमारी दृष्टि का निर्धारण - परिमार्जन आवश्यक है । तत्त्व-विद्या हमारे सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करती है । सम्यक् दृष्टिकोण ही हमारे आचारव्यवहार की बुनियाद है ।
आचार- दर्शन आदर्श मूलक विज्ञान है । वह जब नैतिक जीवन का आदर्श निर्धारित करने और परम ध्येय के साथ उसका सबध स्थापित करने का प्रयत्न करता है, तब वह तत्त्व-चर्चा का विषय बन जाता है ।
तत्त्व - मीमासा सत् के स्वरूप पर विचार करती है। जबकि आचारदर्शन जीवन-व्यवहार मे मूल्यो का निर्धारण करता है । विचार के ये दोनो क्षेत्र एक दूसरे के बहुत निकट हैं । जब हम किसी एक क्षेत्र मे गहराई से प्रवेश करते हैं तो दूसरे की सीमा का अतिक्रमण कर उसमे भी प्रविष्ट होना पडता है ।
मैकेंजी का कथन है कि जब हम यह पूछते हैं कि मानव-जीवन का मूल्य क्या है ? तब हमे यह भी पूछना पडता है कि मानव-व्यक्तित्व का तात्त्विक स्वरूप क्या है ? वास्तविक जगत् में उसका क्या स्थान है ? इन
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ज्ञान है आलोक अगम का
सब प्रश्नों का समाधान तत्त्व-मीमासा के ठोस धरातल से ही उपलब्ध हो सकता है।
आचार-दर्शन और तत्त्व-मीमासा के पारस्परिक सबध को स्पष्ट करते हुए डॉ० राधाकृष्णन लिखते हैं कि-"कोई भी आचार शास्त्र तत्त्व-दर्शन पर या चरम-सत्य के एक दार्शनिक सिद्धात पर अवश्य आश्रित होता है । चरम सत्य के सबध मे हमारी जैसी अवधारणा होती है, उसके अनुरूप ही हमारा आचरण होता है । दर्शन और आचरण साथ-साथ चलते हैं।
वास्तव मे जब तक तत्त्व के स्वरूप या जीवन के आदर्श का बोध नही हो जाता, तब तक आचरण का मूल्याकन भी सभव नहीं। क्योकि यह मूल्याकन तो व्यवहार या सकल्प के नैतिक आदर्श के सदर्भ मे ही किया जा सकता है । यही एक ऐसा बिंदु है, जहा तत्त्व-मीमासा और आचार-दर्शन मिलते हैं । अत दोनो को एक-दूसरे से अलग नही किया जा सकता।
मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं(१) ज्ञानात्मक (२) अनुभूत्यात्मक (३) क्रियात्मक । अत दार्शनिक अध्ययन के भी तीन विभाग हो जाते हैं(१) तत्त्व-दर्शन (२) धर्म-दर्शन (३) आचार-दर्शन ।
इन तीनो की विषय-वस्तु भिन्न नही है । मात्र अध्ययन के पक्षो की भिन्नता है । जब व्यक्ति किसी ध्येय की पूर्ति के लिए विशिष्ट प्रकार का प्रयत्न करता है, तब लक्ष्य के स्वरूप, उसकी क्रियाशीलता और कार्य-पद्धति इन सब पक्षो पर समग्रता से विचार किया जाता है। इसलिए ये तीनो जुडे
जीवन के विभिन्न पक्ष होते हुए भी एक सीमा के बाद तत्त्व-दर्शन, धर्म-दर्शन और आचार-दर्शन तीनो एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाते हैं । क्योंकि जीवन और जगत् एक ऐसी सगति है, जिसमे सभी तथ्य इतने सापेक्ष हैं कि उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता।
__लगभग सभी भारतीय दर्शनो की यह प्रकृति रही है कि आचारशास्त्र को तत्त्व या दर्शन से पृथक् नही करते । जैन, बौद्ध, वेदान्त, गीता आदि दर्शनो मे कही भी तत्त्व और जीवन-व्यवहार मे विभाजक रेखा नही मिलती।
जैन विचारको ने तत्त्व, दर्शन और आचार-जीवन के इन तीनो पक्षो को अलग-अलग देखा अवश्य है, पर इन्हे अलग किया नहीं। ये सभी आपस में इतने घुले-मिले हुए हैं कि इन्हे एक दूसरे से अलग करना सभव भी नहीं है। आचार-मीमासा को धर्म-मीमासा और तत्त्व-मीमासा से न अलग किया जा सकता है और न उनसे अलग कर उसे समझा जा सकता
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जैनधर्म : जीवन और जगत् उमास्वाति के इस मूल्यवान सूत्र से यही ध्वनित होता है
"सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष-मार्गः।" (तत्त्वार्थसूत्र ११)
सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इन तीनो का समन्वित रूप ही मोक्ष-मार्ग है । एक मे मोक्ष मार्ग बनने की क्षमता नही है। तीनो मिलकर ही मोक्ष के हेतु हो सकते हैं। कितना घनिष्ट सवध है तीनो का । यहा सम्यग-दर्शन, ज्ञान और चारित्र क्रमश धर्म-श्रद्धा तत्त्व ज्ञान और आचरण के ही प्रतीक हैं । जहा मैके जी आदि पश्चिमी विचारक नैतिक जीवन मे आचार पक्ष को ही सम्मिलित करते हैं, वहा जैन विचारक उक्त तीनो पक्षो की अनिवार्यता मानते हैं। यही कारण है जैन आचार-दर्शन का अध्ययन करते समय तत्त्व-मीमासा और धर्म-मीमासा को उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
जैसा कि हमने जाना आचार का स्रोत ज्ञान नही है। ज्ञान की परिणति आचार है । इसलिए आचार की शुद्धि, व्यवहार का परिष्कार और शुभ सस्कारो के निर्माण हेतु ज्ञान पक्ष की भूमिका को गौण नही किया जा सकता।
यद्यपि वर्तमान युग मे ज्ञान-विज्ञान की मूल्य-प्रतिष्ठा स्वतः सिद्ध है। उसे प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नही है । हम जिस युग मे जी रहे हैं, वह बौद्धिक विकास के उत्कर्ष का युग है। नूतन-पुरातन विद्या-शाखामओ का प्रचार-प्रसार द्रुत गति से हो रहा है। शिक्षा-जगत् मे नित नए प्रयोग हो रहे हैं, जिससे मानव-मस्तिष्क की क्षमताओ के विकास की अनन्त सभावनाए उजागर हो रही हैं । फिर भी लगता है आज शैक्षिक स्तर पर जो कुछ हो रहा है, वह पर्याप्त नही है। वर्तमान का विद्यार्थी मात्र पुस्तकीय ज्ञान मे अटका हुआ है । उसका गतव्य है-विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय । उसका प्राप्तव्य है - ढेर सारी डिग्रिया। यह भी छिपा हुआ नही है कि डिग्रियो की चकाचौध मे कितना अधकार पल रहा है । उपाधियो के भार के नीचे विवेक-चेतना दबी जा रही है ।
___ "बुद्धः फल तत्त्व विचारणा च"- बुद्धि का फल है तत्त्व का अनुचिंतन, तत्त्व की खोज । तत्त्वग्राही बुद्धि व्यक्तित्व-विकास को ठोस धरातल दे सकती है। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली मे तत्त्व-दर्शन उपेक्षित हो रहा है । जीवन-मूल्यो तथा सस्कृति के मौलिक तत्त्व को उपेक्षित कर चलने वाला समाज स्वस्थ और तेजस्वी नही बन सकता, इस दृष्टि ने देश की भावी-पीढी को सस्कारी बनाने के लिए उसे भारतीय धर्मों तथा विभिन्न दर्शनो का ज्ञान कराना आवश्यक है।
जैन-दर्शन शुद्ध अर्थ मे मोक्ष-दर्शन है, अध्यात्म का दर्शन है, फिर भी उसका ज्ञान अत्यन्त वैज्ञानिक है। अपेक्षा है वैज्ञानिक सदर्भो मे उसे
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ज्ञान है आलोक अगम का प्रस्तुत किया जाए। इसके लिए जरूरी है जैन तत्त्व-विद्या को आधुनिक शिक्षा-पद्धति के साथ जोडकर उसे समग्रता प्रदान की जाए। जन शिक्षापद्धति की सर्वांगीणता है -ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा। आज की भाषा मे यह सैद्धातिक और प्रायोगिक प्रशिक्षण नाम से सुपरिचित है ।
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व मे तेरापथ मे जहां अध्यात्मविज्ञान, मनोविज्ञान, व्यावहारिक-मनोविज्ञान, जीवन-विज्ञान आदि अनेक विद्या शाखाओ का आधुनिक सदर्भो मे अध्ययन हो रहा है, वहा जैन तत्त्वविद्या का भी अध्यवसाय पूर्वक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। सत्त्व-विद्या का प्रक्षिक्षण हमारे शैक्षिक क्रम मे प्रथम सोपान है । क्योकि तत्त्व-दर्शन की नीव पर प्रतिष्ठित जीवन मे अद्भुत चमक होती है। तत्त्वज्ञ व्यक्ति का समग्र व्यवहार अपूर्व ढग का होता है । तत्त्वज्ञ व्यक्तियो मे आध्यात्मिकता, आचारनिष्ठा और जिज्ञासु वृत्ति के रत्नदीप सदा-सर्वदा ज्योतित रहते हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार "विश्व के रहस्यमय अन्तिम तत्त्व को खोजने की दिशा में दर्शन, सिद्धात एव आचार-शास्त्र से भी अधिक मूल्यवान है--मनुष्य का तात्त्विक प्रयत्न । तत्त्व-ज्ञान ही सत्य का प्रतिपादक है । सत्य से अनुप्राणित आचार और व्यवहार ही जीवन को ऊचाइया प्रदान कर सकता है।"
जैसे बत्तख का बच्चा कभी पानी मे नही डूबता, उफनती नदी की क्षुब्ध तरगो पर भी वह तैरता रहता है, वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति का चित्त विपरीत परिस्थितियो मे भी क्षुब्ध नही होता । चरक सहिता मे लिखा है
"लोके विततमात्मानं, लोक चात्मनि पश्यतः ।
परावरदृशः शान्ति निमूला न नश्यति ॥
जो लोक मे आत्मा को और आत्मा मे लोक को व्याप्त देखता है, उस तत्त्वज्ञानी की ज्ञानमूलक शाति कभी भग नही होती। क्योकि ज्ञानी व्यक्ति की मनोनियामिका शक्ति प्रवल होती है, इसलिए वह आवेश और उत्तेजना के वशीभूत होकर अपना सतुलन नही खोता।
जैन-दर्शन न केवल ज्ञानवादी है और न केवल आचारवादी। वह समन्यवादी है । जैन-दृष्टि मे ज्ञान और आचार दोनो का समान महत्त्व है । वह मानता है आचार-शून्य ज्ञान जहा पत्र-पुष्प-शून्य वृक्ष है, वहा ज्ञान शून्य आचार जड रहित वृक्ष है। फिर भी महंतवाणी का घोष "पढम नाण तो दया" इस ओर सकेत करता है कि ज्ञान के द्वारा ही हम हित मे प्रवृत्त होते हैं, अहित से निवृत्त होते हैं और किसी भी परिस्थिति मे मध्यस्थ रहने की क्षमता अजित करते हैं। निश्चय दृष्टि से कहा जाए तो तत्त्व ज्ञान ही अगम का आलोक पथ है।
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
जैसे धागे मे पिरोई हुई सुई कही गिर भी जाए तो भी गुम नही होती, आसानी से मिल जाती है, वैसे ही तत्त्व-विद्या-सम्पन्न व्यक्ति अपने पथ से, अपने लक्ष्य से कभी भटकता नहीं। कदाचित् भ्रमित हो भी जाए तो तत्त्व-ज्ञान के सहारे पुन सही रास्ते पर आ जाता है। अपने आचार और व्यवहार को परिष्कृत करता रहता है। इस दृष्टि से व्यावहारिक जीवन मे भी तत्त्व-विद्या का मूल्य कम नही हो सकता ।
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जैन धर्म : एक परिचय
धर्म आत्मा में जाने का प्रवेश-द्वार है। आत्मा का स्पर्श तब होता है, जब वीतराग-चेतना जागती है । राग-चेतना और द्वेष-चेतना की समाप्ति का क्षण ही वीतराग-चेतना के प्रस्फुटन का क्षण है। जैन-धर्म की सारी साधना वीतराग की परिक्रमा है।
"जैन" शब्द का मूल "जिन" है। "जिन" का अर्थ है जीतने वाला या ज्ञानी । अत अपने आपको जीतने वालो का धर्म जैन धर्म है। अपने आपको जानने वालो का धर्म जैन-धर्म है। जैन-धर्म के प्रणेता और प्रारम्भ
जैन-धर्म के प्रणेता जिन कहलाते हैं। जिन होते हैं—आत्म-विजेता, राग-विजेता, दोष-विजेता और मोह-विजेता । जैन परम्परा मे "जिन" शब्द की अतिरिक्त प्रतिष्ठा है । हो सकता है प्राचीनकाल मे यह "चिन" शब्द से जाना जाता रहा हो । प्राकृत भाषा मे "च" का "ज" हो जाता है। इसलिए यहा भी सभावना की जाती है कि "जिन" का मूल रूप "चिन" है। इस दृष्टि से "जिन" शब्द को दो अर्थों का सवाहक माना जा सकता है । जिन-ज्ञानी और जिन-विजेता। आवश्यक मे ज्ञाता और ज्ञापक रूप मेअहंतो की स्तुति की गई है।
जिन का एक अर्थ है-प्रत्यक्षज्ञानी, मतीन्द्रियज्ञानी । वे तीन प्रकार के होते हैं-१ अवधि ज्ञान जिन, २ मन पर्यवज्ञान जिन और ३ केवलज्ञान जिन। इससे भी जिन का अर्थ ज्ञाता ही सिद्ध होता है।
जैन-धर्म के प्रणेता सर्वज्ञ और वीतराग होते हैं। वे प्रकाश, शक्ति और आनन्द के अक्षय स्रोत होते हैं। उनकी आतरिक शक्तिया--अर्हताए समग्रता से उद्भाषित हो जाती हैं, इसलिए वे अर्हत कहलाते हैं।
__ चैतन्य की अखड लौ को मावृत्त करने वाले तत्त्व हैं-मूर्छा और अज्ञान । जिसकी आतरिक मूर्छा का वलय टूट जाता है, उसके ज्ञान का आवरण भी क्षीण हो जाता है । ज्ञान की अखड ज्योति प्रज्ज्वलित होते ही व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। वह सत्य को उसकी परिपूर्णता मे १. आवश्यकसूत्र, सक्कत्युई "जिणाणजावयाण ।" २ ठाण ३१५१२ तओ जिणा पण्णत्ता, त जहा-ओहिणाणजिणे,
मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे ।
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
जानने-देखने लगता है । "जिन" सर्वज्ञ होते हैं। केवली होते हैं । वे वस्तुजगत के प्रति प्रियता-अप्रियता की सवेदना-रहित, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा भाव मे अवस्थित रहते हैं।
___ सर्वज्ञ को अनतचक्षु कहा गया है। उनकी निर्मल ज्ञान-चेतना में अनन्त धर्मात्मक वस्तु समग्रता से प्रतिबिम्बित होती है। इसलिए वे सत्यद्रष्टा और सत्य के प्रतिपादक होते हैं। वे जन-कल्याण हेतु प्रवचन करते हैं । उनके प्रवचन का उद्देश्य होता है--
• प्रकाश का अवतरण ० बन्धन-मुक्ति ० आनन्द की उपलब्धि ।
जैन-धर्म बहुत प्राचीन है, वह वेदो की तरह अपौरुषेय या अन्याकृत नहीं है।
वह वीतराग-सर्वज्ञ-पुरुषो द्वारा प्रणीत है।। इस युग के आदि धर्म-प्रवर्तक थे- भगवान् श्री ऋषभदेव ।
ऋषभदेव का काल-निर्णय आज की संख्या मे नहीं किया जा सकता। वे बहत प्राचीन हैं। वे युग-प्रवर्तक थे, मानवीय सभ्यता के पूरस्कर्ता थे। वे इस युग के प्रथम राजा बने । लम्बे समय तक राज्य-तत्र का सचालन कर उन्होने राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओ का सूत्रपात किया। वे मुनि बने । दीर्घकालीन साधना की। घोर तप तपा। कैवल्य को उपलब्ध हुए। सर्वज्ञ-मर्वदर्शी बने । धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। धर्म-तीर्थ की स्थापना कर तीर्थकर कहलाए । ऋपभ इस युग के प्रथम तीर्थंकर थे और श्रमण भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थकर । जन-धर्म के वाईस तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल मे हुए । पाश्र्व और महावीर ऐतिहासिक पुरुष हैं । तीर्थंकर वह होता है जो स्वय प्रकाशित होकर प्रकाश-पथ का निर्माण करता है । वह स्वतत्र चेतना का स्वामी होता है । अत किसी दूसरे का अनुगमन या अनुकरण नही करता। इसीलिए प्रत्येक तीर्थकर अपने युग के आदिकर्ता होते हैं। युग-प्रणेता होते हैं । अत देश और काल की सीमाओ से परे रहकर यह कहा जा सकता है कि जैन-धर्म के प्रणेता तीर्थकर होते हैं। वे जिन, वीतराग, अर्हत्, सर्वज्ञ आदि स्पो मे वदित-अभिनदित होते हैं। भगवान महावीर इस युग के अतिम तीयंकर थे, अत वर्तमान को जैन परम्परा का भगवान महावीर से गहरा मम्बन्ध है।
? सूयगडा, ६६ । २ आवश्यक सूय १३ निग्गथ-पावयणे थिरीकरण सुत्त – उसभाइ
महावीर पज्जवमाणाण ।
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जापन - 17
नामकरण
जैन-धर्म के विभिन्न गुणो मे विभिन्न नाम रहे हैं। इसके प्राचीन नाम हैं --निर्गन्थ प्रवचन, अहंत धर्म, समता धर्म और श्रमण धर्म । अर्वाचीन नाम है-जिनशासन या जैनधर्म । इनमे भी बहुप्रचलित और बहुपरिचित नाम जैन-धर्म ही है। जैन-धर्म नाम भगवान महावीर के बाद मे ही प्रचलित हुआ ऐसा उत्तरवर्ती साहित्य के आधार पर सिद्ध होता
जैन कौन ?
जिन प्रवचन ही जैन-धर्म का मूल आधार है । जिन वाणी पर आस्था रखने वाला तथा उन शिक्षा-पदो का आचरण करने वाला समाज जैन समाज कहलाता है । जैसे बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म बौद्ध धर्म, ईसा द्वारा उपदिष्ट धर्म ईसाई धर्म कहलाता है, वैसे ही "जिन" या अर्हत् द्वारा प्रवर्तित धर्म जैन-धर्म अथवा आर्हत् धर्म कहलाता है। जैसे शिव और विष्णु को इष्ट मानकर चलने वाले शैव और वैष्णव कहलाते हैं, वैसे ही अहंत या जिन को इष्ट मानकर चलने वाले जैन कहलाते हैं । सार्वभौम धर्म
यहा एक वात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जैसे बुद्ध, ईसा, शिव या विष्णु व्यक्तित्व-वाचक नाम हैं, वैसे जिन या अहंत् शब्द व्यक्ति विशेष के वाचक नहीं हैं । जैनधर्म मे व्यक्ति-पूजा का कोई स्थान नहीं है । वह व्यक्ति की अर्हताओ को, योग्यताओ को मान्यकर, उसकी पूजा-प्रतिष्ठा में विश्वास रखता है।
जिसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र और शक्ति के आवारक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, चैतन्य का परम स्वरूप प्रकट हो जाता है, वह कोई भी व्यक्ति अर्हत् की श्रेणी में आ सकता है ।
जन-धर्म सिर्फ सप्रदाय और परम्परा ही नहीं, बल्कि अपने आपको जीतने और जानने वालो का धर्म है। इसका प्रमाण है-जन-धर्म का नमस्कार महामत्र और चतु शरण सूत्र । नमस्कार महामत्र
णमो अरहताण-मैं अर्हतों को नमस्कार करता हूँ। णमो सिद्धाण-मैं सिद्धो को नमस्कार करता है । णमो आयरियाण-मैं आचार्यों को नमस्कार करता है। णमो उवज्झायाण-मैं उपाध्यायों को नमस्कार करता है। णमो लोए सव्वसाहूण-मैं लोक के सव सतो को नमस्कार करता
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जैनधर्म जीवन और जगत्
इस नमस्कार महामत्र मे किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया । अहंत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये साधना की दिशा मे प्रस्थित साधको की उत्तरोत्तर विकसित अवस्थाए अथवा सिद्धि प्राप्त आत्माओ की भूमिकाए हैं। इन भूमिकाओ पर जो भी आरोहण करता है, वह वदनीय हो जाता है, नमस्य हो जाता है । नमस्कार महामत्र के माध्यम से हम अर्हता, सिद्धता, आचार-सम्पन्नता, ज्ञान-सम्पन्नता और साधुता को वदना करते हैं।
इससे ज्ञात होता है, जैन-धर्म व्यापक और उदार दृष्टि वाला धर्म है । वह जाति, वर्ण, वर्ग आदि की सकीर्णताओ से सर्वथा मुक्त सार्वभौम धर्म है । यद्यपि जैन-धर्म वर्तमान में मुख्यत वैश्य वर्ग से जुडा हुआ है, पर प्राचीन समय मे सभी वर्गों और जातियो के लोग जैन-धर्म के अनुयायी थे । भगवान् महावीर क्षत्रिय थे, उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति आदि ब्राह्मण थे । शालिभद्र, धन्ना आदि अणगार वैश्य थे। उनका प्रमुख श्रावक आनन्द किसान था । तपस्वी हरिकेशबल चण्डाल कुल मे उत्पन्न थे। आज भी दक्षिण भारत मे महाराष्ट्र आदि कई राज्यो मे कृषिकार, कुभकार आदि जैन है। आचार्य विनोबा भावे के शब्दो मे जैन-धर्म की निजी विशेषताए हैं---
० चिंतन मे अनाक्रामक, ० आचरण मे सहिष्णु और ० प्रचार-प्रसार में सयमित । काका कालेलकर ने कहा-"जैन-धर्म मे विश्वधर्म बनने की क्षमता
जैनधर्म-दर्शन को मौलिक अवधारणाएं
जैन-दर्शन विश्व के सभी दर्शनो मे विलक्षण है। क्योकि इसकी अवधारणाए मौलिक हैं । वैसे सभी धर्मों और दर्शनो मे कतिपय विलक्षणताए होती हैं, पर जैन-दर्शन कुछ ऐसी अतिरिक्त विलक्षणताए अपने मे समेटे हुए है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । इस एक पद्य के आधार पर हमे जैन-दर्शन के सम्बन्ध मे पर्याप्त जानकारी मिल सकती है
आदर्शोऽत्र जिनेन्द्र आप्तपुरुष रत्नत्रयाराधना। स्याद्वाद. समयः समन्वयमयः सृष्टिर्मता शाश्वती॥ फर्तृत्वं सुखदु खयो स्वनिहित धौव्य व्ययोत्पत्तिमत् । एका मानव जातिरित्युपगमोऽसौ जैन-धर्मो महान् ।
(गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलमी) जन-धर्म महान् है । उसमे आदर्श है-आप्त पुरुष, उसका साधनापय है-रत्नत्रयो की आराधना, सिद्धात है --समन्वय प्रधान अनेकान्तवाद ।
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जैनधर्म एक परिचय
अन्य दार्शनिक मान्यताए हैं- सृष्टि शाश्वत है, सुख और दुःख का कर्ता व्यक्ति स्वय है, प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त है तथा मनुष्प-जाति एक है।
जैन-धर्म के मुख्य सिद्धान्त ये हैं--- ० आत्मा है। • उसका पूर्वजन्म एव पुनर्जन्म है । ० वह कर्म की कर्ता है। ० कृत कर्म की भोक्ता है। ० बन्धन है और उसके हेतु हैं । ० मोक्ष है और उसके हेतु हैं। उक्त दार्शनिक विन्दुओ पर विस्तृत चर्चा अपेक्षित है।
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त्रिपदी : अस्तित्व के तीन आयाम
इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-किं तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा - "उप्पन्ने इ वा"-उत्पाद तत्त्व है। गौतम की समस्या सुलझी नही । उन्होने दूसरी बार पूछा-किं तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा- “विगमेइवा'- विनाश तत्त्व है। गौतम की जिज्ञासा शात नही हुई । उन्होने तीसरी बार वही प्रश्न किया-कि तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा - गौतम । धुवे इ वा-ध्रुव तत्त्व है।
यहा तत्त्व का अर्थ है-~-पारमार्थिक वस्तु ।' इसके लिए 'सत्' शब्द का भी प्रयोग होता है । जितने भी अस्तित्त्ववान् पदार्थ हैं, वे सब सत् हैं, तत्त्व हैं, वास्तविक पदार्थ हैं । इनमे जड और चेतन दोनो का समावेश हो जाता है।
__ पदार्थ के सम्बन्ध मे सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं । कुछ दार्शनिक पदार्थ को नित्य-स्थायी मानते हैं और कुछ दार्शनिक उसे अनित्य-- परिवर्तनशील मानते हैं । जैन-दर्शन पदार्थ को स्थायी भी मानता है और परिवर्तनशील भी मानता है।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-यह जैन-दर्शन की त्रिपदी है। जैसे विष्णु ने वामनावतार मे तीन चरणो से समग्र ब्रह्माण्ड को नाप लिया था, वैसे ही अमाप्य मेधा के धनी इन्द्रभूति गौतम ने तीन प्रश्नो के माध्यम से सपूर्ण श्रुतज्ञान या आईत्-दर्शन को आत्मसात् कर लिया। इसी त्रिपदी के आधार पर उन्होने द्वादशागी की रचना की। उनकी ज्ञान-चेतना मे यह स्पष्ट प्रतिबिंबित हो गया कि केवल उत्पाद विनाश या ध्रौव्य वास्तविक नही है। तीनो का सापेक्ष योग ही यथार्थ है।
द्रव्य मे दो प्रकार के धर्म होते हैं-सहभावी (गुण) और क्रमभावी (पर्याय) । बौद्ध सत् द्रव्य को एकात अनित्य मानते हैं तो वेदाती सत्पदार्थब्रह्म को एकात नित्य मानते हैं । पहला परिवर्तनवाद है तो दूसरा नित्य
१ जैन सिद्धात दीपिका २/१ (आचार्य श्री तुलसी) तत्त्व पारमा
थिक वस्तु । २ जैन तत्त्व विद्या ४/१ (आचार्य श्री तुलसी)
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त्रिपदी अस्तित्व के तीन मायाम
सत्तावाद । जैन-दर्शन दोनो का समन्वय कर "परिणामी-नित्यवाद" की स्थापना करता है।
उसके अनुसार सत् वह है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण से युक्त
सत् उसे कहते हैं, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण से युक्त हो। यह है जैन-दर्शन का परिणामी नित्यत्ववाद । इसका तात्पर्य है-वस्तु अपने अस्तित्व रूप मे सदा कायम रहती है। कभी भी उसका अस्तित्व समाप्त नही होता, किंतु उत्पाद और विनाश के रूप मे उसका रूपातरण होता रहता है। इसे जैन-दर्शन पर्याय-परिवर्तन कहता है । जैसे दूध से दही बनता है। इस प्रक्रिया मे दूध नष्ट हो जाता है, दही अस्तित्व मे आ जाता है, यह पर्याय है । पर दूध और दही-ये दोनो गोरस हैं । गोरसत्व मे कोई अतर नहीं है, यह अन्वयी धर्म ध्रौव्य है।' लोक शाश्वत भी अशाश्वत भी
गौतम ने पूछा-भते । लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? भगवान् ने कहा-लोक द्रव्य से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है, परिवर्तनशील है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ के शब्दों मे
परिणामिनि विश्वेऽस्मिन् अनादि निधने ध्रुवम् । सर्वे विपरिवर्तन्ते, चेतना अप्यचेतना ॥
-सबोघि १५/३१ यह विश्व अनादि-निधन है, ध्रुव है, फिर भी परिणामी है। इसमे चेतन और अचेतन सभी पदार्थ विविध रूपो में परिवर्तित होते रहते हैं। "उत्पादव्ययधर्माणो, भावा ध्रौव्यान्विता अपि ।" प्रत्येक पदार्थ ध्रौव्य-- युक्त होते हुए भी उत्पाद और व्यय-धर्मा है।
जैसे विश्व ध्रव है, वैसे ही द्रव्य की दृष्टि से जड चेतन प्रत्येक पदार्थ ध्रुव है, नियत है । ये ससार मे जितने हैं, उतने ही रहेगे । ससार मे न एक जीव घटता है, न एक जीव बढ़ता है, भौतिक जगत् मे न एक अणु कम होता है, न एक अणु अधिक होता है और न कभी जीव अजीव वनता है।
नक्षीयन्ते न वर्धन्ते सति जीवा अवस्थिताः । मजीवो जीवता नंति न जीवो यात्यजीवताम् ।।
~सबोधि १२/६० १ जैन-दर्शन मनन और मीमासा, पृ० १८६ । २ श्री भिक्षु न्याय कणिका-उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक सत् । ३ उत्पन्नदधि भावेन, नष्ट दुग्धतया पय ।
गोरसत्वात् स्थिर जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपि ।।
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जैनधर्म : जीवन और जगत् ध्रौव्य पदार्थ का सहभावी गुण है । उत्पाद और विनाश उसकी क्रमभावी अवस्थाए हैं, जो पर्याय कहलाती हैं। विश्व का कोई भी पदार्थ इस त्रयी का अपवाद नहीं है । इसे द्रव्य का घटक तत्त्व कहे तो कोई आपत्ति नहीं होगी। पदार्थ की अपने स्वरूप में अवस्थिति ध्रौव्य है और उसमे जो सतत परिवर्तन की धारा चालू है, वह पर्याय है । द्रव्य गुण और पर्याय--- दोनो का समवाय है। जीव-जगत और त्रिपदी
___ लोक मे जीव अनन्त हैं । ससारी जीव भी अनन्त हैं और मुक्त आत्माए भी अनन्त हैं । कर्मवद्ध जीव ससारी हैं । कर्मावरण को क्षीण कर जो ससारी जीव मुक्त हो जाते हैं वे सिद्ध कहलाते हैं। ये आत्मा की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था-जनित भेद है, पर जीवत्व दोनो स्थितियो मे समान
अनन्त जीवो के मुक्त हो जाने पर भी ससार जीव-शून्य नहीं होता। इसका कारण यह है कि जीव दो प्रकार के हैं -अव्यवहार राशि और व्यवहार राशि । अव्यवहार राशि सूक्ष्मतम वनस्पति जगत् है । उसे निगोद भी कहते हैं । निगोद जीवो का अक्षय कोष है । वह अव्यवहार राशि है। स्थूल-जगत् या व्यवहार राशि से जैसे-जैसे जीवात्माए मुक्त होती हैं, वैसेवैसे अव्यवहार राशि से उतने ही जीव व्यवहार राशि में आ जाते हैं। इसलिए अनन्त जीवो की मुक्ति हो जाने पर भी ससार जीव-शून्य नही होता । निगोद के जीवो का कभी अन्त नहीं आता। उनके एक शरीर मे अनन्त जीव रहते हैं। शरीर भी इतना सूक्ष्म जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती। आधुनिक विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर मे आलपिन की नोक टिके उतने भाग मे दस लाख कोशिकाए हैं । यह स्थूल-जगत् की बात है। निगोद-सूक्ष्म जगत् है । वहा एक शरीर मे अनन्त जीवो का होना असभव नही है । तात्पर्य की भाषा मे अनन्त-अनन्त जीवों से भरे इस ससार मे कभी जीवो का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इस दृष्टि से जीव जगत् ध्रव है। शाश्वत है । जीव प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं - इस अपेक्षा से वह अनित्य है। परिवर्तनशील है।
जैसे पुराने कपडे के फट जाने पर नया कपडा धारण किया जाता है, वैसे ही ससारी आत्माए पूर्व देह का त्याग कर नये शरीर का निर्माण करती हैं । जन्म-जन्मान्तर की यात्रा मे वे नाना योनियो मे परिभ्रमण करती हैं, नाना गतियो का अनुभव करती हैं । नरक, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव रूप मे उत्पन्न हो उन-उन अवस्थाओ का सवेदन करती है । परिवर्तन का चक्र अविराम घूमता रहता है फिर भी उसके ध्रुव तत्त्व-चैतन्य की अमिट
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त्रिपदी अस्तित्व के तीन आयाम
लौ सदा प्रज्वलित रहती है। वह कभी नहीं बुझती ।
वचपन, जवानी और बुढापा ये जीवन-यात्रा के अनिवार्य घुमाव हैं। यह परिवर्तन हमारे अनुभव के दर्पण मे स्पष्ट प्रतिबिम्बित है । यदि कोई मूविंग केमरे मे व्यक्ति की क्षण-क्षण मे बदलने वाली अवस्थाओ को कैद करना चाहे तो करने वाला थक जाएगा किंतु अवस्थाओ का कोई अन्त नहीं आएगा । यह स्थूल शरीर के परिवर्तन का चित्र है।
इसके अतिरिक्त हमारे सूक्ष्म शरीर मे कितने रासायनिक परिवर्तन होते हैं, कितने विद्युतीय परिवर्तन होते हैं, कितने भावनात्मक और आध्यात्मिक परिवर्तन होते हैं, जिनका लेखा-जोखा नही लगाया जा सकता।
___शरीर शास्त्रीय खोजो ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक सात वर्ष की अवधि मे मनुष्य-शरीर आमूल-चूल बदल जाता है, उसकी प्रत्येक कोशिका बदल जाती है । इस क्रम मे सत्तर वर्ष मे आदमी का शरीर दस बार वदल जाता है। शरीर मे दस लाख रक्त कोशिकाए प्रतिक्षण उत्पन्न-विनष्ट होती रहती हैं । तथापि प्रतिक्षण घटित होने वाले परिवर्तन मे भी एक ऐसा अपरिवर्तनीय ध्रुव तत्त्व है, जो हमे प्रतीत कराता है कि यह वस्तु वही है, यह शरीर वही है, यह व्यक्ति वही है । यही है वस्तु का त्रिआयामी अस्तित्व । यही है बदलाव में भी ठहराव । यही है जमाव मे भी बहाव । यही है परिवर्तन-शीलता मे भी ध्रुवता। परिवर्तन में भी जीवन घारा वही है । पर्यायें क्षणभगुर हैं । चेतना अविनाशी है।
जैसे चेतन कभी अचेतन नही होता, वैसे ही अचेतन मे कभी चैतन्यगुण प्रकट नही होता । पुद्गल-जड तत्त्व चाहे कितना ही रूपातरित हो जाए उसकी मौलिकता कभी समाप्त नहीं होती। पुद्गल की मौलिकता हैस्पर्श, रस, गध और रूप । अणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक प्रत्येक पुद्गल मे इनकी सत्ता वरावर है । मिट्टी चाहे सोना बन जाए, शरीर चाहे जल कर राख हो जाए, गोबर चाहे गैस बन जाए, पानी चाहे भाप बनकर शून्य मे विलीन हो जाए, फिर भी उसका पुद्गलत्व समाप्त नही होता। यह मौलिकता एक सचाई है तो परिवर्तन भी सचाई है। कोई भी जड-पदार्थ परिवर्तन के नियम का अपवाद नही है ।
मिट्टी के अनेक आकार-प्रकार बनते-बिगडते रहते हैं । पर मिट्टी तत्त्व सब मे समान है। सोने की अनेक अवस्थाए हैं, अनेक वस्तुए हैं, पुरानी वस्तु मिटती हैं, नयी बनती हैं, पर सोना सोना है। उसका अस्तित्व सव मे एक जैसा है।
तीन भाई हैं, उनके पास एक स्वर्ण-कलश है। एक को वह प्रिय है, दूसरा उसे मिटाकर मुकुट बनाना चाहता है । तीसरे को सोने से मतलव है,
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
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वह चाहे किसी रूप मे रहे । कालातर मे घडे का मुकुट बना लिया जाता है । पहला व्यक्ति खिन्न होता है और दूसरा प्रसन्न । तीसरा न खिन्न न प्रसन्न । उसे सोना चाहिए था वह सुरक्षित है । स्वर्ण धीव्य है, घडा मोर मुकुट उसकी पूर्व - उत्तर अवस्थाए हैं ।
त्रिपदी के संबध मे विस्तार से जान लेने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व में ऐसी कोई भी वस्तु नही है, जो केवल उत्पन्न ही होती है । या केवल विनष्ट ही होती है अथवा कूटस्थ नित्य ही है। सत् त्रयात्मक है । उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य ये तीनो वस्तु के अपरिहार्य अग हैं ।
उत्पाद - नयी-नयी अवस्थाओं का प्रादुर्भाव 1 विनाश - पूर्व - पूर्व अवस्थाओ का परित्याग ।
ध्रौव्य --- उत्पाद और विनाश के होते हुए भी वस्तु का अन्वयी गुण धर्म | जैन दर्शन मे इस त्रिपदी को मातृपदिका भी कहते हैं ।
द्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ ध्रुव है । कोई भी पदार्थ न तो नये सिरे से उत्पन्न होता है और न अपना अस्तित्व खोकर शून्य मे विलीन होता है । मात्र उसका परिणमन होता रहता है |
जैन- दर्शन का यह परिणामी नित्यत्ववाद आधुनिक विज्ञान से भी पुष्ट हो रहा है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक लेवाईजर लिखते हैं- "किसी भी क्रिया से कुछ भी नया उत्पन्न नही किया जा सकता और किसी भी क्रिया के पहले और पीछे वस्तु की मूल मात्रा मे कोई अंतर नही आता । क्रिया से केवल पदार्थ का रूप परिवर्तित होता है ।
वैज्ञानिक डेमोक्राइटस भी तथ्य को प्रकट करते हैं - विज्ञान के शक्ति-स्थिति, वस्तु अविनाशित्वा, शक्ति को परिवर्तनशीलता आदि सिद्धातो से यह धारणा मजबूत होती है कि नाशवान् पदार्थ मे भी ध्रुवत्व है अर्थात् असत् की उत्पत्ति नही होती और सत् का विनाश नही होता ।
त्रिपदी का यथार्थ बोध वस्तुगत सच्चाइयो का उद्घाटन करता है । आंतरिक मूर्च्छा के वलय को तोडता है । सम्यक् दृष्टिकोग का निर्माण करता है । दृष्टि सम्पन्नता ही सत्य शोध का आदि बिंदु है ।
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जैनदर्शन में तत्त्ववाद
विश्व मच पर जितने दार्शनिक विचार उभरे, उन सबकी भिन्नभिन्न परम्पराए हैं, स्वतत्र मान्यताए हैं । तत्त्ववाद भी सबका अपना-अपना है। उनमे एक है जैन-दर्शन । यह भारतीय दर्शनो की एक मुख्य धारा है । उसकी परम्परा स्वतत्र है । तत्त्व-मीमासा मौलिक है।
___ तत्त्व का सामान्य अर्थ है-वास्तविक या अस्तित्ववान् पदार्थ । रहस्यभूत पदार्थ को भी तत्त्व कहते हैं । चैतन्य का विकास या मोक्ष-मीमासा के परिप्रेक्ष्य में तत्त्व का अर्थ है-पारमार्थिक वस्तु । चैतन्य जागरण और परम सत्ता की उपलब्धि हेतु इन नत्त्वो का सम्यग् बोध अपेक्षित है । जैन-दर्शन के अनुसार मुख्य रूप से तत्त्व दो हैं--जीव और अजीव । ससार के दृश्यअदृश्य, सूक्ष्म-स्थूल, मूर्त-अमूर्त, जड-चेतन-सभी पदार्थों का समावेश इन दो तत्त्वो मे हो जाता है। ऐसा कोई भी पदार्थ नही बचता, जिसका अन्तर्भाव इस तत्त्वद्वयी मे न हो। ससार के समस्त पदार्थों को कम से कम समूहो मे वर्गीकृत किया जाए तो उनकी दो राशिया होती हैं - १ जीव-राशि
२ अजीव राशि। इन दोनो का विस्तार से विश्लेषण किया जाए तो अनेकानेक भेद हो सकते हैं।
जैन-दर्शन मे तत्त्व-प्रतिपादन की दो दृष्टिया रही हैं - जागतिक और आत्मिक । जागतिक रहस्यो के उद्घाटन हेतु छ द्रव्यो का सूक्ष्मविश्लेषण जैन-दर्शन की अदभत देन है। आध्यात्मिक-विकास के अनुचितन मे दो दृष्टिया प्रमुख हैं-वन्धन और बन्धन के हेतु तथा मोक्ष और मोक्ष के हेतु । इस समूची प्रक्रिया का बोध एक अध्यात्म-साधक के लिए नितात अपेक्षित है । नौ तत्त्वो का प्रतिपादन इसी दिशा का एक स्वस्थ उपक्रम है। पट् द्रव्य और नव तत्त्व के प्रतिपादन को दर्शन-जगत् मे अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद भी कहा जाता है। जो ज्ञेय पदार्थ मोक्ष-साधना मे उपयोगी हैं, जैन-दर्शन की भाषा मे वे तत्त्व कहलाते हैं।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, मास्रव, सदर, निर्जरा, वन्ध और मोक्षये तो तत्त्व है।
___ जीव-चैतन्य का मजन प्रवाह । दूसरे शब्दो मे जिसमे चैतन्य हो, सुख-दुख का संवेदन हो वह जीव है ।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
अजीव-चैतन्य का प्रतिपक्षी जह-तत्त्व अजीव है। पुण्य-शुभरूप मे उदय मे आने वाले कर्म-पुद्गल पुण्य है । पाप-अशुभरूप मे उदय मे आने वाले कर्म-पुद्गल पाप है ।
आस्रव-पुण्य-पाप रूप कर्म ग्रहण करने वाली आत्म-परिणति आस्रव है।
सवर-आस्रव का निरोध करने वाली आत्म-परिणति सवर है।
निर्जरा-तपस्या आदि के द्वारा कर्म-निर्जरण होने से आत्मा की जो आशिक उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है।
वन्ध- आत्मा के साथ बधे हुए शुभ-अशुभ कर्म-पूद्गलो का नाम वध है।
मोक्ष-कर्म-विमुक्त आत्मा अथवा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित आत्मा ही मोक्ष है।
जैसा कि हमे पहले ही बताया जा चुका है कि वास्तविक तत्त्व दो ही हैं जीव और अजीव । फिर भी मोक्ष-साधना के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किए गए है। इन नौ भेदो मे प्रथम भेद जीव का है और अतिम भेद मोक्ष का । जीव आत्मा की अशुद्ध-अवस्था है और मोक्ष विशुद्ध अवस्था । मध्यगत भेदो मे मोक्ष के साधक और बाधक तत्त्वो का निरूपण
अस्त्यात्मा शाश्वतो, बन्धस्तदुपायश्च विद्यते। अस्ति मोक्षस्तदुपायो, ज्ञेय-दृष्टिरसो भवेत् ॥
- सबोधि १२/४ आत्मा है, वह शाश्वत है, पुनर्भवी है । बन्ध है और उसका हेतु है । मोक्ष है और उसका उपाय है । यह ज्ञेय-दृष्टि है, सम्यक्त्व का आधारभूत तत्त्व है।
वन्ध पुण्य तया पापमानव फर्मकारणम् । भव-वीजमिद सर्व, ज्ञेय दृष्टिरसो भवेत् ।।
~संबोधि १२/५ वध, पुण्य, पाप तथा पांगमन का हेतुभूत आस्रव~ये हेय हैं, क्योकि ये ममार के बीज है । भव-परम्परा के मूल कारण हैं ।
निरोध कर्मणामस्ति, संवरो निर्जरा तया । फर्मणां प्रक्षयश्चपोपादेय-दृष्टिरिष्यते ॥
-सबोधि/१२६ कमों का निरोध करना मवर है और कर्म-क्षय से होने वाली आत्ममुद्धि निजंग है, यह उपादेय दृष्टि है।
साधना का आदि बिंदु है -लक्ष्य का चुनाव और दिशा का निर्धारण
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जैनदर्शन में तत्त्ववाद
उसका दूसरा विदु है-मटकाने वाले तत्त्वो से बचाव और तीसरा विदु हैसही दिशा में जागरूक अभिक्रम ।
अध्यात्म-साधक का परम लक्ष्य है-द्वन्द्व-मुक्ति-मोक्ष । उसके वाधक तत्त्व हैं बघ, पुण्य, पाप और आस्रव । लक्ष्य प्राप्ति के साधक तत्त्व हैं-सवर और निर्जरा।
नौ तत्त्वो में चार तत्त्व अजीव हैं, अजीव की अवस्थाए हैं - अजीव, पुण्य, पाप और वन्ध ।
पाच जीव हैं, जीव की अवस्थाए हैं-जीव, आस्रव । सवर, निर्जरा और मोक्ष।
इन नौ तत्त्वो को नौ पदार्थ या नव सद्भाव पदार्थ भी कहते हैं। नौ तत्त्वो का सम्यक् वोध सम्यक्त्व की आधार-मित्ति है । सम्यक्त्व का अर्थ है-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा । सम्यक् ज्ञान के विना श्रद्धा में स्थायित्व नहीं आता। अत प्रत्येक साधक के लिए कम से कम नी तत्त्वो का ज्ञान करना अनिवार्य है।
दशवकालिक सूत्र में बताया गया है कि तत्त्वज्ञान मोक्ष-यात्रा का प्रथम सोपान है । उसके विना निर्वाण और दुख-मुक्ति सभव नहीं।
जीव और अजीव को जानने से अहिंसा की सही समझ विकसित होती है । उससे आचार-व्यवहार सयत होता है उसका फलित है-मुक्ति । मुक्ति का आरोह-क्रम यह है -
१ जीव-अजीव का ज्ञान । २ जीवो की बहुविध गतियो का ज्ञान । ३ पुण्य, पाप, वध और मोक्ष का ज्ञान । ४ भोग-विरति । ५ तरिफ और वाह्य सयोगो का त्याग । ६ अनगार-वृत्ति । ७ अनुत्तर सवर-योग की प्राप्ति । ८ अयोधि से अजित पाप-कर्मो (कर्म-रजो) का विलय । ९ फेवल-ज्ञान, केवल-दर्शन की उपलब्धि । १० अयोग-अवस्था। ११ सिद्धत्व-प्राप्ति ।
-दावकालिक ब ४/१४ - २५ । नाचार्य श्री भिक्षु ने एक बहुत ही सुन्दर रूपक के माध्यम से नौ तत्त्वो फो नमझाया है -
जीव एक तालाव (जलाशय) के समान है। मजीव तालाब पर अभाव रूप है।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
पुण्य-पाप तालाब का निकलता-बहता पानी है। आस्रव तालाब का नाला है । सवर तालाब के नाले का निराध है । निर्जरा - जल निष्कासन-प्रक्रिया से पानी का निकलना निर्जरा है । बध-तालाब का सचित जल बध है। मोक्ष-खाली तालाब मोक्ष है।
यहा एक बात और विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि यह विश्व सप्रतिपक्ष है । प्रतिपक्ष का सिद्धात सर्वत्र समान रूप से लागू है । क्योकि प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का अस्तित्व असभव है । नौ तत्त्वो मे भी प्रत्येक तत्त्व के साथ उसके प्रतितत्त्व का प्रतिपादन है ।
विश्व मे यदि जीव का अस्तित्व है तो अजीव भी निश्चित है । जीव चेतनावान् पदार्थ है तो अजीव चेतनारहित । जीव दो प्रकार के होते हैंसिद्ध और ससारी । सिद्ध आत्माए जन्म-परम्परा से मुक्त हैं । ससारी आत्माए कर्म-प्रभाव से ससार मे परिभ्रमण करती हैं और सुख-दुख का भोग करती हैं । इसका कारण है-पुण्य-पाप । ये दोनो प्रतिपक्षी हैं । आत्मा की सत् प्रवृत्ति से आकृष्ट पुद्गल-स्कन्ध शुभकर्म या पुण्य कहलाता है, तथा आत्मा की असत् प्रवृत्ति से आकृष्ट पुद्गल-स्कन्ध अशुभ कर्म या पाप कहलाता है।
____ आस्रव का प्रतिपक्षी तत्त्व है सवर । आस्रव चेतना का छिद्र है, जिससे निरन्तर कर्म-रजो का प्रवेश होता रहता है । सवर आस्रव-निरोध की प्रक्रिया है । इससे कर्मों का आगमन रुकता है।
वन्धन के प्रतिपक्षी तत्त्व हैं-निर्जरा और मोक्ष । निर्जरा आत्मा की आशिक उज्ज्वलता है। मोक्ष है-कर्ममलो का पूर्णत विलय । जिस क्षण नया कर्म-बन्धन अवरुद्ध हो जाता है और पूर्वबद्ध कर्म पूर्णत क्षीण हो जाते हैं, वही क्षण मोक्ष का क्षण है ।
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जैन-धर्म में जीव-विज्ञान
(षड्जीव-निकाय)
जन-धर्म अहिंसा-प्रधान धर्म है। अहिंसा का फलित है-मंत्री । सव जीवो के प्रति आत्मत्व बुद्धि का नाम मैत्री है। अहिंसा का अर्थ है सब जीवो के प्रति सयम । अहिंसा और मंत्री के विकास के लिए जीवो के अस्तित्व का वोध, उनके लक्षणो का बोध और उनकी विभिन्न अवस्थाओ का बोध करना आवश्यक है।
जैन आगमों मे जीवो के छह प्रकार बताए गए हैं, जो छ जीवनिकाय के रूप में प्रसिद्ध हैं । जीवो के छह प्रकार ये हैं -
० पृथ्वीकायिक ० अप्कायिक ० तेजस्कायिक ० वायु-कायिक ० वनस्पतिकायिक ० प्रसकायिक ।
काय का अर्थ है--- शरीर । भाति-माति के पुद्गलो से बने शरीरो के आधार पर जीवो का यह वर्गीकरण हुआ है ! उनका वर्णन क्रमश इस प्रकार है -
(१) काठिन्य आदि लक्षणो से जानी जाने वाली पृथ्वी ही जिनका काय-शरीर होता है, उन जीवो को पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक जीव कहते हैं ।
मिट्टी, बालू, नमक, मोना, चादी, अभ्रक, हीरे, पन्ने आदि जितने भो प्रकार के प्रनिज पदार्थ हैं, वे सब पृथ्वीकायिक जीवों के पिंड हैं। मिट्टी फे एक छोटे-से ढेले मे नसरुय जीव होते हैं। ये जीव एक साथ रहने पर भी सपनी स्वतत्र सत्ता बनाए रखते हैं ।
आगम की भाषा मे एक हरे नावले के आयतन जितने मिट्टी के ढेले मे जितने पृथ्वीकायिक जीव हैं, उन सब मे मे प्रत्येय जीव के शरीर को पबूतर जितना वहा किया जाए तो एक लाख योजन लम्बे-चौडे जम्बूद्वीप में भी वे जीव नही नमा सरते।।
(२) प्रवाहसील द्रध्य जल ही जिनवा काय-गरीर होता है, उन जीवो को अपराय या अप्पायिक जीव रहते हैं। वर्षा, जलाशय, नदी नाले समुद्र आदि पा जल, ओले, बुग, ओस-ये नव कायिप जीवो के
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जैनधर्म जीवन और जगत्
शरीर हैं । इन जीवो के शरीर इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक-एक शरीर हमे दिखाई ही नही देता । पानी की एक बूद अप्कायिक जीवो के असख्य शरीरो का पिण्ड है । ये जीव एक साथ रहने पर भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता वनाए रखते हैं।
आगम की भाषा मे-पानी की एक बूद मे जितने जीव हैं, उन सब में से प्रत्येक का शरीर सरसो के दाने के समान बनाया जाए तो वे जीव जम्बूद्वीप में नहीं समाते ।
(३) उष्ण लक्षण तेज ही जिनका काय-शरीर होता है, उन जीवो को तेजस्काय या तेजस्कायिक जीव कहते हैं । सभी प्रकार की अग्नि अग्निकाय के जीवो का पिण्ड है । एक साथ रहते हुए भी इन सब जीवो का अस्तित्व अलग-अलग है।
आगम की भाषा मे-एक चिनगारी मे जितने जीव हैं, उनमे से प्रत्येक के शरीर को लीख के समान किया जाए तो वे जीव जम्बूद्वीप मे नही
समाते ।
(४) चलन धर्मा वायु ही जिनका काय-शरीर होता है, उन जीवो को वायुकाय या वायुकायिक जीव कहते हैं । सब प्रकार की हवाए वायुकायिक जीवो का पिण्ड है । एक साथ रहते हुए भी इन सब जीवो का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है।
आगम की भाषा मे-नीम के पत्ते को छूने वाली हवा मे जितने जीव हैं, उन सब मे से प्रत्येक जीव के शरीर को खस-खस के दाने के समान किया जाए तो वे जीव जम्बूद्वीप मे नही समाते ।
(५) लतादिरूप वनस्पति ही जिनका काय-शरीर है, उन जीवो को वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं । वृक्ष, लता, गुच्छ, फल-फूल, धान-पात, कद-मूल -ये सब वनस्पतिकायिक के प्रकार हैं।
इस काय मे रहने वाले जीवो के दो प्रकार हैं-प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति । प्रत्येक वनस्पति के जीव एक-एक शरीर मे एकएक ही होते हैं । एक जीव के आश्रित असख्य जीव रह सकते हैं, पर उन सबका अस्तित्व स्वतन्त्र है।
साधारण वनस्पति मे एक-एक शरीर अनन्त-जीवो का पिण्ड होता है । सब प्रकार की काई, कद-मूल आदि साधारण वनस्पति है ।
ससार के सर्वाधिक जीव वनस्पतिकाय मे ही है । साधारण वनस्पति का एक प्रकार है-"निगोद" यह जीवो का अक्षय कोष है ।
(६) त्रसनशील- गतिशील प्राणी ‘त्रस" कहलाते हैं। अस ही जिनका काय--शरीर है, उन जीवो को त्रसकाय या त्रसकायिक कहते हैं ।
जिन जीवो के शरीर मे सुख-प्राप्ति अथवा दु ख-मुक्ति के लिए
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जैनधर्म में जीव-विज्ञान
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चलने-फिरने की, सकोच -विकोच की क्षमता होती है, वे जीव त्रस, चर या जगम कहलाते हैं । दो इन्द्रिय वाले प्राणियो - कृमि आदि से लेकर पाच इन्द्रिय वाले प्राणियों तक सभी जीव इस विभाग मे आ जाते हैं ।
जहां जीवो के स और स्थावर - ये दो भेद किए जाते हैं, वहा एक सकाय स है जो कि उसके नाम से ही स्पष्ट है । वाकी पाच स्थावर हैं । ये सुख-दुख की प्रवृत्ति - निवृत्ति के लिए गमनागमन नही कर सकते । श्रसकाय का जीवत्व स्पष्ट है । पाच स्थावर काय का जीवत्व स्पष्ट नही है । इसीलिए कई दार्शनिक इनको चेतन के रूप मे स्वीकार नही करते। उनकी दृष्टि मे ये "जड" या "पाचभूत" मात्र है ।
जैन-दर्शन के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा और हरियाली सजीव हैं, चेतनावान् है । उक्त पाच स्थावर जीव-निकायो के सम्बन्ध मे "दसवे आलिय" मे स्पष्ट उल्लेख है कि ये सब अर्हत्-प्रवचन मे "चित्तमतमवस्वाया” – चेतनावान् कहे गए है । " मत" शब्द को "मात्र" मानकर भी व्याख्या की जाए तो मात्र का एक अर्थ है स्तोक - अल्प । तब इनका अर्थ होगा पृथ्वीकाय आदि पाच जीव-निकायो मे चैतन्य - स्तोक- अल्प विकसित है । उनमे श्वास-प्रश्वास, उन्मेष-निमेष आदि जीव के व्यक्त चिह्न नही
-
"मत्त" का अर्थ मूच्छित भी किया गया है। जैसे चित्त के विघातक कारणो से अभिभूत मनुष्य का चित्त मूच्छित हो जाता है, वैसे ज्ञान के आवारक कर्म-पुद्गलो के प्रबल उदय से पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवो का चैतन्य सदा मूच्छित रहता है । इनके चैतन्य का विकास न्यूनतम होता है ।
द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पचेन्द्रिय- पशु, पक्षी, नारक, मनुष्य, देव- इन सब मे चेतना का विकाम उत्तरोत्तर अधिक है । ससार की सव जीवजातियों में सबसे कम विकसित चेतना एवेन्द्रिय जीवो की है । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति- ये सब एकेन्द्रिय हैं - एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले जीव है। ये न चख सकते हैं, न सूघ सकते हैं, न देख सकते हैं और न सुन सकते है । इनका सारा काम एक स्पर्श के आधार पर चलता है । इस विभाग मे समारी जीवो का इतना वटा समूह है जो गणित की गणना का विषय नही हो सकता
जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार- सजातीय अकुरोत्पत्ति जब तक शस्त्र द्वारा उपत न हो, सहज द्रव होना, आहार ने बढना, बिना दूसरे को प्रे ये सहज वरिमित तिथं गति तथा वन-भेदन होने पर कुम्हला जाना--- पृथ्वी, पानी, लग्नि, वायु और वनस्पति की मजीवना मध प्रमाण है । (श्री भिक्षु न्याय वणिवा ७।११)
ये
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जैनधर्म · जीवन और जगत्
जैन-दर्शन की स्थावर जीवो की मान्यता सर्वथा मौलिक और अद्वितीय है । अन्य दर्शन-पृथ्वी आदि को सजीव नहीं मानते थे। परन्तु माज वैज्ञानिक खोजो और प्रयोगो ने जैन-दर्शन की इस मान्यता को सत्य सिद्ध कर दिया है।
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सूक्ष्म जीव जगत् और विज्ञान
पृथ्वी का जीवत्व
जैन-दर्शन पृथ्वी को सजीव मानता है। जब तक शस्त्र-उपहत नही होती, मिट्टी आदि निर्जीव नहीं होती। पृथ्वी की सजीवता सिद्ध करने वाले ये वैज्ञानिक तथ्य मननीय हैं।
मास्को विश्वविद्यालय के मृत्तिका जीव-विज्ञान-विभाग के प्रधान तथा सूक्ष्म कीटाणुओ के प्रमुख विशेषज्ञ प्रो० एन० क्रोसिल निकोव ने मिट्टी सजीव है या निर्जीव, यह जानने के लिए वर्षों तक खोज की, प्रयोग किए और सफलता के शिखर को छूते हुए उन्होने कई नए तथ्य प्रस्तुत किए। उन्होने "एनारोविक' नाम के ऐसे कीटाणुओ का पता लगाया, जो जमीन के भीतर ऑक्सीजन के विना ही जीवित रहते हैं, क्रियाशील रहते हैं ।
प्रो० प्रोसिल के शिष्य वी० दूदा विभिन्न प्रकार की मिट्टियो से सौ से अधिक प्रकार के इन कीटाणुओ को अलग करने में सफल हुए हैं। यहा यह ज्ञातव्य है कि जन-विज्ञान के अनुसार पृथ्वी में रहने वाले कीटाणु पृथ्वीकाय नहीं हैं । पृथ्वी काय स्वय जीवाणुओ का पिंड है।
विज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया कि एक ग्राम के ढेले मे कई लाख दर्जन अतिसूक्ष्म जीवाणु ठसाठस भरे हैं, जो लाखो वर्षों से लगातार अथक प्रयास फर, धरती को उपजाऊ बनाए रखते हैं ।
___ सजातीय उत्पादन और वृद्धि-यह जीव की खास पहचान है । जैनदर्शन मानता है, पृथ्वीकाय मे निरन्तर वृद्धि का क्रम चाल रहता है। यह विज्ञान से भी सिद्ध होता है।
वैज्ञानिक एच० टी० क्सटापेन के अनुसार-"जसे बालक का शरीर निरन्तर बढ़ता रहता है, वैसे पर्वत भी धीरे-धीरे बढते हैं । विश्व के पर्वतो मी वृद्धि गा मन करते हुए लिखते हैं .---"न्यूगिनी के पर्वतो ने अभी अपनी गंगवावस्पा ही पार की है, सेलोवोस ये दक्षिणी-पूर्वी भागो, भोलकास के पुष टापुओ और डोनेपिया पं द्वीप समूह की भूमि कपी उठ रही है।
टॉ० सुगाते पे अभिमत ने न्यूजीलैण्ड के पश्चिमी नेलसन के पर्वत 'प्लाइस्टोनीन" युग के अन्त में विकसित हुए हैं। टॉ० वेल्मेन लिखते हैं - पाल्पस पवतमाला या पश्चिमी भाग बब भी बढ रहा है। 'द्वीपो की भूमि पा उटाव तथा परतो की वृद्धि पृथ्वी पी नजीवता पे स्पष्ट प्रमाण हैं
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जैनधर्म जीवन और जगत्
पानी की सजीवता भी विज्ञान की कसौटी पर खरी उतर रही है । जैन दर्शन के अनुसार पानी की एक बूद मे असख्य जीव होते हैं । प्रसिद्ध वैज्ञानिक कैप्टिन स्कवेसिवी ने यन्त्र के द्वारा एक लघुजलकण मे ३६४५० जीव गिना दिए हैं ।
विज्ञान सम्मत है ।
अग्नि और वायु की सजीवता भी जैसे मनुष्य, पशु आदि जीवित प्राणी श्वास द्वारा शुद्ध वायु से ऑक्सीजन ग्रहण कर जीवित रहते हैं, वैसे ही अग्नि भी वायु से ऑक्सीजन लेकर ही जीवित रहती है, जलती है । अग्नि को यदि वर्तन से ढक दिया जाए या उसे हवा न मिले तो वह तत्काल बुझ जाती है ।
हवा की सजीवता के सम्बन्ध मे वैज्ञानिक भी कहते हैं कि सुई की नोक टिके उतनी हवा मे लाखो जीव रहते हैं जिन्हे "थेक्सस" कहा जाता है ।
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वनस्पति की सजीवता अन्य स्थावर जीव- निकायो की अपेक्षा बहुत स्पष्ट है । "आयारो” मे मनुष्य और वनस्पति जगत् की प्रकृतिगत समानताओ का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । (आयारो १।७)
विज्ञान जगत् मे सर्वप्रथम सर जगदीशचद्रवसु ने यह बात सिद्ध की थी कि वनस्पति सजीव है । उन्होने यन्त्रो के माध्यम से वनस्पति जगत् की सवेदनशीलता को स्पष्ट दिखलाया था । डॉ० वसु ने दिखाया कि वनस्पति अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियो मे हर्ष, शोक, रूदन आदि करती है । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि वनस्पति काय मे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - ये चारो सज्ञाए होती हैं ।
जैसे मनुष्य शरीर आहार से बढता है, उपचित होता है, अन्यथा अपचित हो जाता है, सूख जाता है, वैसे ही वनस्पतिया भी उपचित, अपचित होती हैं।
वैज्ञानिको ने भी सिद्ध कर दिया है कि वनस्पतिया मिट्टी, जल, वायु, प्रकाश आदि से आहार ग्रहण कर अपने तन को पुष्ट करती हैं, आहार के अभाव में वे जीवित नही रह सकती ।
मनुष्य, पशु-पक्षी आदि की भाति वनस्पतिया भी शाकाहारी और मासाहारी होती हैं ।
छुईमुई सकोचशील और भयप्रधान वनस्पति है । वनस्पति जगत् मे मैथुन और परिग्रह की वृत्ति भी होती है । पेड-पौधे भी मनुष्यो की भांति नीद लेते हैं, विश्राम कर थकान मिटाते हैं । वनस्पतिया बहुत सवेदनशील होती हैं । फूल-पत्तिया एक माली और हत्यारे की पहचान अच्छी तरह से कर लेती हैं । आधुनिक सूक्ष्म यन्त्रो के माध्यम से वनस्पति जगत् की सजीवता के सम्बन्ध मे वैज्ञानिको ने अनेक रहस्यो को अनावृत किया है ।
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सूक्ष्म जीव जगत् और विज्ञान
सूडान और वेस्टइडीज मे एक ऐसा वृक्ष मिलता है, जिसमे से दिन मे विविध प्रकार की राग-रागनिया निकलती हैं और रात को रोने-धोने की ऐसी आवाजें निकलती हैं, मानो परिवार के सव सदस्य किसी की मृत्यु पर रो रहे हैं।
जैन-ग्रन्थों मे वनस्पति की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की मानी गई है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडमड शुभाशा के अनुसार अमेरिका के केलीफोनिया के नेशनल वन मे ४६०० वर्ष की आयु के वृक्ष विद्यमान हैं।
___ इन अध्ययनो से यह धारणा स्पष्ट हो जाती है कि जन-धर्म का जीवविज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म है, गम्भीर अध्ययन-अनुशीलन का विषय है और उसे आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है।'
१. सदर्भ-१ दसवेआलिय, ४१५-८
२ दसवेनालिय हा० टी० प० १३८ ३ मायारो-११ ४. जैन-दर्भन मनन नोर मीमाता, पृष्ठ २८१ ५ श्री मिल न्याय कणिका ७११ ।
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जन्मान्तर यात्रा (गतिचक्र)
दीघा जागरतो रत्ती, दीघो सतस्स जोयण । दीघो बालानं ससारो, सद्धम्म अविजानतो ॥ (धम्मपद)
अनिद्रा रोग से ग्रस्त व्यक्ति के लिए रात लम्बी हो जाती है, थके हुए पथिक के लिए एक योजन का मार्ग भी लम्बा हो जाता है, वैसे ही धर्म का मर्म न जानने वाले अज्ञानी प्राणी का ससार लम्बा हो जाता है। जैसे कोई दृष्टिहीन व्यक्ति गहन जगल मे फस जाता है तो कठिन होता है उससे निकलना, वैसे ही चतुर्गतिमय ससार कान्तार दुरन्त है। उसका रास्ता बहुत लम्बा है । मोह-मूढ व कर्मों से बधे प्राणी अनादि काल से उसमे परिभ्रमण कर रहे हैं । वे न तो उसका पार पा रहे हैं और न ही उन्हे निकलने का कोई उपाय सूझ रहा है । बस, भटकना ही उनकी नियति है। जन्म और मृत्यु की परम्परा को वे निरन्तर दुहराते रहते हैं।
"जायन्ते ये नियन्ते ते, मृताः पुनर्भवन्ति च ।"
जो जन्मते हैं, वे मरते हैं, जो मरते हैं उनका पुनर्जन्म भी होता है । यह पूर्वजन्म व पुनर्जन्म ही ससार की यात्रा है । प्रत्येक ससारी प्राणी सशरीरी होता है । वह जन्मान्तर की यात्रा सूक्ष्म शरीर से करता है। कर्म शरीर और तैजस् शरीर, जिसे विद्युतीय शरीर भी कह सकते हैं-सूक्ष्म होते हैं और वे मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहते हैं । मरणोपरात स्थूल-शरीर पीछे छ्ट जाता है । कर्म शरीर कारण शरीर है। उसके आधार पर जीव नए शरीर का निर्माण कर लेता है।
गेहात् गेहान्तरं यान्ति मनुष्या गेहवर्तिन ।
देहात् देहान्तर यान्ति प्राणिनो देहवर्तिनः ।। (सबोधि १५।२३)
जैसे गृहस्वामी मनुष्य एक घर को छोड, दूसरे घर मे चला जाता है, वैसे ही देहवर्ती प्राणी एक देह को छोड, दूसरी देह का निर्माण कर लेते हैं । इस जन्मान्तर-गामिनी यात्रा के चार पडाव हैं । जैन तत्त्व की भाषा मे इसे चार गति के रूप में जाना जाता है ।
गति का अर्थ है-एक जन्म स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को प्राप्त करने के लिए होने वाली जीव की यात्रा । गति चार हैं -
१ नरक गति । २. तिर्यञ्च गति । ३ मनुष्य गति ।
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जन्मान्तर यात्रा (गतिचक्र)
४ देव गति ।
नारफ --- नरक गति मे रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं। नारक जीवों के आवास-स्थल रत्न प्रभा, शर्करा प्रभा आदि सात पृथ्वियां हैं। ये पृथ्विया नीचे लोक मे हैं। वहा के निवासी कष्ट-बहुल जीवन जीते हैं । अत्यधिक शारीरिक और मानसिक यातनाए भोगते हैं। उनकी यातनावेदना तीन प्रकार की होती है
१. उस क्षेत्र के प्रभाव मे होने वाली वेदना । २ नारक जीवो द्वारा परस्पर लडाई-झगडा कर उत्पन्न की गई
वेदना । ३ परमाधार्मिक देवो द्वारा दी जाने वाली वेदना ।
इन देवो द्वारा दी जाने वाली यातना प्रथम तीन नरक भूमियो मे होती है । उससे आगे दो ही प्रकार की वेदना रहती है। नारक जीवो की वेदना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इन नरक भूमियो मे उन जोवो को जाना पटता है, जो अत्यन्त र कर्मों व बुरे विचारो वाले होते हैं। जैन-दर्शन के अनुमार रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरक भूमि के ऊपर यह मनुष्य लोक अवस्थित है।
तियंच-मनुष्य के सिवाय सारे दृश्यमान प्राणी-जगत् का समावेश निर्यच गति में हो जाता है । जीव जगत् का बहुत बडा भाग इसमे समा जाता है । यानी जीवो की सर्वाधिक सख्या इसी गति मे है। एक इन्द्रिय पाल जीवो से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवो तक सभी जीव तिर्यच ही होते हैं । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति (पेड-पौधे आदि) एकेन्द्रिय तिर्यच है । कृमि, चीटी, मक्खी, मच्छर-ये क्रमश दो, तीन एव चार इन्द्रिय वाले प्राणी हैं । ये सभी तिर्यच हैं । कुछ पचेन्द्रिय जीव भी तिर्यच होते हैं, जैसेपशु-पक्षी आदि । पचेन्द्रिय तिर्यच अनेक प्रकार के हैं। मछली आदि जलचर पचेन्द्रिय है । गाय, भैस बादि स्थलचर पचेन्द्रिय हैं।
तिर्यच गति में कुछ जीव वहत शक्तिशाली होते हैं। उनमे ज्ञानघेतना भा विकसित होती है। कभी-कभी लगता है, उनकी शक्ति और बुद्धि र मामने मनुष्य का परीर-वल और बुद्धि-बल नगण्य है। फिर भी उनकी अपेक्षा मनुप्य योनि श्रेष्ठ है । इसका कारण यह है कि मनुष्य की विवेकचतना जागृत होती है । अन्य पाणियो मे उनका जभाव होता है । इस दृष्टि मे तिर्यच गति का अप्रशस्त माना गया है ।
___ मनुष्य-जिसमे चिंतन, मनन और अनुशीलन की क्षमता होती है, पर मनुष्य है । मनुप्य सर्वाधिक विकसित चेतना दाला प्राणी है। उसमे दियाम की जनन सभावनाए है। नत्यु के पश्चात वह पुन मनुप्य देह या पर मरना है तथा देव नि, नियंच चोनि या नरयिक स्पिति को भी
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प्राप्त कर सकता है । अध्यात्म साधना द्वारा चेतना का विकास कर वह नर से नारायण बन सकता है, आत्मा से परमात्मा बन सकता है। सरल भाषा मे समझे तो गतियो मे एक मनुष्य गति ही ऐसी है, जहा से मोक्ष प्राप्त हो सकता है । मनुष्य मे वह क्षमता है कि यदि वह ऊपर उठे तो लोक शीर्ष पर सिद्धात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो सकता है और गिरे तो महानरक-सातवी नरक भूमि मे भी जा सकता है। यह सब आत्मा की शुद्धि, अशुद्धि तथा उसकी तरतमता पर निर्भर है।
मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं-कर्म-भूमिज, अकर्म-भूमिज और समूच्छिम । कर्म-भूमिज मनुष्य कर्म-क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं । वे असि, मसि, कृषि आदि साधनो द्वारा जीविका चलाते हैं। ऋषि-परम्परा के सवाहक कर्म-क्षेत्र मे उत्पन्न मनुष्य ही बनते हैं । ये मनुष्य पुरुषार्थ-प्रधान होते हैं ।
अकर्म-भूमिज मनुष्य "योगलिक" कहलाते हैं। इन्हे जीवन-निर्वाह के लिए असि, मसि, कृषि रूप पुरुषार्थ की अपेक्षा नही रहती । उनके जीवनयापन के साधन कल्पवृक्ष होते हैं। उनके जीवन की आवश्यकताए इतनी न्यूनतम होती हैं कि कल्पवृक्ष से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से वे संतुष्ट हो जाते हैं।
समूच्छिम मनुष्य नाम से तो मनुष्य ही हैं, पर उनमे मनुष्यता जैसा कुछ भी नही है । मानव-शरीर से विसर्जित मल-मूत्र आदि चौदह स्थानको मे उन जीवो की उत्पत्ति है । वे पचेन्द्रिय होते हैं, पर असज्ञी (असन्नी) होते है। उनमे मानसिक सवेदन नही होता । उन्हें मनुष्य गति प्राप्त है, पर प्रगति के द्वार बन्द हैं। अल्पायुष्य होने के कारण अपर्याप्त दशा मे मर जाते हैं।
देव-दिव्य लोक मे विहार करने वाले देव कहलाते हैं । देवो का शरीर दीप्तिमान होता है । वह मनुष्य शरीर की भाति अस्थि, मज्जा आदि धातुओ से निर्मित नही है । उनके शरीर को वैक्रिय शरीर कहते हैं । देव इच्छानुसार विविध रूपो का निर्माण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया को विक्रिया (विकुर्वणा) कहते हैं।
जैन-आगमो मे देवो के चार प्रकार बतलाए गए हैं-भवनपति, वानव्यतर, ज्योतिाक और वैमानिक ।
असुर कुमार, नागकुमार आदि भवनपति देवो के आवास नीचे लोक में हैं । पिशाच, भूत, यक्ष आदि व्यतर देव तथा सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देव (निरछे) मध्य लोक मे रहते हैं। वैमानिक देव दो प्रकार के हैं१ पल्पोपन्न २ कल्पातीत । बारह देवलोक के देव कल्लोपन्न हैं। वहा या मचालन म्वामी-सेवक आदि व्यवस्थामओ के आधार पर होता है। उनसे कार नव ग्रेवेयक और पाच अनुत्तर विमान के देव कल्पातीत होते हैं । वे देव म्बन शामित हैं । व्यवस्याए स्वय सचालित हैं। वहा स्वामी-सेवक
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जन्मान्तर यात्रा (गतिचक्र) जमी कोई भेद-रेखा नही है । वहा का प्रत्येक सदस्य अहमिंद्र है।
देवता व नारक जीव अपनी गति का आयुष्य पूर्ण कर पुन देव और नारक नही बन सकते । मनुष्य और तियंच चारो गतियो मे से किसी भी गति मे उत्पन्न हो सकते हैं । मोक्ष की प्राप्ति केवल मनुष्य गति से ही सभव
मनुष्य व पशु-पक्षी आदि तियंच हमारे प्रत्यक्ष हैं। स्वर्ग व नरक हमारे प्रत्यक्ष नही हैं । सामान्यत मनुष्य का विश्वास प्रत्यक्ष पर होता है, परोक्ष पर नही । वह परोक्ष या अदृश्य वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार नही करता । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा -
नरफो नाम ना स्तीति नैव सज्ञा विवेशयेत् । स्वर्गो नाम ना स्तोति नैव सज्ञा निवेशयेत् ।। (संबोधि १०/२६)
नरक नहीं है-ऐसा सकल्प मत करो। स्वगं नही है-ऐसा सकल्प मन करो । प्रत्यक्ष न होने मात्र में किसी के अस्तित्व को नकार देना सत्य के साय आख-मिचौनी करना है । वैसे सभी आस्तिक दर्शन स्वर्ग व नरक के अस्तित्व को मानते हैं।
गति-चक्र की मीमासा के सदर्भ मे यह जानना भी आवश्यक है कि प्राणी कौन-से आचरण से किस गति में जाता है, किस योनि में उत्पन्न होता
नरक गति के कारण
पचेन्द्रिय वध, महा-आरम्भ (हिंमा), महा-परिग्रह और मासाहार-- ये नरक गति के हेतु हैं। तियंच गति के कारण
माया-प्रवचना, असत्य भाषण ओर कूट-तोल, क्ट-माप ये तिर्यच गति के हेतु हैं। मनुष्य गति के कारण
विनीत, सरल, अल्पार भी, अल्प-परिग्रही, दयालु और मात्सर्य रहित होगा मनुष्य गति गा हेतु है । देव गति के कारण
मराग सयम - अवीतराग दशा में होने वाली सयम-माधना, श्रावक पमं पा पालन करना, अकाम-निजरा- मोक्ष की इच्छा विना किए गए तप ग होने वाली लात्मशुद्धि और अनान तप-ये देव गति के हेतु हैं ।
न पारो गतियो मे ससारी प्राणी अपने कृत कामों का भोग परते है। प्रापी जेना रम परता है, वमा फल भोगता है। किंतु इनका तात्पर्य पर रही है पि रन जन्म में दिए गए सुकृत या दुप्कृत का परिणाम अगले
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जन्म मे ही मिलता है । वस्तुत देखा जाए तो स्वर्गीय सुख, नारकीय दुख, पशुता और मानवता ये सब मानवीय मनोवृत्ति, उसके चिंतन और व्यवहार पर निर्भर है। सयम और सतुलन का जीवन जीने वाला इसी जन्म मे स्वर्गीय सुखो का अनुभव करता है। इसके विपरीत वासना, व्यसन और विवेक-हीनता का जीवन जीने वाला इसी जन्म को नरक बना लेता है ।
स्वर्ग और नरक की व्याख्या के पश्चात् शिक्षक ने छात्रो से पूछाविद्यार्थियो | आप मे से नरक जाना कौन पसन्द करेगा ? स्वीकृति मे किसी का हाथ ऊपर नही उठा। शिक्षक ने दूसरी बार पूछा-अब बताए, स्वर्ग जाना कौन पसन्द करेगा ? एक लडके को छोड सबके हाथ ऊपर उठ गए। शिक्षक ने पूछा क्यो मनीष | तुम्हे कही नही जाना है ? मनीप का उत्तर था-मुझे कही जाने की अपेक्षा नहीं है, मैं जहा रहगा, वही स्वर्गीय वातावरण का निर्माण करूगा ।
पाशविक वृत्तियो का परिष्कार कर मानवीय चेतना का विकास ही दिव्यता की दिशा को उजागर करता है।
सदर्भ -
१ सबोधि १५/२२,२३ । २ जैन तत्त्व विद्या १/५ । ३. ठाण-~४/४/६२८ से ६३१ ।
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शक्ति-स्त्रोत-पर्याप्ति
मामारिक जीव किसी न किसी स्प मे प्रवृत्ति करता रहता है, जंगे-आहार, स्पदन, सवेदन, चिंतन, मनन, भाषण आदि । ये सब क्रियाए विनिप्ट पत्तियो के द्वारा ही सपादित होती हैं । इनमे से पहली शक्ति है प्राण तथा दूमरी शक्ति है पर्याप्ति की। प्राण-भक्ति और पर्याप्ति शक्ति - का दोनो के सहयोग से ही प्राणी अपनी जीवन-यात्रा चलाता है।
प्राण आत्मिक शक्ति है, पर्याप्ति पोद्गलिक शक्ति । जैसे-बोलने मे जो ध्यान या आत्मीय प्रयत्न होता है वह प्राण है और उस प्रयत्न के अनुमार जो भक्ति भापा-योग्य पुद्गलो का संग्रह करती है, वह है पर्याप्ति । पर्याप्ति
जब तक आत्मा कर्म-मुक्त नहीं हो जाती, उसकी जन्म-मरण की पगपरा नही रपती । मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है । जन्म का अर्थ है उत्पार होना, एक देह त्याग कर दूसरे देह का निर्माण करना । जन्मांतरयात्रा के समय प्राणी का स्थूल शरीर छूट जाता है, वह सूक्ष्म शरीरतजम, पाभण के वाहन पर आम्द हो, आगे की यात्रा तय करता है। भावी जम में उन्ही दम गरीरो के माध्यम से पुन नये स्थूल शरीर का निर्माण करता है । उसकी प्रत्रिया और प्रम भी ज्ञातव्य है ।
जीव एक जना स्थिति को पूरी कर दूसरे जन्म-स्थान में आता है, सब पर गयमे पहले माहार ग्रहण करता है, स्वप्रायोग्य पुद्गलो का आकर्षण बौर मणा परता है । मजे बनतर यह ममूचे जीवन-निर्वाह के लिये पौद्गलिप लियो गा अमिय विशाम करता है।
मागे प्राणो दो चारे दह किसी भी जीव-योनि मे तापन हो, दियो लिग दिशी पुष्ट सालदन की अपेक्षा रहती है । यह नालवन मातारी, उसने साप एक विशिष्ट प्रकार की पोद्गलिक शक्ति
पी । जो इन नन्त्र विद्या मे "पर्याप्ति" के नाम से पहचानी
बि रा नीधा अप है-जेदन-धारण में उपयोगी पोद्गलिक
जीव-बिगानका पारिभापित मन्द है । "म्भे पोलिर नामप्र-निर्मात पर्याप्नि" (ज.सि दीपिका
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जैनधर्म जीवन और जगत्
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३ / १०) जन्म के प्रारम्भ मे पोद्गलिक सामर्थ्य के निर्माण को पर्याप्ति कहते हैं ।
जन्म के प्रारम्भ में तेजम-कामर्ण शरीर द्वारा गृहीत पुद्गल समूह से जीव जिस जीवनोपयोगी पौद्गलिक शक्ति या शरीर उपकरणो का निर्माण करता है, वह पर्याप्त है। यानी वह उन गृहीत पुद्गलो को आहार, शरीर, न्द्रिय, मन आदि रूपो में परिणत कर वैसी पौद्गलिक क्षमताओ का अर्जन कर लेता है जिसमे, उनी जीवन-यात्रा मे कठिनाई न हो । वे शक्तिया मुख्यत ६ प्रकार की होती हैं, अत पर्याप्निया भी छह हैं(१) आहार पर्याप्ति ( २ ) शरीर पर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रिय पर्याप्ति ( ४ ) श्वासो - च्छ्नाम पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति (६) मन पर्याप्ति ।
जैन तत्त्वज्ञान में दो शब्दो का काफी प्रयोग होता है - पर्याप्त और अपर्याप्त । पर्याप्त का सीधा अर्थ होता है पूर्ण, अपर्याप्त का सामान्य अर्थ समझा जाता है अपूगं । किन्तु यहा इसका अर्थ भिन्न होता है । जिस प्राणी को जिस जीवन में जितनी पर्याप्ति का प्रबंध करना होता है, वह प्रबंध पूरा हो जाता है तो वह प्राणी पर्याप्त कहलाता है, जव तक वह काम पूरा न हो जाये वह अपूर्ण है अपर्याप्त है । पर्याप्त निर्माण से पूर्व ही जिस जीव की मृत्यु हो जाती है, वह भी अपर्याप्त कहलाता है । ये पर्याय देहधारी प्राणियों के शक्ति-स्रोत हैं ।
पर्याप्तियो के लाभ
(२) जाहार पर्याप्त को पूर्ण कर लेने वाला प्राणी शरीर आदि पानी पर्याय योग्य पुद्गल का ग्रहण कर लेता है। इसके द्वारा वह जीवन भरने की क्षमता अर्जित कर लेना है। प्राण धारण करने पुद्गनो आर्पण आहार कहलाता है । प्राणी छहो पर्याय (सोना) के लिए जाहार ग्रहण करता है । वह छहो दिपा में दिया जाता है। इनमें ऊ दिशा अर्थात् मिर और अधो दिशा अर्थात पैसे से जाहार का गहण जविक मात्रा मे होता है । आहार पर्याप्त द्वारा जीन जीवन में आहार प्रायोग्य पुद्गली के ग्रहण परिणमन और ना जर्जित कर लेना है।
1
(:) पर पर्याप्त द्वारा शरीर के अगोपांगो का निर्माण होता है।पाको शरीरशास्त्रीय दृष्टि से अधिक स्पष्टता के माय मानता है।
हो या मनुष्य, अपने जीवन का
कोशिका से प्रारम्भ कर मनुष्य का गिनिजन द्वारा अपने आपका पुन दोगुना करता है । इम
चाहे छोटा
प्रारम्भ राशि में करना है। एक
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
लिये तथा व्यक्तियो के आने-जाने के लिए द्वार, जाली झरोखे तथा खिडकिया रखी जाती हैं, वैसे ही चेतना की रश्मियो के निर्गमन तथा प्रकटीकरण के माध्यम हैं-इन्द्रिया, श्वासोच्छ्वास तथा भाषा पर्याप्ति ।
मकान बनाने के बाद मकान-मालिक उसका उपयोग आवश्यकता और मौसम के अनुसार करता है। जैसे सर्दी मे निवाये कमरो का तथा गर्मी मे ठडे-हवादार कमरो का । खिडकियो को कब खोलेगा, कब बन्द करनायह सब भी उसकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। इसी प्रकार कब क्या करना है, कैसे करना है, यह सब शक्ति मन पर्याप्ति सापेक्ष है।
ये छह पर्याप्तिया स्थूल शरीर के छह शक्ति-स्रोत हैं और तेजस शरीर के सवादी केन्द्र हैं। इनके माध्यम से ही प्राण के परमाणुओं का आकर्षण, परिणमन और उत्सर्जन होता है।
इसका रेखाकन इस प्रकार है -
श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति
-
-
इन्द्रिय पर्याप्ति
शरीर पर्याप्ति
भाषा पर्याप्ति
-
-
आहारपर्याप्ति
मन पर्याप्ति
शरीर मे पर्याप्तियों का स्थान :पर्याप्ति
स्थान आहार पर्याप्ति
स्वास्थ्य केन्द्र, शक्ति-वेन्द्र शरीर पर्याप्ति
नाभि-तेजस केन्द्र
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मति-चीन-पर्याप्ति सद्रिय पानि
मस्तिष्क के विभिन्न भाग घामाच्या पयानि नार वाम ननी और
फ्रासातक भाषा पर्यापि
अग्र मम्निष्क ने बर या,
ज्योनि-नन्द मन पनि
मस्तिष्य-दर्शन-रेन्द्र का भाग । गति योन जीवन के प्रारम्भ में पूर्ण ही निप्पन्न हो जाते हैं, और जीया भर मप्रिय रहते है।
आzrr पर्याप्ति एक समय में पूर्ण हो जाती है। तपा पाच पणियों की निप्पनि म EUR अतमरत समय लगता है, लेकिन सब में मिलि-पाय या प्रारम्भ एक गाय होना है।
गर गमाग प्राणियों में पर्याप्तिया राय गमान नहीं होती, उनमे -TT साररता है। पाच स्थापर हायिक जीवो-प्रची, जल, पा, मग बोर पापति म पार पर्याप्तिया होती है, उनर भाषा और 77 महीमा
ना विपरितोष्टिा, नीन्द्रिय और पर्गिय तपा अगशीपिदिय जीवो में पाप्निया पाच होती है। उनके मा नही होना। देयो र पाप पाणिया माती, उ मा तपा भाषा पर्याप्नि या पेन्द्र एक होगा।
अग मलय में प्रपम तीन पर्याप्नि पूर्ण होती है। और दामा पाग quffer a ग गी है। गनिए निदान की भाषा में १३ मादा जी7 पर्याप्तिका माग गती । म बात पर घिउनरा
R- 17 जना दुबंन होगरे विमो प्रयास पी निश पी. frाम सोशियार नहीं होगी।
, निसप और गाय में पानिया र होती । मिदो में मानी । पत्रिका से प्राप्त
मी f uTERTI
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जैनधर्म जीवन और जगत् जीवो के क्रमिक विकास की दृष्टि से इन्द्रिय, मन आदि का जितना मूल्य है, पर्याप्तियो का मूल्य उनसे कम नही है। ये भौतिक होते हुए भी प्राण-शक्ति की सवालिका है। चित-शुद्धि, मस्तिष्क-विकास तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से भी पर्याप्ति-विज्ञान बहुत ही मूल्यवान् है ।
मदर्म .. १ जैन निद्धात दीपिका ३/१०, ११ (गणाधिपति श्री तुलमी) २ जैन तन्य विद्या पृष्ठ ९, २५, २८ (गणाधिपति श्री तुलमी) 3 जन दर्शन मनन और मीमाया पृष्ठ २५६ (आचार्य श्री महाप्रज) र प्रेक्षाध्यान-प्राणविमान (आचार्य श्री महाप्रज्ञ)
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जीवन-शक्ति-प्राण
ससार में दो प्रकार के पदाथ हैं-सजीव और निर्जीव । इन दोनो पदार्थों की रचना रासायनिक तत्त्वो के सयोग-वियोग से होती है । जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्मा) की आतरिक सरचना मे कोई रासायनिक विलक्षणता वैज्ञानिक प्रयोगो से मिद्ध नहीं हुई है । ऐसी स्थिति मे प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर ऐमी कोनसी गुणात्मक भिन्नता है, जो सजीव और निर्जीव के बीच भेद-रेखा उत्पन्न करती है । जैन सिद्धात के अनुमार जीव और निर्जीव की विभाजक रेखा है - पर्याप्ति और प्राण । जिनमे आहार करने, शरीररचना करने तथा श्वास लेने की शक्ति है, वे जीव है, जिनमे ये शक्तिया नही है, निर्जीव हैं । पर्याप्ति और प्राण का योग ही जीवन है। इनका वियोग मृत्यु है।
मापा-शक्ति और चिंतन-शक्ति जीव के लक्षण नहीं हैं, किंतु वे विकास त अग्रिम विटु है ।
हम निरन्तर अपने शरीर के साथ रहते हैं । उसकी देखभाल का पूरा ध्यान रखते हैं। उसके विकास और स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते हैं। पर शरीर रूपी यत्र किन शक्तियो से सचालित है-यह बहुत कम लोग जानते
हमारा शरीर जिन शक्तियो से सचालित है, उसमे एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है "प्राण" । हमारा सारा जीवन प्राण रूपी इधन से ही सवालित है । इसे आधुनिक विज्ञान की भाषा मे "वाइटल फोस" कह सकते हैं।
जोधन-शक्ति प्राणा "इन्द्रियवलोच्छ्वासनि स्वासायपि" (आचार्यश्री तुलसी)
जैन सिद्धांत दीपिका ३/१२-१३ । प्राण का अर्थ है जीवनी शक्ति । जीवन के लिए भोजन, पानी और हवा जितन आवश्यक हैं, उसमे कहीं अधिक जरूरी है प्राण-शक्ति । स्थूल गरीर में जितनी नप्रियता और गतिशीलता है उसका गरण प्राण-शक्ति ही है । दूसरे शब्दो मे पहें तो मन, वाणी और पनं पी सपादन-शक्ति का नाम प्राण है । हमारे गरीर नन, चित्त और भावधारा में जो भी म्पदन, प्रकपन है, जो भी गनितीलता है, उसका स्रोत है -प्राण का प्रवाह । हमारे मानपाम जो शनि, र्जा, प्रयाग और चुम्बकीय धाराए गुजरती है, वे प्राण-शक्ति में प्रमाण है।
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जैनधर्म जीवन और जगत् प्राण-शक्ति का मूल्य-स्रोत तेजस शरीर है। तेजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में फैला हुआ है । फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैंमस्तिष्क और पृष्ठभाग । वहा से निकलकर तैजस शक्ति शरीर की सारी क्रियाओ का संचालन करती है । हालाकि तैजस शरीर से एक प्रकार की प्राण-शक्ति प्रवाहित होती है। यह प्राण-शक्ति स्थूल-शरीर के साथ जुडकर भनेक प्रकार के कार्य करती है। कार्य-भेद के कारण वह दस भागो मे विभक्त हो जाती है।
निम्नाकित रेखाकन से प्राण की उत्पत्ति और उसके परिपथो का स्पष्ट ज्ञान हो सकता है .
-
प्राण प्राण
झोन प्राण
जन प्राण
पचनमा
काय प्राण यासोन्यास प्राण --
-----बाण
--- रसम माग
"आयुष्य प्राण -
-
-
.
.
.
-
-
-
।
स
तेजसशरीर
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जीवन-शक्ति-प्राण
प्राण दम हैं१ क्षोन्द्रिय प्राण २ चक्षुरिन्द्रिय प्राण ३ घ्राणेन्द्रिय प्राण ४ रसनेन्द्रिय प्राण ५ स्पर्शनेन्द्रिय प्राण ६ मनोबल प्राण ७ वचन वल प्राण ८ कायवल प्राण ९ श्वासोच्छ्वास प्राण १० आयुष्य वल प्राण
इससे ज्ञात होता है कि हमारे शरीर मे अनेक प्रकार की प्राणधाराए है । इन्द्रिय की अपनी प्राण-धारा है । मन, शरीर और वाणी की अपनी प्राण-धारा है । श्वास-प्रश्वास तथा जीवनी-शक्ति की भी स्वतत्र प्राण-धाराए हैं । चेतना का तेजस-शरीर के साथ योग होता है और प्राणशक्ति उत्पन्न हो जाती है । इन प्राण-धाराओ के आधार पर शरीर की विभिन्न क्रियाओ का सचालन होता है ।
इस सदर्भ मे एक वात विशेप ज्ञातव्य है कि पर्याप्ति और प्राण--ये न तो चेतना की विशुद्ध अवस्था में होते हैं और न अचेतन मे होते हैं। ये पेतन और अचेतन के सयोग मे उत्पन्न होते हैं। ससार मे जितने प्राणी है, वे सब यौगिक हैं । चेतन और अचेतन (पुद्गल) के सयोग की अवस्था मे हैं । चैतन्य का शुद्ध स्वरूप प्रकट न होने के कारण वे केवल पंतन्य की भूमिका में अवस्थित नहीं हैं । वे न्यूनाधिक मात्रा मे ही सही अनुभव-शक्ति और ज्ञान-शक्ति से सम्पन्न हैं । इमलिये केवल अचेतन (जड) फी भूमिका में नहीं हैं बल्कि चेतन और अचेतन की सयुक्त भूमिका मे
प्राणियो के शरीर के माध्यम से जो क्रियाए होती हैं, वे सव नात्मशक्ति और पोद्गलिक शक्ति दोनो के पारस्परिक सहयोग से सम्पन्न होती है। पर्याप्ति पोद्गलिक गक्ति है और प्राण आत्मिक शक्ति है।
पर्याप्तिया शक्ति-स्रोत हैं, जबकि प्राण शक्ति-पेन्द्र । इनमे परस्पर फाय-फारण-सबध है । सच्या-विस्तार को सक्षेप में लेने पर दोनो की सख्या समान हो जाती है। पर्याप्ति
प्राण जाहार पर्याप्ति जायुप्य प्राण गरीर पर्याप्ति
बार बल प्राण
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
इन्द्रिय पर्याप्ति इन्द्रिय प्राण श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास प्राण भाषा पर्याप्ति
वचनवल प्राण मन पर्याप्ति
मनोबल प्राण इम प्रकार उक्त पर्याप्तिया और प्राण सापेक्ष है।
प्राण जीवन-शक्ति है और पर्याप्ति भौतिक-शक्ति । जीवन-शक्ति को गा पोद्गलिक शक्ति की अपेक्षा रहती है । इसलिये प्रत्येक प्राणी नये जन्म के प्रारम्भ मे ही अनेक प्रकार की पोदगलिक शक्तियो की रचना करता है।
जमे पर्याप्तिया सब जीवो में समान नहीं होती, वैसे ही प्राण-शक्तिया भी मय मे बराबर नहीं होती । तथापि जीने के लिए कम से कम चार प्राणशक्तिया तो अवश्य होती हैं । शरीर, श्वास-उच्छ्वास, आयुष्य और स्पर्शन इन्द्रिय -ये चार जीवनी-शक्तिया प्राणी-जगत के जीवन हेत आधारभूत मानी जाती हैं । अर्थात् जीवन-यापन के लिये कम से कम चार प्राण-शक्तियो का होना तो जारी है । जैन जीव-विज्ञान के अनुसार सबसे कम विकसित चेतना वाले जीव हैं-एकेन्द्रिय-~~पाच स्थावर निकाय के जीव । उनमे चार प्राण है। उसके आगे चेतना का जितना-जितना अधिक विकास होता है, मीन्द्रिय आदि जीवो मे प्राण-शक्तिया भी क्रमश विकसित होती हैं । सज्ञी पनेन्द्रिय जीवो को दमी प्राण-शक्तिया उपलब्ध हो जाती हैं।
प्रश्न होता है, तात्विक दृष्टि से पर्याप्तियो और प्राण-शक्तियो को जान लेने गे या हमारे अस्तित्व और व्यक्तित्व के विकास की नई दिशाए उघाटित हो मरती है?
प्रेक्षा-ध्यान और जीवन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न का उत्तर मागत्मक दिया जा सकता है।
उमन शक्ति-योतो और शक्ति-वेन्द्रो के विकास मे ही विकास की ममग्न दिशाए प्रफुटित होती है, प्रपर होती हैं और परिष्कृत होती हैं । मगे शारीरिक, मानमिर, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास की ऊनाक्ष्यो गोहागिन किया जा सकता है हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र की सफलता माधारभूत तत्व पन्छा शक्ति का सिाग, मकरप पति का विकाम,
ग्रा चीनक्ति या बिजाग~~य मारे प्राण ऊर्जा विकास पर निर्भर हैं। प्रामापीरी विद्या का है। आधुनिक विज्ञान यात्रिय विकास और पिर पिसाग का लोन पिनीयशनि, ता विकाग दी है। मप्यूटर, रपट तर गोट गाविताग मी विटनी चमनार है।
दर्शनमगार सभी प्राणियों में ग्राम श्री पनि प्राप्त है, पर यिता मंत्र में नहीं होती । मनुष्य ही पर गा प्राणी है,
T' ना ना ना, बिन मा पर्यापन सिमर नये
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जीवन-शक्ति-प्राण
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आयाम मे प्रवेश पा सकता है ।
दीर्घ श्वास प्रेक्षा, समवति श्वान प्रेक्षा, श्वास सयम, शरीर प्रेक्षा, चैतन्य वेन्द्र प्रेक्षा, मत्र, जप आदि प्रयोगो से प्राण विद्युत मचित, सतुलित और विकसित होती है । इससे मनुष्य शरीर का केन्द्रीय-नाडी सस्थान और परिधिगत नाडी सम्यान सशक्त बनता है। मानवीय मस्तिष्क की अपार क्षमनाए जाग जाती हैं । भावना-तत्र निर्मल और नियत्रित होता है । इससे मानवीय व्यवहारो का परिष्कार होता है, वृत्तियो मे परिवर्तन होता है। अत अपेक्षित है, हम अपने जीवन-विकास के मौलिक माघार "पर्याप्ति और प्राण" को मार सैद्धातिक दृष्टि मे ही न जानें, अध्यात्म विकास तया साधना के विभिन्न कोणो से भी जानें।
प्रेक्षा-ध्यान के नालोक मे हमे यह भी जानने को मिला है कि पर्याप्तियो और प्राण-शक्तियो के मूल पेन्द्रविन्दु हमारे शरीर मे कहा हैं ? जिनकी प्रेक्षा कर हम उन्हें और अधिक निमल एव जागृन बना सकते हैं ।
एहो पर्याप्नियो से सबधित दस प्राणो के केन्द्र हमारे मस्तिष्क मे
इन्द्रिय पर्याप्ति और प्राण के पाच केन्द्र हैं - (१) म्पर्शन का केन्द्र-ज्ञान-पेन्द्र और शाति-पेन्द्र के मध्य का
भाग। (२) रसन का केन्द्र-वृहत् मस्तिष्क और लघु मस्तिष्क के सधि
स्थल से घोडा पर। (३) घ्राण का पेन्द्र-चन-पेन्द्र की सीध मे दाये भाग में। (४) चक्षु का पेन्द्र-शान-वेन्द्र पीछे वहत् मस्तिष्क के अत मे। (५) प्रोन का वेन्द्र-कनपटी को मीध में भीतर । (६) मन का रेन्द्रमान पेन्द्र । (७) भाषा का पेन्द्र-रमना-केन्द्र के नीचे । (८) गरीर का वेन्द्र-मस्तिष्क के बिल्कुल सामने का भाग
पटन लोब । (९) श्यामोरयान का पेन्द्र -- मेडूला ओवनोगाय-लघ मस्तिष्क
के नीचे और नुपम्ना गीप के ऊपर। (१०) बाहार-सायुप्य प्राण पा पन्द्र-हाइपोपेलेमन । (मानि पेन्द्र)
पी नीघ मे भीतर गहरे में।
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निम्नाकित चित्र से यह और स्पष्ट हो जाएगा
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जैनधर्मं जीवन और जगत्
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मस्तिष्क में दश प्राण प्रेक्षा केन्द्र
प्राण शक्ति का विकास भी पर्याप्तियो के विकास और परिष्कार के विना सभव नही है |
आहार - सयम, योगासन, इन्द्रिय-सयम, श्वास - सयम, श्वास- प्रेक्षा, मौन, स्वर यत्र का कायोत्सर्ग तथा ध्यान-योग – ये क्रमश छहो पर्याप्तियो या शक्ति-स्रोतो को पुष्ट मोर निर्मल बनाने के उपाय हैं । आध्यात्मिक
वैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण में उक्त उपाय अह भूमिका निभा सकते हैं ।
संदर्भ
१ जैन सिद्धात दीपिक - ३ / १२-१३ ( गणाधिपति श्री तुलसी )
२ जैन तत्त्व-विद्या- पृष्ठ २७ ( गणाधिपति श्री तुलमी )
३ जैन दर्शन मनन और मीमामा, पृष्ठ २५६ ( आचार्यश्री महाप्रज्ञ )
४ प्रेक्षाध्यान प्राण- विज्ञान ( आचार्यश्री महाप्रज्ञ )
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शरीर और उसका आध्यात्मिक मूल्य
हमारा अस्तित्व चेतन और अचेतन का जटिलतम सयोग है। चेतन है हमारी आत्मा और अचेतन है शरीर ।
आत्मा मरूप है, अरस है, अगध है और अस्पर्श है, इसलिए वह अदृश्य है । शरीर से वधी हुई है, इस दृष्टि से दृश्य भी है । ससारी मात्मा शरीर-मुक्त नहीं रह सकती। वह स्थूल अथवा सूक्ष्म किसी-न-किसी शरीर के आश्रित रहती है । चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध चिर-पुरातन है । जन सिद्धात की भाषा में अनादि है। परिभाषा
"सुख-दु पानुभवसाधनम् शरीरम्" (ज० ति० दी० ७/२४) । जिस के द्वारा पोद्गलिक सुख-दुःख का अनुभव किया जाता है, वह शरीर है।
जीव की जितनी प्रवृत्तिया होती हैं, वे सव शरीर के माध्यम से ही होती है। गरीर मे मामान्यत हमारा तात्पर्य इस अस्पि-माम-युक्त स्थूल शरीर से ही समझा जाता है, जिसे "दि फिजिकल वॉडी" कहा जाता है। पर फिजिकल पॉटी के मिगय भी कुछ ऐसे शरीर होते हैं, जिनसे हम परिचित रही हैं।
जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार शरीर के पाच प्रकार हैं(१) औदारिप (२) वैचित्य (३) आहार (४) तेजस् (५) पाण। इन पानी पो तीन वर्गों में बाटा जा सकता है। स्पल पारीर-औदारिक शरीर-हाड-मान नादि सप्त धातुनो द्वारा
निर्मित परीर । सूक्ष्म शरीर-प्रिय गरीर-नाना स्प बनाने में समपं शरीर ।
नाहारक परी -विचार-सवाम गरीर । सूक्ष्मतम परीर-जन्तापमय शरीर । वामनगरी-पर्मनय मतेर ।
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जैनधर्म : जीवन और जगत् इस वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि औदारिक शरीर सबसे अधिक स्थल होता है । वैक्रिय शरीर उससे अपेक्षाकृत सूक्ष्म होता है । उससे सूक्ष्म आहारक शरीर होता है । आहारक से भी सूक्ष्म होते हैं तैजस और कार्मण शरीर । औदारिक शरीर
यह शरीर रसादि धातुमय है । स्थूल पुद्गलो से निष्पन्न है । यह मृत्यु के बाद भी टिका रह सकता है ! इस का छेदन-भेदन हो सकता है । यह अस्थि, मज्जा, मास, रुधिर आदि से निर्मित है इसलिए विशरण धर्मा है। यानी इसका स्वभाव है गलना-मिलना और विनष्ट होना । इस शरीर का चयापचय होता रहता है। इस शरीर की सबसे छोटी इकाई है कोशिका । प्रतिक्षण लाखो करोडो कोशिकाए नष्ट होती हैं और नयी कोशिकाए उत्पन्न होती रहती हैं।
शरीर भौतिक है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि मे या मुक्ति मे बाधक है। अवतार वे ही आत्माए लेती हैं जो सशरीरी हैं । सिद्धात्माए शरीर-मुक्त होती हैं । वे पुनः जन्म नहीं लेती । औदारिक शरीर मुक्ति का साधक भी है । वह इसलिए कि मोक्ष की साधना और प्राप्ति केवल औदारिक शरीर से ही सभव है।
यह औदारिक शरीर एकेन्द्रिय जीवो से लेकर मनुष्य और तिर्यंचपचेन्द्रिय तक सब जीवो को प्राप्त होता है। वैक्रिय शरीर
भाति-भाति के रूप बनाने में समर्थ शरीर वैक्रिय कहलाता है। विक्रिया-विभिन्न प्रकार की क्रियाए घटित होना । वैक्रिय शरीर-धारी प्राणी छोटा-बडा, सुरूप-कुरूप, एक-अनेक चाहे जैसा, चाहे जितने रूप बना सकता है । मृत्यु के पश्चात् इस शरीर का कोई अवशेष नहीं रह जाता। यह पारे की तरह विखर जाता है।
देवो और नैरयिक जीवो के वैक्रिय शरीर होता है । मनुष्य और तिर्यंच मे भी यह सामर्थ्य हो सकती है । उसे वैक्रिय लब्धि कहते हैं ।
वायुकाय मे सहज ही वैक्रिय शरीर होता है । आहारक शरीर
___ यह विचारो का सवाहक शरीर है। इसमे विचार-सप्रेषण की अद्भुत क्षमता होती है । विशिष्ट योग शक्ति-सम्पन्न चतुदर्श पूर्वधर मुनि विशिष्ट प्रयोजनवश एक विशिष्ट प्रकार के शरीर की रचना करते हैं । उसे आहारक शरीर करते हैं। इस शरीर के द्वारा प्रयोक्ता हजारो मीलो की दूरी को क्षण भर मे तय कर लक्षित व्यक्ति के पास पहुंच जाता है।
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शरीर और उनका आध्यात्मिक मूल्य
४७ उसमे जिज्ञासा समाधान पा पर या विचार-विमर्श कर पुन यथास्थान आ जाना है। यह नारी क्रिया उनने कम समय में हो जाती है कि दूसरे व्यक्ति का पता भी नही चलता।
जैन-नाम्या में उल्लेग्न जाता है कि विनी चौदहपूर्वी मुनि के पास यदि पाईयक्ति जिनामा ने कर आए, वितु समय पर जानी मुनि प्रश्नकर्ता को गह। उत्तर देने में समय न हो तो वे आहारक नाम की विशिष्ट तपोजनित शक्ति द्वारा अपने पीर मे एक हाथ प्रमाण पुतला निकालते हैं, उसे सर्वज के पास भेजने हैं, वह पुनला नवं भगवान से प्रश्न का उत्तर प्राप्त कर पानी मुनि क शरीर में प्रविष्ट हो जाता है : मुनि उत्तर प्रदान कर प्रश्न गर्ता को मतुष्ट कर देते हैं । पदाचित् निर्दिष्ट म्यान पर मर्वज्ञ न मिलें तो उस पुनते से वैमा ही दूसरा पुन ना निकलता है । मवज्ञ से समाधान प्राय पहले पुतले म प्रविष्ट होता है और पहला पुतला मुनि क शरीर गे। मुनि प्रश्नया का समाधान दे सतुष्ट कर देते हैं ।
आहार औदारिक और वंत्रिय की अपेक्षा मूक्ष्म होता है तण तंजर और यामण पी रपक्षा स्थल होता है। फिर भी इसकी गति अव्यवहित होती है। पही रकान्ट नहीं आती।
जाज विजान पामनोविज्ञान के क्षेत्र मे टेलीपंथी तया "प्रोजेक्शन ऑफ पटन वॉटी प्रयोग-परीक्षण की व्यापक चर्चा है । कोस्मिक-रे-लेसर किरणोपी अपार क्षमनाजो पी योग प्रयोग और परीक्षण हो रहे हैउमर 71 म बनिर गरीर और आहारक शरी पर विशेष अध्ययन, मगीना जाए तो जाश्चय पारी रहस्प उद्घाटित हो मरने हैं। तंजस शरीर
जामा पमापओ मे नित्पन्न गरीर तंजम पर है। यह तेजोना कोन - HTTTTI हेतु है । यह तापमय शरीर है। हमारी उपमा, मदिरा और पति या मालर है ।म बिना उमा उत्पन्न नहीं हो गातो पापा हीरता, "न-मचार नादि प्रियाए नही हो सकती। एमापना चिाओ का सचालन मी मागेर द्वारा होता
मता अग्नि-मदता या हेतु । अग्नि पी मटना में प्रत्येक प्रानि साही हा नीगी नुरपनमा दो राय हैं
{ पीर-तमानचाला। २
क्षमता। एमागे की .नि । आधार प्रा. नत्व त उन मरीर में ही
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मे परे भाचाय प्राणयान और नपा
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जैनधर्म . जीवन और जगत् वैज्ञानिक "वाइटल बॉडी" बायो इलेक्ट्रीकल प्लाज्मा कहते हैं । सीधी भाषा मे कहें तो यह विद्युतीय शरीर है । ऊर्जा का अपार भडार है।
वैज्ञानिक आकडे बताते हैं कि मनुष्य-जीवन को सचालित करने के लिए जितनी प्रवृत्तिया होती हैं, उन प्रवृत्तियो मे जितनी विद्युत् या ऊर्जा खपती है, उससे एक बडी कपडे की मील चलाई जा सकती है।
एक बच्चे की शारीरिक क्रियाओ मे जितनी विद्युत् खपती है उससे रेल का इजन चलाया जा सकता है ।
__ मनुष्य-शरीर की प्रत्येक कोशिका में अपना स्वतत्र "पावर-हाऊस" है, जहा विद्युत्-ऊर्जा उत्पन्न होती है । उसी से पूरा शरीर-तत्र सक्रिय रहता
सूरज, वायु तथा अनन्त आकाश में व्याप्त सूक्ष्म तरगो से भी निरन्तर ऊर्जा मिलती रहती है। उससे भी तेजस् शरीर पुष्ट होता रहता
प्राण-वायु ऑक्सीजन शरीर के भीतर जाकर कोशिकाओ को ऊर्जा प्रदान करती है। इससे तैजस शरीर भी प्रभावित होता है । प्राणमय कोष को निर्मल और पारदर्शी बनाने के लिए प्राण को साधना आवश्यक है। ऐसा योग के आचार्यों का अभिमत है।
____ मत्र-जप प्राणायाम और दीर्घ श्वास के अभ्यास से तैजस शरीर को प्रभावित कर उसमे छिपी अनन्त शक्ति को उजागर किया जा सकता है। विचार-तन्त्र और आभा-मण्डल को भी प्रभावित किया जा सकता है। कार्मण शरीर
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल-समूह से निर्मित शरीर कार्मण शरीर या कर्म-शरीर है। यह पूर्ववर्ती औदारिक आदि चारो शरीरो का कारण है, इस दृष्टि से इसे "कारण शरीर" भी कहा जाता है । यह सूक्ष्मतम शरीर है । इसके बिना स्थूल शरीर का निर्माण सभव नही । कार्मण शरीर के माध्यम से ही आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है या दूसरे शरीर का निर्माण करती है।
औदारिक शरीर जन्म सबधी है । वैक्रिय शरीर जन्म सबधी भी है (देवो और नारको के) और लब्धिजन्य भी । आहारक शरीर योग-शक्तिजनित ही होता है । ये तीनो शरीर स्थूल हैं, अवयवी हैं । तैजस और कार्मण सूक्ष्म शरीर हैं । मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहते हैं ।
ससारी आत्माओ के दो या तीन शरीर सदा रहते हैं। कुछ आत्माओ मे पाचो शरीरों के निर्माण की क्षमता रहती है। कम से कम दो शरीर- तैजस और कार्मण तो प्रत्येक ससारी आत्मा के साथ रहते ही हैं। इनका आत्मा के साथ अनादि सम्बन्ध है। इन दोनों शरीरो के छूटते
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गरीर गौर उमरा आध्यात्मिक मूल्य
४९ ही आत्मा मुक्त हो जाती है । फिर उसे समार मे परिभ्रमण करना नहीं पटता।
जमा कि हमने जाना तेजम और वामण ये दो मूष्टम गरीर प्रत्येक ममारी प्राणी के होते हैं । पर उसके माय भी ज्ञातव्य है कि वे वल इन दो गरीगे मे आत्मा अधिा समय तक नही रह सकती। वह केवल अतगल गति (एक जन्म मे दूसरे जन्म-स्थान में जान के महर का समय) मे होते हैं । नया जन्म लेने ही उम तीमरा गरीर धारण करना होता है । सूक्ष्म शरीर और आधुनिक विज्ञान
इन चानीग वर्षों में परामनोविज्ञान के क्षेत्र मे सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित सफो प्रयोग परीक्षण हा है। उसम सुधम शरीर अनेक रहम्य बनाया है। निरनियान पोटाग्राफी वाभामण्टन का फोटो लेने मे सफल मिट म मे विमान जगन् नी धारणा भी उनी है कि इन स्थल शरीर मे परे नी त पुरट है । इसके भीतर हुम यहा सूक्ष्म जग है।
मरते हुए आदमी 7 फोट' लिया गया, तव ऐसा लगा कि इस मागेर जंगी आवृति गरीर से बाहर आ रही है । प्रायमिक प्रयोगो ने हो पपता है इसे आरमा माना हो, पर वास्तव में यह सूक्ष्म शरीर ही है । आरमा अमूर्त है, वह दृश्य नहीं बन सकती । जैन-दर्शन के अनुसार सूक्ष्मतम मगर ज य त सहम चतु पर्शी परमाणु कधो से निर्मित है।
प"माण स्वध दो प्रकार के होते हैं --चतुपर्शी और अयस्पर्शी । अटारी परमाणु रवधो मे भार हाता है। विधन-आदेश होता है। प्रस्फुटन होता है और स्पून अवगाहन हाता है उनमे टोम अवरोध के पाहर जाने पी क्षमता नही रोती । चतु स्पर्गी पुद्गान सघो मे भार नहीं रोगा। होते हैं, 7 भागे। उनमे विद्या आप नही होना । उनको पनि प्रतिलोती है। सम्पत्रित होती है। वे दीवार के पार जा मरते है । सूक्ष्मतम गेरी परमाओ ने बना हुआ होता है।
पगमोदिन पी भाषा में पा जाता है यि सक्षम गरीर " पत्रिलोन" पणो मे निमित है । पम्प पुगनी पी भानि "न्यूनिलोन" चलो में भी भार, वियत-मादेश प्रापुटन नही होता । विशान उन यो प। भीतर माता है। पर गम्मत मानकरी मोनिर है, पोनर । हो पाता है दिन ये सारीपष्ट भापा नही, सलिए उसे भोपि रए देता है। इन बातमोर साकार पर सहम
र र है। पर मोतिर है। पोदार है। चतु म्पनी पुगणे ने TH
निलोन" पर भी जोरे सपने नहीं देरो गमरसे है। उस दूसरे रोमाद सर्प होता है त देन पर लगाते है।
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जैनधर्म जीवन और जगत् ही सूक्ष्म परमाणु हमारे सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं । आध्यात्मिक मूल्य
कर्म शरीर सस्कारों का वाहक है । जन्म-जन्मान्तरो की सस्कारपरम्परा इसके साथ जुड़ी हुई होती है । व्यक्ति का चरित्र, ज्ञान, व्यवहार, व्यक्तित्व, कर्तृत्व-इन सबके बीज कर्म शरीर मे ही सन्निहित हैं । जीनेटिक साइस के अनुसार व्यक्ति के आकार, प्रकार, सस्कार का मूल आधार "जीन" है। मानव शरीर मे लगभग एक लाख तीस हजार किस्म के 'जीन्स" हैं। प्रत्येक जीन-शृखला मे ढाई अरब "बेस" अथवा आधार-कण के जोडे होते हैं। इन्ही के आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। कर्म शास्त्रीय दृष्टि से व्यक्तित्व की विचित्रता का मूल कर्म शरीर है।
कर्म शरीर चेतना के सर्वाधिक निकट है। चैतन्य की रश्मियो को रोकने वाली सुदृढ दीवार है । चैतन्य को प्रकट करने के लिए उसका हटना आवश्यक है। भगवान महावीर ने कहा-"धुणेहि कम्म सरीरग"-कर्म शरीर को प्रकम्पित करो। दुर्बल करो। इसके समाप्त होते ही जन्म-परम्परा समाप्त हो जाएगी। इसका प्रारम्भ औदारिक शरीर की सिद्धि और शुद्धि से होता है। इसके लिए शरीर के क्रिया-तत्र, विचार-तत्र और नाडी तत्र का शोधन और सयम कर ग्रन्थि तन्त्र के स्रावो को बदला जा सकता है। उसका फलित है भाव-शुद्धि । भाव-शुद्धि से लेश्या पवित्र होती है। पवित्र लेश्या अध्यवसाय को प्रभावित करती है। पवित्र अध्यवसाय से कार्मणशरीर प्रकम्पित होता है । जन्म-जन्मान्तरो के सस्कार क्षीण होते हैं। मूर्छा टूटती है और चेतना का सूर्य समग्रता से प्रकाशित हो उठता है ।
आज अपेक्षा है, शरीर का सैद्धातिक और शरीर-शास्त्रीय अध्ययन भी अध्यात्म के सदर्भ मे करें और चेतना के केन्द्र तक पहुचने का पथ प्रशस्त करें।
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सदर्भ.-१ घट-घट दीप जले, पृष्ठ ५९, ६० आचार्यश्री महाप्रज्ञ ।
१ जैन-सिद्धात दीपिका ७/२४-२८ । २. जैन तत्त्व-विद्या पृ० २१,२२ । ३ प्रेक्षाध्यान, शरीर विज्ञान । ४ सबोधि-~१३/पृष्ठ २८७-२८८ ।
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पूर्वजन्म और पुनर्जन्म
जन्म और मृत्यु नार्वभौम नियम है । मनार का कोई भी प्राणी पापा नही है। जो जन्मा है वह निश्चित मरता है । हमारे जीवन के दो छोर है एक जाम, दूसरा मृत्यु । इन दोनो के बीच जोवन धारा अमर प्रवाहित है। जीवन, जन्म और मृत्यु ये तीनो हमारे प्रत्यक्ष है। प्रश्नता है - इन तीनों से परे भी पुछ है क्या ? जन्म से पहले क्या भा मन्यु 就 पश्चात् क्या होगा ? ये प्रश्न नादि युग मे लेकर आज तक रहस्यमय बने हुए है ?
?
भगरान महावीर ने यहा - 'अनेक व्यक्ति यह नही जानते में कौन से जाए और यहां जाऊंगा ? वैज्ञानिक शोध और प्रयोगो घी पराराष्ठा के एग युग में भी यह प्रश्न उतनी ही तीव्रता से पूछा जा रहा है ।
भगवान महावीर ने
"ननो वो उत्तरित परने ये तीन मायस्य का प्रत्यक्ष अनुभव, शानियो का अनुभव तथा दूमरो पे -श्रवण ।"
और
यद्यपि सभी पूर्वीय को पश्चिमी वस्तित्ववादी दानो ने पूर्वजन्म पुरम वो स्वीकार किया है। फिर भी भारतीय दर्शनो या भूत जाधार प्रत्यक्ष पर जोर पानियो का अनुभव हा है उपा पश्चिमी भिरहा है।
जन-दर्शन और जन्मान्तर का सिद्धान्त
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
भगवान् महावीर ने कहा -- "जावंतऽविज्जा परिसा सव्वे ते दुका समया । लुप्पति बहुसो मूढा, मसारमि अणतए।" (उत्तरायणाणि 1१)
जितने भी अविद्यावान अज्ञानी प्राणी है, वे गब दुगो को उत्पन्न करने वाले हैं। वे अनन्त ससार में बार-बार नष्ट-विनष्ट होते रहते हैं। मृत्यु को प्राप्त करते रहते हैं । आत्मा की कालिकता के बिना अनन्त बार मृत्यु सभव नही।
"न तस्स दुश्य विमयति नाइप्रो, न मित्तवग्गा न सुया न वधवा । एक्को सय पच्चणहोई दुप, फत्तारमेव अणुजाई फम्म ।। उत्तरज्झयणाणि १३/२३
सुख-दुग्न सबके अपने अपने होते हैं । इमीलिए उम अविद्या-जनित दु ख को न ज्ञातिजन बाट सकते हैं. न मित्र बाट मरते हैं, न बन्धु-बाधव । अपने कृत कम स्वय को ही भोगने पडते है । क्योकि कम सदा कर्ता का अनुगमन करता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि निरन्तर क्रियाशील जीवात्मा अपनी सत-असत् प्रवृत्ति से कम-मलो का सचय करती रहती है । पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना तण नए सस्कारो को सचय करना उमका स्वभाव है । उन्ही सचित सस्कारों की प्रेरणा से वह बार-बार जन्म और मृत्यु की अतहीन परम्परा मे परावर्तन करता रहता है। चार गतियो और चौरासी लाख जीव-योनियो मे सुख-दु ख का सवेदन करता रहता है । यही है पुनर्जन्मवाद ।
पुनर्जन्म की प्रतीति करने वाले या उसे प्रतिष्ठित करने वाले मुख्यत तीन स्रोत हैं
१ प्रत्यक्ष-ज्ञानी और दार्शनिक । २ ताकिक। ३ वैज्ञानिक ।
प्रत्यक्ष ज्ञानियो ने अनुभव के आधार पर प्रतिपादित किया- जन्म के पहले भी जीवन होता है और मृत्यु के बाद भी जीवन की धारा पुन चाल हो जाती है । वर्तमान तो मध्यवर्ती विराम है जिसका पूर्व और पश्चात नहीं होता उसका मध्य भी नही होता । जिसका मध्य है उसका पूर्वापर भाव भी निश्चित होता है। वर्तमान जीवन जन्म-परम्परा की मध्यवर्ती कडी है। वह पूर्व कडी और अपर कडी से जुडी है । वे कडिया ही पूर्वजन्म एव पुनर्जन्म हैं।
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पूर्व जन्म और पुनर्जन्म
पुनर्जन्म के साधक हेतु
अगदी दार्शनिकों ने भी नाना हेतुओं मे जन्मान्तरवाद को सिद्ध या उनमें से
हैं १शुम भी प, गोव, भय नादि की वृत्तिया होती है | २ शिशु जन्मते ही मां वा स्तनपान करने लगता है ।
३ उसमे हमने नजादि की प्रवृत्तिया होती है । उसे गुदु आदि की अनुभूति होती है । ५ उस जीवन का मोह और मयुरा भय होत है ।
यह समस्या वा ही परिणाम है। उसकी उक्त वृत्तिया और प्रवृत्तियां पूर्वाभ्यास की परिचायक है । पूर्वाभ्यास पुनजन्म के विना सभव
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याद पुत्र जीवन में ये वृत्तिया परिचित नहीं होती तो नत्पन्न मिधु में ये ग मिनती है ? (श्री मधु न्याययनिया ७ / ९-१० ) । बच्चे की छ मिया से ऐसा लगता है कि उस पुत्र जन्म सिवान की पूणना व पारण वह उसे यह स्पष्ट हो जाता है महभी पूर्वज
अंग चोवन उत्तरवस्था है ।
मोम यो
जातिस्मृति पूजन स्मरण ।
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का ज्ञान है स्मृति है । मारीव्यक्त नहीं कर सकता। इसे शव को उत्तरवर्ती अवस्था है,
परने वाला ममत्त प्रमाण है
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जैनधर्म जीवन ओर जगत्
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पनपी ओर फली फूली है, वैसे इसकी रामरेखा में एक ऐसी धारा भी सदा बहती रहती है जो पुनर्जन्म को स्वीकार नही करनी तथा पूर्वपक्ष का भरपूर विरोध भी करती है । उसके अनुसार न पूर्व जन्म होता है और न पुनजन्म । वर्तमान जीवन हो सत्य है यथार्थ है ।
ये दो धाराए दार्शनिक क्षेत्र मे बराबर चलती रही है । एक को आस्तिक कहा जाता है और दूसरे को नास्तिक | एक है आत्मा को मानने वाली धारा और दूसरी है आत्मा को न मानने वाली धारा । यद्यपि नास्तिक भी आत्मा को - चेतना को सर्वथा अस्वीकार नही करते। फिर भी वे उसको मात्र वार्तमानिक मानते हैं, त्रैकालिक नहीं । उनके अभिमत से चेतना स्वतंत्र द्रव्य नही है । कुछ ऐसे तत्त्वो या परमाणुओं का सयोग होता है, जिससे एक विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है । वही चेतना है, जा शरीर के साथ उत्पन्न होती है और शरीर के विनाश के माथ विनष्ट हो जाती है | मृत्यु के समय वे विशेष प्रकार के परमाणु विखर जाते हैं, उनके साथ चेतना भी विखर जाती है । जब तक जीवन, तब तक चेतना । जीवन समाप्त, तो चेतना भी समाप्त । उसके बाद कुछ नही बचता । न पहले नेतना, न बाद मे चेतना । न पहले जीवन, न बाद मे जीवन । न पूर्वजन्म, न पुनर्जन्म । जो कुछ है, वह वर्तमान ही है । न अतीत, न भविष्य | इस प्रकार ताकिको ने पुनर्जन्म के सिद्धात को अस्वीकृत कर दिया । इस प्रकार अस्वीकृति के पीछे उनका ठोस तर्क यह है कि शरीर हमारे प्रत्यक्ष है, पर चेतना प्रत्यक्ष नही । यदि चेतना जैसी कोई कालिक सत्ता होती तो जरूर दृष्टि का विषय बनती । शरीर मे प्रवेश करते और निकलते समय वह अवश्य दिखाई देती । दूसरा तक उनका यह है कि यदि पूर्वजन्म का अस्तित्व है तो उसकी स्मृति सबको होनी चाहिए । मृतात्माओ से सपर्क बना रहना चाहिए । वितु
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ऐसा होता नही है । यदि कही कुछ घटित होता भी है तो विरल 1 घटित घटनाओ की प्रामाणिकता असदिग्ध नही, इसलिए जीवन का अतीत और भविष्य तर्क से सिद्ध नही होता ।
जन्मान्तर के
विज्ञान की
1
तार्किक की भाति वैज्ञानिको ने भी लम्बे समय तक सिद्धान्त को स्वीकार नही किया था । इसका कारण यही है कि पहुच भी भौतिक जगत् तक ही थी । उसके प्रयोग और परीक्षण का केन्द्र - बिंदु पदार्थ या पुद्गल ही रहा । जब से विज्ञान ने सूक्ष्म जगत् के रहस्यो को पकडना प्रारम्भ किया, एक नई क्राति घटित हुई । आत्मा को उसने स्वीकार किया या नहीं, पर भौतिक जगत् मे कुछ अभौतिक तत्त्व भी हैं - यह विश्वास निश्चित वैज्ञानिक क्षेत्र मे पनपा है ।
पुनर्जन्म को स्वीकारने या न स्वीकारने के पीछे मुख्यत दो अवधारए काम कर रही हैं - आत्मवादी धारणा और अनात्मवादी अथवा भौतिक
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पृयजम और पुनर्जनम
पाटी धारा
सामवादी गनिमोने या किसान ने यही माना कि वह जगत मात्र भोगिर । पाननिय । उनी मान्यता अचारण भी नहीं थी। या पुगतनी म परे नी है, यह जानन या माधन भी उन्हें
पन या पृगन पी मीमा में रहने वाला व्यक्ति वात्मा तक कमे पर 7 77 लामा र पो बिना जीवन की लम्बी-परम्परा ज्ञान ६। नोमा में ही आरती । प्रन वात्मा बा, अभौतिक तत्त्व का।
नामा मम । , भौतिक, लय है। हमारे भान । साधन म्पनी गति मिरमारे पान के माध्यम है - इन्द्रियां मन गे । ना.मानती मे पं.
नाग मात्मा का शान जा साली । मृल। लारमा अमृत है। मूतं मे मूत्त
मारा जा 77TTI TIय मेला में जागरण म ही आत्मा । 3 TRITI | चारमा प्रावि मत्ता है।
नाम-उमा रोगी वात्रा रगी, बोर प्रकार में TIfTim
7 77 रनो का माध्यम बनता ।। IRRETIT जोर मे का प्रभादित भी योग है।
गत 7 प्रोत्याग - या यात्र धारप परतारे ।। IRRITI: मार मोर
दूर पा निर्माण 2 - 11 T H र सता रहा य नम आत्मा पम-मुक्त न
गा ।
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जैनधर्म · जीवन और जगत्
पनपी और फली-फूली है, वैसे इसकी समरेखा मे एक ऐसी धारा भी सदा बहती रहती है जो पुनर्जन्म को स्वीकार नही करती तथा पूर्वपक्ष का भरपूर विरोध भी करती है। उसके अनुसार न पूर्व जन्म होता है और न पुनर्जन्म । वर्तमान जीवन हो सत्य है यथार्थ है ।
ये दो धाराए दाश निक क्षेत्र मे बराबर चलती रही हैं । एक को आस्तिक कहा जाता है और दूसरे को नास्तिक । एक है आत्मा को मानने वाली धारा और दूसरी है आत्मा को न मानने वाली धारा । यद्यपि नास्तिक भी आत्मा को-चेतना को सर्वथा अस्वीकार नहीं करते । फिर भी वे उसको मात्र वार्तमानिक मानते हैं, कालिक नही । उनके अभिमत से चेतना स्वतत्र द्रव्य नही है। कुछ ऐसे तत्त्वो या परमाणुओ का सयोग होता है, जिससे एक विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है । वही चेतना है, जो शरीर के साथ उत्पन्न होती है और शरीर के विनाश के साथ विनष्ट हो जाती है । मृत्यु के समय वे विशेष प्रकार के परमाणु बिखर जाते हैं, उनके साथ चेतना भी बिखर जाती है। जब तक जीवन, तब तक चेतना । जीवन समाप्त, तो चेतना भी समाप्त । उसके बाद कुछ नही बचता । न पहले चेतना, न बाद मे चेतना । न पहले जीवन, न बाद मे जीवन । न पूर्वजन्म, न पुनर्जन्म । जो कुछ है, वह वर्तमान ही है । न अतीत, न भविष्य । इस प्रकार तार्किको ने पुनर्जन्म के सिद्धात को अस्वीकृत कर दिया। इस प्रकार अस्वीकृति के पीछे उनका ठोस तर्क यह है कि शरीर हमारे प्रत्यक्ष है, पर चेतना प्रत्यक्ष नही । यदि चेतना जैसी कोई त्रैकालिक सत्ता होती तो जरूर दृष्टि का विषय बनती । शरीर मे प्रवेश करते और निकलते समय वह अवश्य दिखाई देती । दूसरा तर्क उनका यह है कि यदि पूर्वजन्म का अस्तित्व है तो उसकी स्मृति सवको होनी चाहिए । मृतात्माओ से सपर्क बना रहना चाहिए। किंतु ऐसा होता नही है । यदि कही कुछ घटित होता भी है तो विरल । घटित घटनाओ की प्रामाणिकता असदिग्ध नही, इसलिए जीवन का अतीत और भविष्य तर्क से सिद्ध नही होता।
ताकिको की भाति वैज्ञानिको ने भी लम्बे समय तक जन्मान्तर के सिद्धान्त को स्वोकार नही किया था। इसका कारण यही है कि विज्ञान की पहुच भी भौतिक जगत् तक ही थी। उसके प्रयोग और परीक्षण का केन्द्रविदु पदार्थ या पुद्गल ही रहा । जब से विज्ञान ने सूक्ष्म जगत् के रहस्यो को पकडना प्रारम्भ किया, एक नई क्राति घटित हई। आत्मा को उसने स्वीकार किया या नही, पर भौतिक जगत् मे कुछ अभौतिक तत्त्व भी हैं-यह विश्वास निश्चित वैज्ञानिक क्षेत्र मे पनपा है ।
पुनर्जन्म को स्वीकारने या न स्वीकारने के पीछे मुख्यत दो अवधारणाए काम कर रही हैं -आत्मवादी धारणा और अनात्मवादी अथवा भौतिक
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पूर्वजन्म और पुनर्जनम
वादी धारणा।
अनात्मवादी दार्शनिको ने तथा विज्ञान ने यही माना कि यह जगत् मात्र भौतिक है । पोद्गलिक है। उनकी यह मान्यता अकारण भी नहीं थी। क्योकि पुद्गल की सीमा से परे भी कुछ है, यह जानने का साधन भी उन्हे उपलब्ध नहीं था । पुद्गल की सीमा मे रहने वाला व्यक्ति आत्मा तक कैसे पहुच सकता है ? आत्मा तक पहुचे विना जीवन की लम्बी-परम्परा ज्ञान की सीमा मे नही आ सकती । प्रश्न है आत्मा का, अभौतिक तत्त्व का ।
आत्मा सूक्ष्म है, अभौतिक है, अदृश्य है । हमारे ज्ञान के साधन स्थूल हैं । उनकी शक्ति सीमित है। हमारे ज्ञान के माध्यम हैं-इन्द्रिया मन
और बुद्धि । आत्मा इन तीनो से परे है। इनके द्वारा आत्मा का ज्ञान - आत्मानुभूति नही हो सकती । ये मूर्त हैं । आत्मा अमूर्त है। मूर्त से अमूर्त को नही जाना जा सकता । अतीन्द्रिय चेतना के जागरण से ही आत्मा का अनुभव होता है । आत्मा त्रैकालिक सत्ता है ।
इसीलिए वह जन्म-जन्मान्तरो की यात्रा करती हुई, अनेक प्रकार के शरीरो का निर्माण करती है । शरीर सुख-दुख के सवेदनो का माध्यम बनता है । चेतना के विकास और ह्रास से वह प्रभावित भी होता है ।
जैसे व्यक्ति एक जीर्ण वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है वैसे ही आत्मा मृत्यु के बहाने एक शरीर को छोड दूसरे शरीर का निर्माण करती है । यह क्रम तव तक चलता रहता है, जब तक आत्मा कर्म-मुक्त न हो जाए।
पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को तार्किक आधार पर सिद्ध और असिद्ध करने के प्रयत्न हए, पर तर्क कभी सतोषप्रद समाधान नहीं दे सकता। तर्क से कभी अन्तिम प्रमाण सिद्ध नही होता। प्रमाण होता है, अतीन्द्रियज्ञान या प्रयोग-परीक्षण । वर्तमान मे अतीन्द्रिय ज्ञानी या प्रत्यक्ष ज्ञानी हमे उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी वैज्ञानिक खोजो ने इस दिशा मे नए आयाम खोले
अव यह विषय सदिग्ध नही रहा है कि पूर्व जन्म होता है या नहीं परामनोवैज्ञानिको ने इस दिशा मे जो प्रयत्न किया है उससे धर्म का क्षेत्र भी उपकृत हुआ है । उन्होने पुनर्जन्म सम्बन्धी घटनामो का सकलन कर उन पर जो वैज्ञानिक अध्ययन-विश्लेषण किया है, उससे पुनर्जन्मवाद सिद्ध होता
उन्होने ऐसी घटनाओ का उल्लेख किया है, जिनको पढकर आश्चर्य होता है । अनेक बच्चो ने अपने पूर्वजन्म का वर्णन कर नवको चौका दिया। परीक्षा दो कमोटी पर वे घटनाए प्राय सत्य सावित हुई। उन्हें देख-सुनकर वे लोग नी विस्मित हो रहे हैं, जिनका विश्वास आत्मा और पुनर्जन्म में
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जैनधर्म जीवन और जगत्
नही था । अपेक्षा है विज्ञान और परामनोविज्ञान के साथ भारतीय अध्यात्मविज्ञान वह प्रक्रिया प्रस्तुत करे, जिससे विकसित चेतना का स्वामी मनुष्य स्वय अपने अतीत और अनागत की अवस्थाओ या जन्मो का अनुभव कर चेतना को अध्यात्म के नए आयाम मे प्रविष्टि दे सके ।
प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक ससार के अनेक देशो की विभिन्न जातियो मे पूनर्जन्म का व्यापक विश्वास जमा हआ है । बर्मा, चीन, जापान, तिब्वत, पूर्वी द्वीप समूह, लका, भारत आदि देशो मे तो पुनर्जन्म की मान्यता के बिना धर्म की भी सिद्धि नहीं होती। हिन्दू, जैन और बौद्ध जगत् का प्राय शत-प्रतिशत और ईसाई जगत् का बहुमत इस सिद्धात का अनुगामी है । वास्तव मे विश्व की एक तिहाई से अधिक जनसख्या पुनर्जन्मवाद को स्वीकार करती है।
उन-उन देशो के तत्त्व-चितको और धर्माचार्यों ने अनेक युक्तियो से, तों से तथा अपने निजी अनुभवो से पुनर्जन्म को सिद्ध किया है। अपने विश्वास को पुष्ट किया है । भारतीय परम्पराएं
जैन-दशन । अनुसार प्राणी यदि सत्कर्म करता है तो उसका अच्छा फल भोगता है । यदि वह असत्कर्म करता है तो उसका बुरा फल भोगता है।
कुछ कमों का पल उसी जीवन मे भोग लिया जाता है और कुछ कमों का फल वह अगले जन्म मे भोगता है । कुछ ऐसे भी निबिड कर्म होते हैं जो प्राणी को जन्म-जन्मान्तरो तक प्रभावित करते रहते है। उन्हे भोगने के लिए वह अनेक बार सद्गति और दुर्गति को प्राप्त करता है। सत्कर्मों के फन-भोग क उपयुक्त स्थान और वातावरण का मिलना सद्गति है और असत्कर्मों क फल-भोग के उपयुक्त स्थान, वातावरण आदि का मिलना ही दुगति है।
___ भगवान् महावीर आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के प्रबल समर्थक थे । उन्होने कहा-"परलोक नही है"-ऐसा मानना और चिंतन करना मूढता है।
भगवान ने कहा- "ससारी प्राणी अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक, तियंच, मनुष्य और देव - इस चतुतिमय ससार मे परिभ्रमण करता रहता है। उन्होन यह भी बताया कि प्राणी की कौन-सी वृत्ति और प्रवृत्ति कौनसी गति का निमित्त बनती है। महाहिंसा, महापरिग्रह, पचेन्द्रियवध और मासाहार ये दुर्गति नरक गति के हेतु है ।
विविध प्रकार के शील-सदाचार का पालन करने वाले व्यक्ति देवकल्पो व उसके ऊपर के देवलोको की आयु का भोग करते हैं ।
(उत्तराध्ययन ३/१३-१५)
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पूर्वजन्म और पुनर्जन्म
देवताओ के आवास उत्तरोत्तर उत्तम, मोह-रहिन और द्युतिमान होते हैं। वे देवो मे आवीण होते हैं। वहा रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान, दीप्तिमान, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हो-~- एसी काति वाले और सूर्य के समान महातेजस्वी होते हैं ।
(उत्तराध्ययन ५/२६-२७) इसी प्रकार जैन-आगमो मे सभी प्रकार की जीव-जातियो का विस्तृत विवेचन मिलता है । उसके आधार पर पुनर्जन्म का सिद्धात सुस्पष्ट हो जाता
हिन्दु धर्म में सर्वप्रथम ऋग्वेद मे परलोक सबधी मान्यता की सूचना मिलती है । इसके बाद उत्तरवर्ती साहित्य मे प्रचुर सामग्री मिलती है । ऋग्वेद के अनुसार पुण्यात्मा परलोक मे अपना पुरस्कार प्राप्त करते हैं और हत्यारे अधागृह (पाताललोक) मे भेजे जाते हैं।
उपनिपद्, ब्राह्मण साहित्य तथा सहिता-साहित्य के अध्ययन से सिद्ध होता है कि हिन्दू-परम्परा मे भी पुनर्जन्म, पूर्वजन्म आदि की स्पष्ट अवधारणा है । जैनो की तरह वैदिक धर्म मे भी आत्मा को अनश्वर माना गया है।
बौद्ध धर्म यद्यपि अनात्मवादी है, क्षणिकवादी है फिर भी पुनर्जन्म की मान्यता उममे भी रही है। तथागत बुद्ध के पैर मे काटा लग गया। इसका रहस्य उद्घाटित करते हुए उन्होने कहा-"भिक्षुओ। इस जन्म से इकाणवे वल्प पूर्व मैंने किसी शस्त्र द्वारा एक पुरुप की हत्या कर दी थी। उसी कर्म के विपाक स्वम्प मेरा पाव वाटे से बिघ गया है।" जातक कथामो मे भी बुद्ध के पूर्वजन्मो की कथाए सकलित हैं । सयुक्त निकाय मे बुद्ध कहते हैं .."सभी जीव मरेंगे । मृत्यु मे ही जीवन का अन्त होता है। उनकी गति अपने कर्मानुसार होगी, पाप करने से नरक और पुण्य करने से स्वर्ग प्राप्त होता है, इसलिए सदा पुण्य कर्म करें, जिससे परलोक बनता है। अपना कमाया पुण्य ही परलोक मे काम आता है।"
बौद्ध-दर्शन की यह निश्चित मान्यता है कि सत्व (प्राणी) अनेक जन्मो मे ससरण कर अपने कर्मों का भोग करता है। उसमे भी वर्तमान जीवन के कर्मफल का सवध भावी जन्मो ते माना गया है।
जैन-दर्शन की भाति बौद्ध-दर्शन में भी योनिया मानी गई हैं, जिन्हे वुद्ध प्रवचन मे भूमिया कहा गया है। वे भूमिया चार हैं--(१) अपाय भूमि (दुगतिया - नरक, तियंच, प्रेत और असुर) (२) कामसुगत भूमि (मुगतिया-- मनुष्य और कुछ देव जातिया), (३) रूपावचर भूमि (विशिष्ट देव जातियां) और (४) अरूपाववर भूमि। इससे यह भी ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन में जैन-दर्शन की भाति चार गतियो का सिद्धात भी मान्य
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जैनधर्म जीवन और जगत् मिश्र और यूनानी परंपराएं
भारत की तरह मिश्र और यूनान की प्राचीन परम्पराओ मे भी आत्मा के आवागमन का सिद्धात मान्य रहा है। विश्व मे इतिहास जनक माने जाने वाले यूनानी इतिहासवेत्ता हेरोडोट्स का मत है कि आत्मा के आवागमन के सिद्धात का प्रस्तोता होने के कारण पुनर्जन्मवाद की मान्यता का चाहे वह अविकसित रूप मे ही क्यो न हो मिश्र ही आदि स्रोत रहा है । मिश्र के विचारको ने ही सर्वप्रथम जीवात्मा की अविनश्वरता की कल्पना की है।
यहा तक कि यूनान के दार्शनिको ने आत्मा के आवागमन के सिद्धात को मिश्र से ही सीखा और कालातर मे आत्मसात् कर लिया ।
यूनानी दार्शनिक प्लेटो की भाषा इस तथ्य को प्रतिध्वनित कर रही है । उन्होने कहा-"मात्मा सदा नये-नये वस्त्र बुनती है। तथा उसमे एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है जो ध्रुव रहती है और अनेक बार जन्म लेती है।"
यह दूसरी बात है कि मिश्र वाले आत्मा को शरीर की छाया मात्र मानते थे । उसका स्वतत्र अस्तित्व नही मानते थे। इसलिए आत्मा के अमरत्व को स्थायी रखने के लिए ही मिश्र मे शव-परिरक्षण की प्रथा रही है । उनका विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा अबाध रूप से कही भी आ जा सकती है, लेकिन उसे वही लौट आना पडता है, जहा उसका शव रखा हुआ होता है।
ईसा के एक हजार वर्ष पूर्व वेबीलोन के दक्षिण हिस्से पर शासन करने वाली चाल्डर्स जाति के लोगों का भी यही विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि मत शरीर के नष्ट कर दिए जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है.। आदमी के मर जाने पर भी यदि शरीर सुरक्षित है तो आत्मा भी सुरक्षित रहती है । इसलिए उनमे भी शव-परिरक्षण की प्रथा थी। वे मृत शरीर के पुनरुत्थान और उनमे नव-जीवन के सचार मे विश्वास रखते थे।
मुर्दे को फूलो से ढक कर गाडने की प्रथा के पीछे परलोक का विश्वास काम करता था। मरणोपरात जीवन के अस्तित्व की मान्यता ही इसका कारण हो सकती है। ईसाई और इस्लाम परम्पराएं
ईसाई-धर्म पुनर्जन्म को नही मानता। किन्तु अनेक अग्रेज विद्वानो एव वैज्ञानिको ने सैद्धातिक रूप से पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। सुप्रसिद्ध अग्रेज कवि वर्डसवर्थ ने अपनी कविता “अमरत्व की कृति" मे लिखा है"जो आत्मा जीवन-नक्षत्र की भाति हमारे साथ उत्पन्न होती है, उसका कही अन्यत्र भी उद्भव है।" ईसाई मत मे पुनर्जन्म की मान्यता है ही नही ऐसा
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पूर्वजन्म और पुनर्जन्म तो नही कहा जा सकता, फिर भी पुनर्जन्म की मान्यता वहा सर्व-सम्मत भी नही है।
ईसा के जन्म से दो सौ वर्ष पुराने और उस समय के शक्तिशाली धम-सम्प्रदाय --- "एमेनेसेस" धर्मावलवियो मे जीव के शुभ-अशुभ कृत्यो के फल भोगने की मान्यता रही है । ईसाई मत पर इस मान्यता का प्रभाव भी पड़ा है।
एक जन्माध व्यक्ति को ईसा के सामने प्रस्तुत किया गया। ईसा ने इसे पूर्व जन्म के अपराधो का फल बताया।
पुनर्जन्म को न मानने वाले इस्लाम आदि धर्मानुयायी देशो की ऐसी अनेक घटनाए सामने आई हैं जो आधुनिक अन्वेषका को पुनर्जन्म के सवध मे पुनचितन करने के लिए प्रेरित करती हैं। उन देशो मे ऐसे अनेक व्यक्ति पाए गए हैं जो अपने पूर्वजन्म की घटनाओ का सही-सही वर्णन करते हैं । डॉ स्टीवन्सन ने पूर्वजन्म से सबधित जिन सात सौ घटनाओ का आकलन और वैज्ञानिक अध्ययन किया है उनमे अनेक ईसाई और इस्लाम धर्मानुयायी भी है।
दूसरी बात यह है कि ईसाई और इस्लाम आचार-दर्शन यह तो मानता ही है कि व्यक्ति अपने नैतिक शुभाशुभ कृत्यो का फल अनिवार्यतया प्राप्त करता है । यदि वह इस जीवन मे पूरा फल न भोग सके तो वह मरण के वाद भोगता है। इस प्रकार के सिद्धातो के आधार पर चाहे अनचाहे वे मरणोत्तर जीवन को स्वीकार कर ही लेते है । पाश्चात्य दार्शनिक और वैज्ञानिक
नवीन पाश्चात्य दार्शनिक शापनहावर की दृष्टि मे पुनर्जन्म नि सदिग्ध तत्त्व है । उन्होने इतनी सहजता से स्वीकार किया है कि मेरा अनुभव ऐसा है कि पुनर्जन्म के बारे में जो भी पहले-पहल सुनता है उसे भी उसका अस्तित्व स्पष्ट हो जाता है ।।
आधुनिक युग के अनेक परामनोवैज्ञानिको तथा भूतविद्या के शीर्षस्य जानकारो ने ऐसे प्रमाण एकत्रित किये हैं जो मृत्यु के बाद भी जीवन के अस्तित्व को वास्तविक बताते हैं ।
पामस हपनले, राबर्ट मायस और डॉ० जे० वी० राइन जैसे विख्यात पश्चिमी चितको ने नात्मा के जनस्वर रूप और मरणोपरात जीवन की स्थिति में अपना विश्वास प्रपट किया है।
वतमान युा देवल मान्यता पा वा दाशनिक स्थापनानो का युग नहीं है। पर वजानिक पुरा है । प्रयोग और परीक्षण का युग है। उसी सिद्धात सो युग की स्वीकृति प्राप्त होती है जो प्रायोगिक हा। हजारो शतान्दियो
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
तक पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का जो सिद्धात मात्र मान्यता या दार्शनिक चर्चा का विषय रहा था, बीसवी सदी के उत्तरार्ध से वह भी प्रयोग और परीक्षण की अणु-भट्टी मे तपाया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान की एक शाख। है-परामनोविज्ञान । इस पर रिसर्च करने वाले इस तथ्य तक पहुचे हैं कि जीवन की एक लम्बी परम्परा है। उसका अतीत भी है और भविष्य भी है । उसके कुछ बुनियादी हेतु हैं, जैसे
शिशुकालीन अवस्था मे विलक्षण प्रतिभा का होना ।
शिशु-अवस्था से ही विभिन्न रुचियो अथवा भय आदि के भावो का होना ।
देह-मुक्त आत्माओ से सम्पर्क स्थापित करना और उसके सदेशो को प्राप्त करना।
माध्यमो अथवा सिद्ध पुरुषो द्वारा व्यक्ति विशेष को देखकर उसके पूर्वजन्मो का कथन करना ।
इस क्षेत्र मे भारत तथा विदेशो मे बहुत बड़ा काम हो रहा है। इस विषय का साहित्य प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हुआ है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि सभी दर्शनो की धार्मिक परपराए जो आत्मा के आवागमन को स्वीकार करती हैं, वे सब मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान की ऋणी हैं, जिसके अनुसधानात्मक आलोक मे प्राचीन धार्मिक मान्यताए सही सिद्ध हो रही हैं।
पुनर्जन्मवाद की स्वीकृति मे ही आत्मवाद, कर्मवाद और निर्वाणवाद की सार्थकता है। यही आचार-शास्त्र का आधार है। पवित्र जीवन की प्रेरणा है । पवित्र आचार-व्यवहार जहा व्यक्तिगत सुख-शाति का हेतु है। वहा वह सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र को प्रभावित कर उसे स्वस्थता प्रदान करता है।
संवर्म १ जैन-दर्शन मनन और मीमासा, पृष्ठ २९५
२. श्री भिक्ष न्यायकणिका ७/९-१० ३ घट-घट दीप जले, पृष्ठ ५३-६१ ४ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ, खड ४, पृष्ठ ३७८
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पुण्य और पाप
शुभ कर्म पुण्यम् । अशुभ कर्म पापम् ||
- ( जैन सिद्धात दीपिका, ४ / १२, १४)
सामान्य भाषा मे सत्कर्म को पुण्य और असत्कर्म को पाप कहते हैं, किन्तु जैन तत्त्व-दर्शन की भाषा मे शुभ कर्मों की उदयावस्था को पुण्य और अशुभ कर्मों की उदयावस्था को पाप कहा जाता है । सत्कर्म और असत्कर्म क्रमश पुण्य और पाप धन के निमित्त हैं । कारण मे कार्य का उपचार होने से लोक व्यवहार मे पुण्य और पाप शब्द सत्क्रिया तथा असत्क्रिया के अर्थ मे प्रयुक्त हो जाते हैं ।
आत्म-प्रदेशो के साथ बधे हुए कर्म-पुद्गल जब तक उदय मे नही आते, तब तक जीव को सुख-दुख आदि की अनुभूति नही होती । जब बद्ध फर्म उदय मे आते हैं और सुखद दुखद सवेदन के निमित्त बनते हैं, तब वे पुण्य-पाप कहलाते हैं ।
सात वेदनीय, शुभनाम, उच्चगोत्र और शुभ आयुष्य कर्म पुण्य है । अथवा इमे यो भी कह सकते हैं कि शुभ कर्मों के उदय से जीव को सुख सवेदन, शुभ नाम, उच्च-गोत्र और शुभ आयुष्य की स्थिति प्राप्त होती हे ।
बेविदा दाणविदा य, गरिदा जे य विस्सुता । पुण्ण- फम्मोदयन्भूत पीति पावति पोवर ॥
इस धरती पर जितने भी विश्व विश्रुत देवेन्द्र, दानवेन्द्र अथवा नरेन्द्र हुए हैं, वे सव पुण्य कर्मों के उदय से ही जन-जन के प्रीति पात्र वने हैं | उन्हें पर्याप्त जनप्रियता प्राप्त हुई है । फर्म- शास्त्रीय व्याख्या भी यही है, जैने शुभनाम वर्म के उदय मे शरीर का सौन्दर्य, दृढना, जन प्रियता आदि उपलब्ध होते हैं । शुभगोत्र वमं के उदय मे उच्चता, लोक्पूज्यता आदि प्राप्त होते हैं। शुभ आयुष्य वर्म के उदय से सुखद दीर्घायु प्राप्त होती है । सात वेदनीय कम के उदय ते शारीरिक और मानसिक सुख की अनुभूति होती है ।
पुण्प-बधन का हेतु - जितने भी प्रकार को सत्प्रवृत्ति है, वह पुण्यधना हेतु है ।
अहितक, अपरिग्रही, त्यागी साधु-सतो की साधना मे सहयोग
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जैनधर्म जीवन और जगत्
करना - यह भी एक सत्प्रवृत्ति है, पुण्य - बन्धन का हेतु है । इस सहयोग - भावना से सद्गृहस्थ सतो की अध्यात्म-साधना में आलम्बन बनते हैं | नवतत्त्वो के विवेचन मे पुण्य-तत्त्व के नौ भेद बताए गए है, यह उक्त दृष्टिकोण का फलित है । जिस निमित्त से पुण्य का बन्धन होता है, वह पुण्य उसउस नाम से अभिहित हो गया । जैसे सयमी को शुद्ध अन्न-दान से होने वाला शुभ, कर्म - बन्ध अन्न-पुण्य कहलाता है, वैसे ही पान-पुण्य लयन-पुण्य, शयनपुण्य, वस्त्र- पुण्य, मन-पुण्य, वचन-पुण्य, काय पुण्य और नमस्कार पुण्य ज्ञातव्य है । इसका अर्थ यह नही है कि पुण्य - बन्धन के हेतु इतने ही हैं । वास्तव मे पुण्य-बन्धन के हेतु अनेक हैं । यह विवेचन विशेष तो विवक्षा के सदर्भ मे किया है ।
पुण्य का हेतु सत्प्रवृत्ति - एकत्व की विवक्षा से प्रतिपादन करें तो कह सकते हैं, पुण्य - बधन का एक मात्र निमित्त है - सत्प्रवृत्ति । उसके बिना पुण्य का बन्धन नही होता । सत्यप्रवृत्ति मोक्ष का उपाय है इसलिए वह धर्म है । धर्म के बिना पुण्य नही होता । जैसे अनाज के साथ "खाखला " - तुष पैदा होता है, पर तुष के लिए खेती नही की जाती, वह प्रासंगिक फल है । वैसे ही धर्म के साथ पुण्य का बन्धन होता है पर पुण्य के लिए धर्माराधना विहित नही है । धर्म - साधना आत्म शुद्धि के लिए की जाती है, पुण्य उसके साथ सहज होता है । वह धर्माचरण का प्रासंगिक फल है ।
कुछ परम्पराए पुण्य का बन्धन स्वतन्त्र मानती हैं, उनके अभिमत से मिथ्यात्वी के धर्म नही होता, पर पुण्य का बन्धन होता है । तत्त्व- चितन की कसौटी पर यह मान्यता खरी नही उतरती । यद्यपि मिथ्यात्वी के सवर धर्म नही होता, पर निर्जरा धर्म तो होता ही है, वही उसकी आतरिक शुद्धि का निमित्त है । अन्यथा मिध्यात्वी प्राणी सम्यक्त्व को कैसे प्राप्त कर सकता है?
धर्म और पुण्य
धर्म के बिना पुण्य नही होता । पुण्य का धर्म के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है, फिर भी धर्म पुण्य एक नही हैं । दोनो सर्वथा भिन्न हैं ।
धर्म जीव है, क्योंकि वह जीव की प्रवृत्ति है । पुण्य अजीव है, क्योकि वह शुभ कर्म है । कर्म पौद्गलिक है, इसलिए अजीव है ।
धर्म मुक्ति का हेतु है, पुण्य बन्धन है अत ससार का हेतु है । धर्म, आत्मा की पर्याय है, पुण्य पुद्गल की पर्याय है । निर्जरा-धर्म सत्क्रिया है, पुण्य उसका प्रासंगिक फल है ।
पाप-अशुभ कर्मोदय
अशुभ कर्मों के उदय को पाप कहते हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
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पुण्य और पाप मोहनीय और अतराय ये अशुभ कम हैं । शेप चार कर्म शुभ, अशुभ दोनो हैं । अणुभ कर्मों की उदयावस्या पाप है । उपचार से पाप कर्म-बन्धन के हेतु भी पाप कहलाते हैं। वे मुख्यत अठारह हैं, जैसे-१ प्राणातिपात पाप, २ मृपावाद पाप, ३ अदत्तादान पाप, ४ मैथुन पाप, ५ परिग्रह पाप, ६ माघ पाप, ७ मान पाप, ८ माया पाप, ९ लोभ पाप, १० राग पाप, ११ उप पाप, १२ कलह पाप, १३ अभ्याख्यान पाप, १४ पैशुन्य पाप, १५ पर-परिवाद पाप, १६ रति-अरति पाप, १७ माया मृषा पाप और १८ मिथ्यादर्शनशल्य पाप ।
जिमके उदय से आत्मा अशुभ प्रवृत्ति मे प्रेरित होती है, वह मोहनीय कर्म भी पाप कहलाता है । जैसे-जिस मोहोदय से प्राणी हिंसा के लिए प्रेरित होता है, वह प्राणातिपात पाप कहलाता है। जव असत्य मे प्रवृत्त होता है तब वह मृपावाद-पाप कहलाता है । जैसे - धर्म और पुण्य भिन्न हैं। वमे ही अधर्म और पाप भी भिन्न हैं । अधर्म असत् प्रवृत्ति है और पाप उसके द्वारा आकृष्ट अशुभ कर्मों की उदयावस्था है । अधर्म चेतना की वैभाविक परिणति है और पाप कर्म-पुद्गलो की परिणति है।
शुभ-अशुभ कर्मों की वद्धावस्था क्रमश द्रव्य पुण्य-पाप है और उदयावस्था भाव पुण्य-पाप । कम-पुद्गल जव तक उदय मे नही आते, फलशून्य रहते हैं, तब तक "वन्ध" कहलाते हैं । जब उदय मे आकर चेतना को प्रभावित करने लगते हैं तव पुण्य-पाप कहलाते हैं। पुण्य-पाप-दोनो बन्धन हैं
व्यवहार के धरातल पर पुण्य काम्य और पाप अकाम्य माना जाता है। हर अध्यात्म की भूमिका मे ये दोनो ही त्याज्य हैं । पुण्य और पापये दोनो ही पौद्गलिक होने के कारण आत्मोदय के वाधक तत्त्व हैं। दोनो वन्धन हैं। दोनो वेडिया है । अतर इतना ही है कि पुण्य सोने की वेडी है जोर पाप लोहे की वेडी । पर वेडी आखिर ही है। बन्धन का हेतु है।
सी प्रकार पुष्प और पाप दोनो बन्धन हैं, मुक्ति के वाधक हैं। पुण्य की कामना पाप
यापि पुण्य का वन्धन मत्क्रिया के द्वारा होता है, शुभ योगो की प्रबत्तिने होता है । भयोग में निर्जरा होती है और साथ मे पुण्य का वधन तो होता है । लेकिन पुण्य के लिए सक्रिया करना मध्यात्म-साधक के लिए पिरित नरी है। साधा तप साधना लादि नात्म-शुद्धि के लिए करे, निर्जरा
लिए पारे, पर पुष्य की कामना से न करे। क्योकि पुण्य मुक्ति का साधत सीप
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
की इच्छा करता है । भौतिक सुखो की इच्छा करना पाप है-बन्धन का हेतु
पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मूढता और मूढता से पाप का आचरण होता है । पाप दु ख का हेतु है । इस प्रकार पुण्य की परम्परा दुख -गभित है। पुण्य की आकाक्षा वे ही करते हैं, जो परमार्थ से अनभिज्ञ
कतिपय धार्मिक परम्पराए पुण्य के लिए सत्क्रिया का समर्थन करती हैं । आचार्य श्री भिक्षु ने इस मान्यता को स्वीकृति नहीं दी। आगमिक आधार पर उन्होने सिद्ध किया कि धर्म के बिना पूण्य का स्वतत्र बन्धन नही होता तथा पुण्य की इच्छा से धर्म करना अनुचित है। उन्होने कहा-जो पुण्य की कामना से तप साधना आदि करते हैं, वे मक्रिया के सुफल से वचित रह जाते हैं। पुण्य चतु स्पर्शी-कर्म-पुद्गल हैं । जो उसकी इच्छा करते हैं वे मूढ हैं । वे धर्म और कर्म के मर्म को नहीं समझते ।
पुण्योदय से होने वाले भौतिक सुखो मे जो प्रसन्न तथा अनुरक्त होते हैं वे कर्म का सग्रह करते हैं। दुख-परम्परा को आगे बढाते हैं। निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो पुण्य की अभिलाषा करने वाला भोगो की अभिलाषा करता है । भोग नरक, तिथंच आदि गतिचक्र मे परिभ्रमण का हेतु है ।
श्रीमज्जयाचार्य ने लिखा है-पुण्य की इच्छा मत करो, वह खुजली रोग जैसा है, जो प्रारम्भ मे प्रिय लगता है, किन्तु उसका परिणाम विरस है। स्वर्ग, चक्रवर्ती आदि के सुख-भोग भी नश्वर हैं ।
जैन आगमो ने गाया - ऐहिक या पारलौकिक कामना की पूर्ति के लिए तथा यश-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए तप मत करो । वह मात्र निरा के लिए करो।
वेदात के आचार्यों ने कहा-मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध दोनो ही प्रकार के कर्म मे प्रवृत्त नही होना चाहिए । यहा काम्य और निषिद्ध कर्म का वाच्यार्थ पुण्य और पाप ही है। सामान्यत पुण्य काम्य है और पाप निपिद्ध । अध्यात्म के तीर्थयात्री के लिए दोनो वर्ण्य हैं ।
जैन-दर्शन के अनुसार पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है । कर्मक्षय के लिए अकर्म वनना आवश्यक है । प्रवृत्ति-निरोध से कम-निरोध होता है। साधना के प्रारम्भ मे अमत्कर्म का निरोध होता है। एक भूमिका तक पहुचने के पश्चात् सत्कर्म का भी निरोध हो जाता है । यही कर्म-क्षय की प्रक्रिया है यही दुख-क्षय का उपाय है । भगवान् महावीर ने 'सूयगडो' सूत्र में पहा
न कम्मुणा कम्म खति वाला । अकम्मुणा कम्म खति धीरा ॥
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पुण्य और पाप
कर्म मे क्मक्षय नही होता । धीर पुरुष अकर्म से कर्म क्षय करते हैं।
गीता का शिक्षापद है बुद्धिमान वह है जो सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) दोनो का परित्याग करे। इन सन्दर्भो से सिद्ध हो जाता है कि अध्यात्म साधक के लिए पुण्य और पाप दोनो त्याज्य हैं।
तत्त्व-मीमासा की यात्रा मे धर्म और अधर्म तथा पुण्य और पाप का सम्यक् अववोध करना नितात अपेक्षित है।
धर्माधमो पुण्य-पापे अजानन् तत्र मुह्यति । धर्माधर्मी पुण्य-पापे, विजानन् नात्र मुहति ।।
-सबोधि २/४० जो व्यक्ति धर्म और अधर्म तथा पुण्य और पाप को नहीं जानता, वह इस विषय मे मूढ़ होता है । जो इन्हें सम्यक् रूप से जानता है, वह इस विषय मे मूढ़ नही होता।
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
वह स्वतत्र भी है और पूर्वोक्त चारो सूक्ष्म प्रवृत्तियो की अभिव्यक्ति का हेतु
चार सूक्ष्म वृत्तिया अशुभ ही होती हैं । योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। अशुभ योग से अशुभ कर्मों का वन्ध होता है। शुभ योग से शुभ कर्मों का बन्ध होता है और साथ मे निर्जरा भी होती है। जैसे कुछ औषधिया रोगो का नाश करती हैं और शरीर का पोषण भी करती हैं, ठीक यही स्वभाव और काय शुभ योग का है। साधक पहले अशुभ का त्याग करता है और धीरे-धीरे शुभ कर्म भी छूट जाता है ।।
शुभ प्रवृत्ति जब फलाशसा और वासना से शून्य होती है, तब क्रमश निवृत्ति का विकास होता है। पूर्ण निवृत्ति की स्थिति मे आत्मा के बन्धन नही होता।
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मोक्ष और मोक्ष के उपाय
दात्मनः स्वरूपावस्य
जैन-धर्म और मोक्ष
जैन-धर्म का लक्ष्य है-मोक्ष । यही है जैन साधना का गन्तव्य जिगर । कृत्स्नफर्मक्षयादात्मनः स्वरूपावस्थान मोक्षः ।
-० सि० वी० ५/१९ समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होने पर आत्मा अपने ज्ञानदर्शनमय स्वरूप में अवस्पित होती है, उसका नाम मोक्ष है। दूसरे शब्दो में बद्ध आत्मा का मुक्त होना ही मोक्ष है । इस दृष्टि से मुक्त आत्मा और मोक्ष भिग्न नहीं है । जिस अवस्था मे कमं-पुद्गलो का ग्रहण रुक जाता है और गृहीत फों का सपूर्ण क्षय हो जाता है, वही मोक्ष है। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा अपने कारणो मे ही वन्धती है और अपने कारणो मे ही मुक्त होती है। दूसरा कोई भी उसे बांधने वाला या मुक्त करने वाला नहीं है ।
___आत्मा और पार्म का सम्बन्ध अनादिकालीन है, फिर भी उचित उपायो द्वारा उस सबंध पा भी बत हो सकता है। जैसे धातु-मोधन पी प्रक्रिया से धातु और मिट्टी बलग-अलग हो जाते हैं, वैगे ही अध्यात्मसाधना की विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाती है।
जैन सिद्धात वी भाषा मे मुक्त नात्मानो को सिद्ध पहते हैं। मिद भगवान् फो बुद्ध, मुक्त, परमात्मा, परमेश्वर या ईश्वर नाम से भी अभिह्नि विरा जाता है । सिद्धारमाए बनन्त हैं । इसीलिए जन-दर्शन एकश्वरवाद को रवीर नहीं परता।
कर्म-मुक्त होते ही आत्माए लोरान-लोपा-जीपं तक पहब जाती ।। पही उनका रणयो निवास होता है। उनके निवास-स्पल को मिद्ध-मिता परते हैं । उनका दूसरा नाम है ---"पित्यागभारापृथ्वी ।'
मन-प्रमण या हेतु है-राग-द्वेष । मुत्तारमानो में गग-पगमूद नष्ट हो जाते हैं, तोलिए उनका पुनर्जन्म नहीं होता। ये पुनमंत्री हैं ।
मोह में मन, वाणी नौर पमं नहीं है। पेट मनीर में होते है। मिस गोरी है, इसीलिए भरा है।
मोटर मे जामा मच्चिदानन्द स्वरूप हो गती है। दर लामा को दस्ता है। मुद-दुघ, गम-सलाम, म-मृत्ल, दिउ?
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जैनधर्म • जीवन और जगत्
उसे कभी प्रभावित नहीं करते । वह देहातीत है, द्वन्द्वातीत है।
प्रश्न होता है कि जब बन्धन और मुक्ति दोनो आत्मा के अधीन हैं तो फिर जीवात्मा बन्धन से मुक्ति की दिशा मे कैसे प्रस्थान कर सकती है ? बन्धन-मुक्ति की प्रक्रिया क्या है ?
जैन साधना-पद्धति के अनुसार मोक्ष के उपाय हैं -सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र । एक दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा का स्वरूप है। मोक्ष का अर्थ है -स्वरूप की उपलब्धि या स्वरूप मे अवस्थिति । उमका उपाय है –सवर और निर्जरा।"
जैसे किसी बहुत बड़े तालाब के जलागम के स्रोतो को बन्द कर दिया जाए, भीतर के पानी को जल-प्रणालियो द्वारा बाहर निकाल दिया जाए तथा बचे-खुचे पानी का सूरज की प्रखर किरणो से अवशोषण हो जाए तो तालाब क्रमश खाली हो जाता है, सूख जाता है, वैसे ही आत्मा की ओर आने वाले कर्म-प्रवाह का सवर द्वारा निरोध कर देना और अन्त. स्थिति कर्म-मलो का निर्जरा द्वारा निष्कासन और अवशोषण कर देना, यही है मुक्ति की प्रक्रिया। इससे कर्म-पुद्गलो का ग्रहण रुक जाता है और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है । ऐसा होने पर आत्मा सिद्ध-बुद्ध, परमात्मरूप मे अवस्थित हो जाती है । अब उसके पास ससार मे रहने का कोई कारण नही रह जाता । अतः वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है ।
तात्पर्य की भाषा मे मोक्ष के साधक तत्त्व दो हैं-सवर और निर्जरा । दूसरे शब्दो मे निवृत्ति और सत् प्रवृत्ति । सवर-मोक्ष का पहला उपाय है-सवर ।
आश्रवनिरोधः सवर ।
जै. सि दी ५/१ मोक्ष के बाधक और साधक तत्त्वो की चर्चा में आस्रव को बाधक तथा सवर और निर्जरा को साधक माना गया है। सवर आत्मा की वह परिणति है, जिससे आस्रव का निरोध होता है । सवर मोक्ष का प्रकृष्ट हेतु है । वह आत्म-सयम करने से उपलब्ध होता है । सवर आस्रव का प्रतिपक्षी है। इसीलिए जितने आस्रव हैं, उतर ही सवर हैं । आस्रव के पाच विभाग हैं तो संवर भी पाच प्रकार का है ।
सम्यक्त्व सवर-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। जीवअजीव आदि नौ तत्त्वो के प्रति सम्यक श्रद्धा का होना तथा विपरीत श्रद्धा का त्याग करना सम्यक्त्व सवर का स्वरूप है। यह मिथ्यात्व आस्रव का प्रतिपक्षी है।
विपरीत सवर-बाह्य पदार्थों के प्रति अनासक्ति अथवा अशुभ योग का त्याग विरति सवर है। इसके दो रूप हैं-देश विरति और सर्व
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मात्र वोर मोक्ष के उपाय
विति । सपाप-प्रवत्तियो का आशिव न्याग देश विरति और जीवन मर पपिए सपूर्ण त्याग सर्व विरति है । विरति सवर अविरति आस्रव का प्रतिपक्षी है।
अप्रमाद सवर-आत्म-विकास के प्रति जागरूक भार अप्रमाद मकर है। इस स्थिति में पहुंचने के पश्चात् व्यक्ति पापकारी प्रवृत्ति नहीं कर गाता । यह प्रमाद आश्रव का प्रतिपक्षी है।
अपाय सवर क्रोध, मा, माया बोर लोम का निराध करना जापाय गवर है। वमे राग-द्वेषात्मक उत्ताप जितना कम होता है, उतना ही कपाय कम होता है। पर अकपाय सवर फलित होता है पपायर मर्वचा ताण होन से । यह उपाय आनव का प्रतिपक्षी है।
अयोग-सवर योग या अय है प्रवृत्ति । प्रवृत्ति या निरोध करना अयोग मवर है । प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है -शुभ योर नशुम । नगम प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध व्रत (विरति) मवर है। शुभ प्रवृत्ति का गपूण निगेध योग मपर है । जव नक चोरी का मपूर्ण निरोध नही होगा, उम योग-गपम को अयोग सपर का नमूग माना जाता है । जयोग वर की म्पिनि मे पहन जाने में तत्काल बाद जीव मुक्त हो जाता है।
इन पान सवरो मे पहने सम्यक्त्व म पर सोना', फिर विति होती है। उसके पश्चात् प्रमग अप्रमाद, जरुपाय और प्रयोग की स्थिति उपलब्ध होती है।
वैसे सबर में जय प्रकार बनाये गए है, पर वे विभिन्न विरक्षाको में आधार पर वर्णित हैं। सबरोबील भेद भी काफी प्रसिर । मामान्यन उसका समावेग एन पाच भेदो मे हो जाता है।
निर्जरा - "तपना पमविच्देशादात्मनं मल्य निर्जरा । तपस्या दाग कम -मल का दिन्देवाने ने जो जात्मा पी चिनदि, उज्यमा होगे है, उसे गास्त्रीय भाषा मे निजरा मरते हैं। निजरा रा कान पाय हैतप । गलिए तप को भी निर्जरा यहते है । जैन नाधना या विस्तार तर है जापार परहना है । लपवारहप्रकार है। इसलिए उन माधना-पान पो "हा नोयाग' भी कहते रनिरा तपापलिजन र घी भाति मिजंगनी बारह प्रचार
१ मा मारधिन या शिदधिर जाहा-परिवार ।
२ कोदरी नामा पत पुरानो मामला जनानी है ।म पान-पार दानो मनितिमी भोग-मान पालीकरण गरी तप ।
भिसापरी दूर मfram . दिन KITर विगारे द्वारा भारत दरि-17 - मोटि
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
करना वृत्ति-सक्षेप है।
४. रस-परित्याग-दूध, दही, घी आदि सरस-स्निग्ध पदार्थों का वर्जन करना, अस्वाद का अभ्यास करना रस-परित्याग है।
५ कालक्लेश-विभिन्न आसनो द्वारा शरीर को साधने का नाम कायक्लेश है।
६. प्रतिसलीनता-इन्द्रिय, मन आदि की वहिर्मुखी प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसलीनता है।
__तप के उक्त छह प्रकारो को बाह्य तप कहते हैं। ये विशेष रूप से स्थूल शरीर को प्रभावित करते हैं और बाह्यरूप से दिखाई देते हैं, इसलिए इन्हे बाह्य-तप कहते हैं, तथापि मतरग तप को पुष्ट करने मे इनकी अह भूमिका रहती है । तपोयोग की यात्रा मे खाद्य सयम का पहला स्थान है । बाह्य तप के चार भेद इसी परिप्रेक्ष्य मे किए गए हैं। साधना के विकास हेतु यह मावश्यक भी है । खाने के सयम के विना सयम और तप की अग्रिम भूमिका तक नही पहुचा जा सकता। अच्छाई का प्रारम्भ आहार-शुद्धि के व्रत से होता है। आहार-शुद्धि से सस्कार-शुद्धि, सस्कार-शुद्धि से विचार-शुद्धि और विचार-शुद्धि से व्यवहार-शुद्धि होती है।
बाह्य तप की भाति अतरग तप के भी छह प्रकार हैं।
१ प्रायश्चित्त दोष की विशुद्धि के लिए प्रयत्न करना प्रायश्चित्त हैं। इससे आत्मा निर्मल होती है । ऋजुता-पूर्वक प्रायश्चित्त करने से मन की ग्रन्थियो का मोचन होता है और नया ग्रन्थिपात नही होता ।
२. विनय-कर्मों का अपनयन करना विनय का आध्यात्मिक पक्ष है । अह-विसर्जन, बडो का बहुमान और उनके प्रति असद् व्यवहार का वर्जन विनय का व्यावहारिक पक्ष है।
३. वैयावृत्य-सहयोग की भावना से सेवा-कार्य मे जुडना वयावृत्य है । इस तप की आराधना करने वाला छोटो-बडो की अपेक्षामो को समझ कर सेवा-भावना और कर्तव्य-निष्ठा से उनका सहयोगी बनता है। पूर्ण आत्मार्थी भाव का विकास होने पर ही वयावृत्य किया जा सकता है । यहा आध्यात्मिक सेवा ही तप की श्रेणी में आती है। वही निर्जरा का कारण है।
४. स्वाध्याय-आध्यात्मिक ग्रन्थो के अध्ययन, मनन और निदिध्यासन का नाम स्वाध्याय है।
५. ध्यान - मन की एकाग्रता तथा योग-निरोध का नाम ध्यान है। इससे चित्त-शुद्धि और आन्तरिक निर्मलता का विकास होता है । ध्यान की मन्तिम निष्पत्ति है-ज्ञाता-द्रष्टा भाव को जागृत कर आत्म-स्वरूप में अवस्थित होना।
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माय बर मोटार
प
___ यानि । यह मरीर में प्रारम्म Eni जागना राग यमन दुगों का मन बग्ने रामाना गया TIET THI, मानगिक और भावनात्मक 11 माजEPI नार-जतिन मो समस्या से छुटकारा मिलता
for प्रा. पदादरग्रह या विजन, महयोग पा जन, गवगा गिजन और पो विजन । ___ प्रसार वन ETrमरीनविपरम में प्रभावित
गम म मरण ना मोक्ष माधना में जन्नग हेतु ITTEAlए ये पाय तर सपनीप्रीम जाते है । बाघ नारी भाति मगरमपन मगेर प्रमापित , ऐसा प्रतीत नहीं होता, पितु भीतर ही गातर गरवार (राम) शरीर म विस्फोट करने की प्रतिया परती है।
जैर-धम जर प्रियापारी नही है । ना उगमे गात तप पी प्रतिष्ठा मा। 7-धम बरा वा अनुष्ठान जोटियोर मन ा सिमर परता तथा यम-गरीर पाता है । वाम गरीर का तापक होने में ही राप आदिमय मिलना पोमपादित कर सपना है।
राग और पर-य है, दिमाघ १. मात्मा गे पद पर पारे। सचम गेर नप रामाधरामेबारमा विभागमुना, स्वभाव मे रिवाजानी र नायर की जापाम दिय ज्याति प्रस्ट रोनी
या धन भागोफ में भर जाना है सपा पृष मदहोकर मुक्त हो जाता।मास-ग्यस्था में प्रदेस मुका- समान होती है । जिपा द्वार सगरम लिए पला । नामपर और निजगपी माधना : ममपित हो
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जैन दर्शन में द्रव्यवाद
हम जिस दुनिया मे जीते हैं वह अगणित रहस्यो के घेरो में कैद है। प्रत्येक बुद्धिमान या चितनशील व्यक्ति उन धेरो को पार कर सत्य के केन्द्र तक पहुचना चाहता है, यथार्थता का बोध करना चाहता है । दर्शन-जगत्
और विज्ञान-जगत् अपने-अपने ढग से इन रहस्यो को अनावृत्त करने के लिए विश्व के स्वरूप की चर्चा करते हैं। इस सन्दर्भ मे जैन-दर्शन का मतव्य सर्वथा मौलिक और अद्भुत है । कई दृष्टियो से वह आधुनिक विज्ञान की अवधारणाओ से भी समानता रखता है।
जैन-दर्शन में विश्व के लिए 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। लोक के स्वरूप की विवेचना मे वह पञ्चास्तिकायवाद या षद्रव्यवाद का विशदता से प्रतिपादन करता है । लोक की व्याख्या का आधार छह द्रव्यो का अस्तित्व ही है । अनन्त आकाश के जिस भाग मे छह द्रव्य हैं, वह लोक है।
लोक भाषा मे द्रव्य शब्द का अर्थ है-वस्तु, पदार्थ या मेटर। समूचा विश्व पदार्थो से या वस्तुओ से भरा पड़ा है। पर दर्शन की भाषा मे उन सब वस्तुओ को द्रव्य नहीं कहा जाता । मूलभूत पदार्थ या वस्तु (अल्टीमेट रियल्टी) को ही द्रव्य कहा जाता है । जैन-दर्शन के अनुसार समन विश्व की सरचना या व्यवस्था के मौलिक अग छह हैं। उन्हे षड् द्रव्य कहते हैं। यह विश्व षड्द्रव्यात्मक है। विश्व मे जितने भी पदार्थ अपना वास्तविक अस्तित्त्व रखते है, उन सबका समावेश इन छह मौलिक द्रव्यो मे किया गया है। इन छह द्रव्यो की व्याख्या ही विश्व स्वरूप की व्याख्या है। द्रव्य
किसी भी पदार्थ को मौलिक द्रव्य की सज्ञा तभी मिल सकती है, जवकि उसमे अपना कोई एक विशेष लक्षण ऐसा हो जो अन्य द्रव्यो मे न मिले और उस द्रव्य मे उसका अस्तित्व सदा-सर्वथा बना रहे। अवस्थापरिवर्तन के बावजूद भी उस गुण-धर्म की ध्रुवता लक्षित वस्तु मे अवश्य उपलब्ध हो, इस परिभाषा के अनुसार विश्व-व्यवस्था के हेतुभूत ये छह द्रव्य
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव । इनमे पांच अस्तिकाय हैंधर्माधर्माकाशपुद्गल जीवास्तिकाय प्रव्याणि ।
-ज. सि. वी. १/१
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जैनदर्शन : जीवन और जगत्
सपूर्ण विश्व-व्यवस्था मे ये दोनो द्रव्य अहभूमिका रखते हैं । एक ससार की सक्रियता का माध्यम है तो दूसरा निष्क्रियता का ।
धर्मो गति स्वभाव अथाऽधर्मः स्थिति लक्षण । तयोर्योगात्पदार्थाना गति-स्थिती रुदाहृते ।
(-सवोधि) जीव और पुदगल की गति-स्थिति क्रमश धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय पर ही निभर है।
आकाश द्रव्य का अस्तित्व प्राय सभी दार्शनिक और वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं, किंतु धर्म और अधर्म की मीमासा जैन-दर्शन की मौलिक देन है । ये दोनो द्रव्य लोक-परिमित हैं। अलोक मे इनका सर्वथा अभाव है, इसलिए ये लोक और अलोक के विभाजक तत्त्व भी हैं । धर्म और अधर्म के अभाव के कारण ही अलोक मे जीव तथा पुद्गलो की सत्ता, गति और अवस्थिति नही है। आकाशास्तिकाय-(space, medium of location of soul etc)
अवगाह लक्षण आकाश -आश्रय देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है । यह चराचर जगत् आकाश के आधार पर ही टिका हुआ है । आकाश के दो भेद हैं-लोक और अलोक । जो आकाश षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। जहां आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नही होता वह अलोकाकाश है । विज्ञान ने परमाण के भीतर ऋणावेशी (नेगेटिव) कणो की खोज की है तो घनावेशी (पोजीटिव) कणो की भी खोज की है। प्रत्येक कण के साथ एक प्रतिकण का भी अस्तित्व है । यह विश्व सप्रतिपक्ष है । प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का भी कोई अस्तित्व या मूल्य नही रह जाता है । एक परमाणु मे अनेक प्रतिपक्षी गुण-धर्म रहते है। परमाणु के भीतर ऋणावेशी इलेक्ट्रोन है तो उसका प्रतिकण धनावेशी प्रोट्रॉन भी है। इस प्रकार यदि परमाणु के भीतर कणो और प्रतिकणो का अस्तित्व है तो ब्रह्माड मे भी विश्व तथा प्रतिविश्व होना चाहिए । वैज्ञानिक अभी तक इस सदर्भ मे किसी निर्णायक स्थिति मे नही पहुचे हैं, पर जैन-दर्शन इस माने में बहुत ही स्पष्ट है। उसे प्रारम्भ से ही लोक और अलोक का अस्तित्व मान्य है। काल-(Time)
___ काल समयादि ---समय आदि को काल कहते हैं। समय काल का सूक्ष्मतम अश है । काल अप्रदेशी है, अवयव रहित है। छह द्रव्यो मे काल की गणना औपचारिक रूप से की गई है । वास्तविक दृष्टि से काल द्रव्य न होकर जीव-अजीव की पर्याय मात्र है। फिर भी प्रत्येक पदार्थ मे घटित होने वाले परिवर्तन का हेतु काल ही है, इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से वह
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जैनदर्शन : जीवन और जगत्
सपूर्ण विश्व-व्यवस्था मे ये दोनो द्रव्य अहभूमिका रखते हैं । एक ससार की सक्रियता का माध्यम है तो दूसरा निष्क्रियता का ।
धर्मो गति स्वभाव अथाऽधर्मः स्थिति लक्षण । तयोर्योगात्पदार्थाना गति-स्थिती रूदाहृते ।
(-सबोधि) जीव और पुद्गन की गति-स्थिति क्रमश धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय पर ही निभर है।
आकाश द्रव्य का अस्तित्व प्राय सभी दार्शनिक और वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं, किंतु धर्म और अधर्म की मीमासा जन-दर्शन की मौलिक देन है । ये दोनो द्रव्य लोक-परिमित हैं। अलोक मे इनका सर्वथा अभाव है, इसलिए ये लोक और अलोक के विभाजक तत्त्व भी हैं । धर्म और अधर्म के अभाव के कारण ही अलोक मे जीव तथा पुद्गलो की सत्ता, गति और अवस्थिति नही है। आकाशास्तिकाय-(space, medium of location of soul etc)
अवगाह लक्षण आकाश --आश्रय देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है । यह चराचर जगत् आकाश के आधार पर ही टिका हुआ है । आकाश के दो भेद हैं-लोक और अलोक । जो आकाश षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। जहां आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नही होता वह अलोकाकाश है । विज्ञान ने परमाण के भीतर ऋणावेशी (नेगेटिव) कणो की खोज की है तो घनावेशी (पोजीटिव) कणो की भी खोज की है। प्रत्येक कण के साथ एक प्रतिकण का भी अस्तित्व है । यह विश्व सप्रतिपक्ष है। प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का भी कोई अस्तित्व या मूल्य नही रह जाता है । एक परमाणु मे अनेक प्रतिपक्षी गुण-धर्म रहते है। परमाणु के भीतर ऋणावेशी इलेक्ट्रोन है तो उसका प्रतिकण घनावेशी प्रोट्रॉन भी है। इस प्रकार यदि परमाणु के भीतर कणो और प्रतिकणो का अस्तित्व है तो ब्रह्माड मे भी विश्व तथा प्रतिविश्व होना चाहिए । वैज्ञानिक अभी तक इस सदर्भ में किसी निर्णायक स्थिति मे नही पहुचे हैं, पर जैन-दर्शन इस माने में बहुत ही स्पष्ट है। उसे प्रारम्भ से ही लोक और अलोक का अस्तित्व मान्य है। काल-(Time)
काल समयादि --समय आदि को काल कहते हैं । समय काल का सूक्ष्मतम अश है । काल अप्रदेशी है, अवयव रहित है । छह द्रव्यो मे काल की गणना औपचारिक रूप से की गई है। वास्तविक दष्टि से काल द्रव्य न होकर जीव-अजीव की पर्याय मात्र है। फिर भी प्रत्येक पदार्थ मे घटित होने वाले परिवर्तन का हेतु काल ही है, इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से वह
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जैनदर्शन में द्रव्यवाद
द्रव्य माना जाता है । नैश्चयिक काल समग्र विश्व मे है, किंतु सूर्य-चन्द्रमा की गति से सापेक्ष समय मनुष्य लोक मे ही है । garatfap14-(Matter and energy)
स्पर्श-रस-गध-वर्णवान् पुद्गल -यह जैन-दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । स्पर्श, रस, गध और वर्ण युक्त जड पदार्थ पुद्गल कहलाता है। आधुनिक परिवेश में उसे जड या भौतिक पदार्थ के रूप में जाना जाता है, जिसमें विज्ञान-सम्मत 'मेटर' और 'एनजी' दोनो का समावेश हो जाता
ससार में जितने भी दश्य पदार्थ हैं सब पुदगल हैं। ध्वनि, प्रकाश चुम्बकत्व, उज्मा आदि जिन्हे विज्ञान कर्जा (एनर्जी) के रूप में स्वीकार करता है, पुद्गल के ही रूप हैं।
प्राणी-जगत् के मन, भाषा, श्वास-प्रश्वास, शरीर, आहार आदि से सवधित समस्त प्रवृत्तियो पुद्गल-शक्ति के योग से संचालित हैं । जगत के विभिन्न पदार्थों के निर्माण और विनाश का आधारभूत तत्त्व पुद्गलो का सयोग और वियोग ही है । जीव की विविध रूपो में परिणतिया पुद्गलसापेक्ष ही हैं। जीव और पुद्गल का सम्बन्धअनादि कालीन है । वही ससार का हेतु है । पुद्गलो के सयोग से मुक्त होते ही आत्मा का परमात्मतत्त्व प्रकट हो जाता है । वह मिख, बुद्ध और मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जीवास्तिकाय--(Soul, substance possessing consciousness)
चैतन्ययुक्त अमूत्तं अवयवी द्रव्य का नाम जीव है । वह असख्य प्रदेशी पिड है, फिर भी अविभाज्य है ।
___जीव का लक्षण है उपयोग-चेतना की मक्रियता। स्वसवेदन और मुख दु ख का मवेदन । जीव का अस्तित्व कालिक है । स्वतत्र है। वह जड तत्त्व से उत्पन्न नहीं होता और न कभी जड रूप में परिवर्तित होता है । मसारी जीव कर्म-बद्ध होता है । कम-शरीर की प्रेरणा से वह ससार में भ्रमण करता है, नाना योनियों में सुख-दुख का अनुभव करता है । उसमें सकोच-विस्तार की अद्भुत क्षमता है । जन्मान्तर की याया में जब उसे छोटा गरीर मिलता है तो उमी में समा जाता है और जब वडा शरीर मिलता है तो उतना विस्तार पा लेता है। जैन-दर्णन का जीव-विज्ञान सूक्ष्म विश्लेषण का विषय है। जीव का अस्तित्व, उम के भेद-अभेद, विकास-क्रमः बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया-इत्यादि विषयो को नामान्य अवगति के पश्चात् छह द्रव्यो के सम्बन्ध में कुछ तथ्य और मननीय हैं
० छह द्रव्यो में जीव चेतन है, शेष जड हैं।
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जनदर्शन : जीवन और जगत् ० पुद्गल मूर्त है, शेष अमूर्त हैं । ० आकाश लोक-अलोक में व्याप्त है, शेष द्रव्य लोक-परिमित हैं। • जीव और पुद्गल गतिशील हैं, शेष गति-शून्य हैं । • जीव और पुद्गल अनन्त-अनन्त द्रव्य है, शेष एक-एक द्रव्य हैं।
चार अस्तिकाय प्रदेश-परिमाण से तुल्य है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव ।
(ठाण-४/४९५) चार अस्तिकायो से समूचा लोक स्पृष्ट-व्याप्त है-धर्मास्तिकाय से, अधर्मास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से और पुद्गलास्तिकाय से ।।
(ठाण४/४९३) चार कारणो से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जातेगति के अभाव से, निरूपग्रहता-गति तत्त्व का आलम्बन न होने से, रुक्ष होने से तथा लोकानुभाव से-लोक की सहज मर्यादा होने से।
(ठाण-४/४९८) तत्त्व बोध की यात्रा में षद्रव्यवाद का यह बोध-पाठ जिज्ञासा की नई खिडकिया खोलेगा तथा तत्व-रुचि की रश्मिया उसमें से निर्वाध प्रवेश पा सकेंगी, ऐसा विश्वास है ।
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जैन-दर्शन में पुद्गल
जैन-दर्शन अनेकातवादी दर्शन है । वह न एकेश्वरवादी है और न केवल प्रकृतिवादी । वह जड और चेतन की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है। उसके अभिमत से जीव और अजीव दोनो वास्तविक तत्त्व हैं । विश्व व्यवस्था के आधारभूत छ द्रव्यो मे जीव के अतिरिक्त पाच द्रव्य अचेतन हैं। उनमे एक है पुद्गलास्तिकाय । यह स्वतत्र द्रव्य है । इसका अस्तित्व कालिक है । यह सावयवी है, मूर्त है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्राणी-जगत् के सपर्क में आने वाली दृश्य, श्रव्य प्रत्येक वस्तु पुद्गल है । विज्ञान जिसके लिए "मेटर" शब्द का प्रयोग करता है, जैनेतर दर्शन जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, उसे जैन-दर्शन पुद्गल कहता है।
___ साख्य दर्शन में जो स्थान प्रकृति का है, वही स्थान जैन-दर्शन मे पुदगल का है । जीव के ससार-परिभ्रमण और सुख-दुख के भोग का कार्य पुदगल-सापेक्ष है । साख्य-दर्शन की प्रकृति की भाति पुद्गल का विकास बुद्धि फे स्प मे नही होता । वुद्धि चेतना का गुण है । पुद्गल जड है।
पुदगल जैन साहित्य का पारिभापिक शब्द है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्घ है-- 'पूरण-गलन-धर्मत्वात् पुद्गल ।"
पुद्गल पूरण-गलन-धर्मा होता है । "पुद्" का अर्थ होता है सश्लेष, मिलना और "गल" का अर्थ है विश्लेष, अर्थात् जो द्रव्य प्रतिक्षण मिलतागलता रहे, वनता-बिगडता रहे, टूटता-जुडता रहे, वह पुद्गल है । छ द्रव्यों मे पुदगल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो खडित भी होता है और आपस मे सबद्ध भी होता है।
पुद्गल की व्यावहारिक पहचान है-जो छुआ जा सके, चखा जा सके, सघा जा सके और देखा जा सके वह पुदगल है । इसकी सैद्धातिक परिभाषा होती है -"स्पर्श-रस-गध-वर्णवान-पुद्गल" अर्थात् जिस द्रव्य मे स्पर्श, रस, गघ और वण निश्चित रूप में पाए जाए, वह पुद्गल है ।
स्पर्श-स्पर्श आठ प्रकार का होता है - स्निग्ध, रुक्ष, मृदु, कठोर, शीत, उष्ण, लघु और गुरु । स्थूल पुद्गल-समूह (स्कन्ध) मे नाठो ही स्पर्श होते हैं । सूक्ष्म पुद्गल समूह में चार स्पर्श होते हैं - स्निग्ध-रुक्ष तथा शीत सौर उष्ण ।
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जैनदर्शन · जीवन और जगत् जैन-पुद्गल विज्ञान मे उन पुद्गलो को चतु स्पर्शी पुद्गल कहा जाता
स्पर्श-परमाणु मे स्पर्श दो ही होते हैं । शीत और उष्ण मे से कोई एक तथा स्निग्ध और रुक्ष मे से कोई एक । परमाणु पुद्गल की सूक्ष्मतम इकाई है । अत उसमे मृदुता-कठोरता, हलकापन तथा भारीपन असम्भव
गंध -गध के दो प्रकार हैं-सुगध और दुर्गंध ।
वर्ण (रग)-वर्ण के पाच प्रकार हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । दो या दो से अधिक रगो के सम्मिश्रण से अनेक नये रग बन जाते हैं, किन्तु उनका अन्तर्भाव इन पाच रगो मे ही हो जाता है ।
रस-रस पाच प्रकार के हैं-मधुर, अम्ल, कद्र, कला और तिक्त।
पुद्गल के चार भेद हैं-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाण । इनमे भी मौलिक भेद दो ही हैं स्कन्ध और परमाणु । देश और प्रदेश ये कल्पिक भेद हैं।
स्कन्ध-परमाणुओ के एकीभाव को स्कन्ध कहते हैं । दो परमाणुओ के सयोग से जो स्कन्ध बनता है, द्विप्रदेशी स्कन्ध है। इसी प्रकार वे त्रिप्रदेशी दसप्रदेशी, सख्येय प्रदेशी, असख्येय प्रदेशी, असख्यात तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्धो का निर्माण करते हैं । एक स्कन्ध के टूटने से भी अनेक स्कन्ध बन जाते हैं, जैसे --अनेक शिलाखड । अनेक स्कन्ध मिलकर भी एक स्कघ का निर्माण कर देते हैं, जैसे-अनेक तन्तुओ से निर्मित अखड वस्त्र ।
देश-वस्तु के अविभाज्य काल्पनिक भाग को देश कहते हैं । जैसेपाच मीटर कपडे का एक तिहाई भाग, दो तिहाई भाग इत्यादि।
प्रदेश -वस्तु के अविभाज्य-परमाणु जितने भाग को प्रदेश कहते हैं । इसे वस्तु के घटक तत्त्वो की अन्तिम ईकाई कह सकते हैं ।
परमाण-वस्तु का वह सूक्ष्मतम कण जो उससे पृथक् हो गया है । परमाणु इतना सूक्ष्म है कि उसको तोडा नही जा सकता । उसके अश नही हो सकते । प्रदेश और परमाणु मे इतना ही अन्तर है कि प्रदेश वस्तु से अपृथक् होता है और परमाणु पृथक् । परमाणु को अविभागी, प्रतिच्छेद भी कहते हैं । वह अतिसूक्ष्म है ।
स्वतत्र परमाणु आखो से नही देखा जा सकता । जिसे हम देखते हैं, वह पुद्गल-समूह है । स्कध है । आधुनिक भौतिक विज्ञान भी इसका सवादी है । वैज्ञानिक मान्यता है कि जब हम परमाणु को देखते हैं तो निश्चित ही किसी-न-किसी शक्तिशाली भौतिक उपकरण का प्रयोग करते हैं। वह उपकरण किसी न किसी रूप मे परमाणु को प्रभावित करता है, उसमे परिवर्तन
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जैन-दर्शन मे पुद्गल हो जाता है और हम उस परिवनित परमाणु को ही देख पाते हैं । वास्तविक परमाणु को नहीं । जैन मान्यता के अनुमार वह स्कध है, उसे भी अनुयोगद्वार मे किसी अपेक्षा से परमाणु कहा है । वह व्यावहारिक परमाणु है।
विज्ञान भी परमाण को अदृश्य मानता था । परमाणु अर्थात् किसी भी पदार्थ का मवसे सूक्ष्म टुकडा जिसे और सूक्ष्म न किया जा सके । विज्ञान की भाषा में परमाण अर्थात् एक किलोमीटर का सोलह करोडवा हिस्सा । अनेक प्रोटोन, न्यूट्रोन और इलेक्ट्रोन इसकी सरचना मे आधारभूत बनते हैं । माइक्रोस्कोप के माध्यम से विज्ञान ने परमाण के इस रूप को देखने मे सफलता प्राप्त कर ली है । माइक्रोस्कोप वह यत्र है जो प्रकाश किरणो के परावतन द्वारा वस्तु को वही कर दिखाता है । इसके आविष्कार मे भी उत्तरोत्तर आश्चर्यजनक प्रगति हुई है। अनेक प्रकार के असाधारण प्रक्तिसम्पन्न यत्रो का निर्माण हुआ है। उनमें कुछेक ये हैं
० लाइट माइक्रोस्कोप-वस्तु को अधिक से अधिक दो हजार गुना _वहा कर दिखाने वाला यत्र । • इलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप-वस्तु को दस लाख गुना वडा कर दिखाने
वाला यत्र । ० इलेक्ट्रोन टनेलिंग स्केनर-वस्तु को तीस करोड गुना वहा कर
दिखाने वाला यम ।
इसका आविष्कार स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिक ने किया है, जिसके आधार पर "टनेलिंग ऑफ इलेक्ट्रान्स" का सिद्धान्त विकसित हुआ । जैनदशन सम्मत परमाणु और विज्ञान का "एटम" अनेक समानताओ के वावजूद भी एक नहीं है । रसायन शास्त्र की खोज "एटम" को परमाणु का ही दूसरा रूप नही माना जा सकता ।
विज्ञान की पूर्व अवधारणा थी कि "एटम" को तोडा नही जा सकता । पर अब यह मान्यता बदल चुकी है। वैज्ञानिक खोजो और प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि "एटम" उद्युत्कण, नियत्कण और विद्युत्कणप्रोट्रोन, यूट्रोन लौर इलेक्ट्रोन का एक पिण्ड है । इनर विपरीत परमाण वह मूल पाण है जो दूसरो को मेल के विना अपना स्वतय अस्तित्व बनाए हुए है। विमान-सम्मत अणु वास्तविक अणु नही है । जन मान्यता के अनुसार उसे प्यावहारिक अप पहा जग सरता है।
० परमाणु मे कोई एक रस, एक गघ, एक वर्ण नोर दो स्पर्श होते
. परमाणु ने रतित्व का दोघ उसके द्वारा निर्मित पुद्गल स्कघ
रूप कार्य में ही होता है। • वह इतना सूक्ष्म है कि उसरे नादि, मध्य और वन्त का
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जैनदर्शन • जीवन और जगत्
प्रश्न ही नहीं उठता।
अन्य द्रव्यो की भाति पुद्गल-द्रव्य के भी अनन्त पर्याय हैं। उनमे कुछ पर्याय ऐसे हैं जिनका प्राणी जगत् के साथ विशेष सबध है।
__ शब्द, बधन, सूक्ष्मता, स्थूलता, सस्थान (आकृतिया) भेद, अहकार धूप, धाया, चादनी ये सब पुद्गल के विशिष्ट पर्याय हैं । ध्वानि भी पौद्गलिक है।
सत् का एक अपरिहार्य लक्षण है-अर्थ क्रियाकारित्व-प्रत्येक पदार्थ अपनी अर्थ-क्रिया से स्वय को तथा अन्य को प्रभावित करता रहता है-इसे उपग्रह या उपकरण भी कहते हैं । पुद्गल द्रव्य जहा पुद्गल का उपकार करता है वहा जीव द्रव्य का भी उपकार करता है । जीव और पुद्गल का अनादिकालीन सबध है । जीव की समस्त सासारिक अवस्थाए
और क्रियाए पुद्गल सापेक्ष हैं । आहार, शरीर-निर्माण, इन्द्रिय-सरचना, श्वास-प्रश्वास, भाषा और मानसिक नितन के लिए वह निरन्तर पुद्गल को ग्रहण करता रहता है, यानी जीव की ये सब क्रियाए पौद्गलिक हैं । पुद्गलो से सम्पादित होती हैं।
पुद्गल ससारी जीवो के उपभोग में कैसे आते हैं, यह समझने के लिए पुदगल की विभिन्न बर्गणाओ से परिचित होना भी जरूरी है । वर्गणा का अर्थ है--सजातीय पुद्गलो के विभिन्न वर्ग - श्रेणिया । वे मुख्यत आठ
० औदारिक वर्गणा-स्थूल-शरीर के रूप में परिणत होने वाले
पुद्गल । जीवो के जितने दृश्य शरीर हैं वे सब औदारिक हैं । • वैक्रियवर्गणा- वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत होने वाले
पुद्गल । वैक्रिय शरीर नारक और देवो के होता है । योगी लोग योगज विभूति के द्वारा विभिन्न रूपो का निर्माण करते हैं, वह भी
वैक्रिय शरीर है। • आहारक वर्गणा -विचारो का सक्रमण करने वाले शरीर के रूप
मे परिणत होने वाले पुद्गल । ० तेजस् वर्गणा-विद्युतीय शरीर के रूप में परिणत होने वाले
पुद्गल । ० कार्मण वर्गणा -कर्म-शरीर के रूप में परिणत होने वाले
पुद्गल । • भाषा वर्गणा --भाषा के रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । ० मनोवर्गणा --मन के रूप मे परिणत होने वाले पुद्गल । ० श्वासोच्छवास वर्गणा- श्वास-प्रश्वास के रूप में परिणत होने
वाले पुद्गल ।
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जैन-दर्शन मे पुद्गल
ये वर्गणाए पूरे लोक में व्याप्त हैं । किन्तु इनका प्रयोग तभी सभव है, जब ये जीव द्वारा गृहीत हो जाए । इन वर्गणाओ के योग विना, ससारी प्राणी अपनी कोई भी क्रिया सपादित नही कर सकता। वह प्रतिक्षण इन वर्गणाओ के पुद्गला का ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करता रहता है। हमे जितने भी जड पदार्थ दिखाई देते हैं, वे सब या तो जीव द्वारा गृहीत हैं या जीव द्वारा त्यक्त।
प्रस्तुत चर्चा के माध्यम से पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध में प्राथमिक स्तर पर जानकारी देने का प्रयत्न किया गया है । इससे पुद्गल सम्बन्धी ज्ञान के साथ हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जीव और पुद्गल ये दोनो ही मोलिक तत्त्व हैं । ससार मे जीव का स्थान महत्त्वपूर्ण है तो पुद्गल का स्थान भी कम महत्त्व का नहीं है।
ससार पी लीला पुद्गलो की ही लीला है । जीव की सारी प्रवृत्तिया पुद्गल से ही संचालित हैं। पुद्गल के बिना जीव एक क्षण के लिए भी ससार मे नहीं रह सकता । पुद्गल-जगत् से सम्बन्ध विच्छेद होने पर ही जीव की मुक्ति सभव है।
जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार यह विश्व छ द्रव्यो का समूह है । पर्याय की दृष्टि से छहो द्रव्य परिणमनशील हैं । परिणमन दो प्रकार का होता है -- स्वाभाविक और वैभाविक । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक परिणमन होता है । जीव और पुद्गल मे स्वाभाविक और वैभाविक दोनो प्रकार के परिणमन होते हैं।
दृश्य जगत् की विचित्रता का कारण है जीव और पुद्गल का परिणमन । उसमे भी पुद्गल द्रष्य का परिणमन विशेष महत्त्वपूर्ण है । विश्व
छोटे-बडे सभी दृश्य-पदार्प पुद्गल फे विविध परिणमनो के कारण ही निर्मित होते है और नष्ट होते हैं • पुद्गल का लक्षण है-स्पर्श, रस, गध तथा वर्णयुक्त होना । फिन्तु पुद्गल ये ये गुण विभिन्न प्रकार के परमाणुओ रे सयोग-वियोग के कारण निरन्तर बदलते रहते हैं । पुद्गल वा स्पर्श बदल जाता है, स्वाद घदल जाता है, गध बदल जाती है और रूप भी बदल जाता है, पिन्तु एप बात सातव्य है कि पुदाल मे सयोग-वियोग-जनित चाहे जितना परिपतन हो जाए फिर भी यह स्पर्शहीन, रनहीन, गधहीन और वर्णहीन नही होता।
पुद्गल पा घोटा पा वटा, दृश्य या अदृश्य कोई भी स्प हो, उनमे सर्ग जादि चारो गुण बवायभावी हैं। जहा एक गुण होगा वहा प्रपट-भप्र पट रूप से रोप तीन गुण अवश्य होगे । यह वात विज्ञान भी स्त्रीपार करता है । प्रत्येश भौतिक पदापं सर्च नादि चारो गुणो से युक्त होता
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जैनधर्म : जीवन और जग
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है । यह दूसरी बात है कि हमारी इन्द्रिय उसे ग्रहण करती है या नही जैसे उपस्तु किरण, जो अदृश्य ताप किरणें हैं, उन्हे हम नही देख सकते किंतु उल्लू और बिल्ली इन किरणो की सहायता से देख सकते हैं । न्याय - दर्शन पृथ्वी आदि भूतो मे स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इ पुद्गल धर्मों को समन्वित रूप मे स्वीकार नही करता । वह कही कही एक दो अथवा तीन धर्मों का ही अस्तित्व स्वीकार करता है । उसके अभिमत जल के परमाणुओ मे गध नही होती, अग्नि के परमाणुओ मे गध और र नहीं होते तथा वायु के परमाणुओ मे केवल स्पर्श ही होता है। किंतु जैन दर्शन पृथ्वी आदि के परमाणुओ मे मौलिक भेद नही मानता । वह सभी प्रकार के जड तत्त्वों में स्पर्श आदि चतुष्टयी की अवस्थिति को अनिवाय मानता है ।
न्याय दर्शन में पाच महाभूतो में उक्त पुद्गल धर्मों के अस्तित्व क स्वीकार न करने का एक कारण यह भी है कि वह पाचभूतो का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करता है । जैन दर्शन के अनुसार वे स्वतंत्र द्रव्य नही अपितु पुद्गल द्रव्य ही हैं ।
पुद्गल द्रव्य होने के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और हवा इन सब आठ स्पर्श, पाच रस, दो गध और पाच वर्ण निश्चित रूप से विद्यमान हैं जैसे अग्नि मे हमे सामान्यत गध की प्रतीति नही होती, क्योकि हमारी नासिका उसे ग्रहण नही करती । लेकिन गध- वहन - प्रक्रिया से ज्ञात होता है कि अग्नि मे भी गध है । एक गधवाहक यत्र का आविष्कार हुआ है, जो मनुष्य की घ्राणशक्ति से कही अधिक सवेदनशील है । वह सौ गज की दूरी पर स्थित अग्नि के गध तत्त्व को पकड़ लेता है ।
पुद्गल द्रव्य स्वतंत्र द्रव्य है । द्रव्य वह है जिसमे गुण और पर्याय हो । गुण ( Fundamental Reality) द्रव्य का अपरिवर्तनीय और स्थायी तत्त्व है । वह धौव्य (Continuity) का प्रतीक है । वस्तु के अवस्था भेद य रूपातर को पर्याय कहते हैं । प्रतिक्षण घटित होने वाला परिवर्तन उत्पा और व्यय - पर्याय का प्रतीक है । जैसे, शहर के गदे नाले का पानी भी जल शोधन की प्रक्रिया से स्फटिक-सा उजला हो जाता है, यह पर्याय परिवर्तन है, पर जल तत्त्व स्थायी है, यह ध्रोव्य है । पानी के रूप, रग, स्वाद और गध मे परिवर्तन हो जाता है फिर भी वह स्पर्श, रस, गध विहीन नहीं होता यह है पुद्गल द्रव्य का स्थायी भाव ।
विज्ञान की दृष्टि से पुद्गल द्रव्य मुख्यत चार वर्गों में विभाजित है १. ठोस, २ द्रव, ३. गैस और ४. प्लाज्मा । यद्यपि आधुनिक विज्ञान ने १०:३ ऐसे तत्त्वों की खोज कर ली है, पर वे सब उक्त तोनो मे समाविष्ट हो
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जन-दर्शन मे पुद्गल जाते हैं । ये तीनों तत्त्व सदा अपने-अपने वर्ग में ही रहें, यह जरूरी नहीं है, अपितु वे एक दूसरे के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें हैं, इन दोनो के मिलने से जल बन जाता है । जल वनस्पति मे रूपातरित हो जाता है। इस प्रकार गैस द्रव्य ठोस पदार्थ में बदल जाता है । दूसरी वात, जल अग्निशामक होता है, आग को वमा सकता है, लेकिन जल के उपादान-हाइड्रोजन मूलत ज्वलनशील है और ऑवमीजन गैस आग को उत्तेजित करने वाली है, तथापि ये दोनो गैसें एक निश्चित अनुपात में जब मिलती हैं तो दोनो के गुण-धर्म बदल जाते हैं । पानी आग को भडकाने की बजाय उसे वुझाने के काम आता है । पुद्गल की नित्यता
पुद्गल द्रव्य चाहे कितना ही परिवर्तित हो जाए, उसकी मौलिकता कभी नष्ट नहीं होती। पुद्गल की मौलिकता है-स्पर्श, रस गध और वर्ण । ये पुद्गल से एक समय के लिए भी पृथक् नही होते । मौलिकता स्पातरित हो सकती है, पर स्पष्ट नही। पुद्गल द्रव्य की मौलिकता न किमी अन्य द्रव्य में परिवर्तित होती है और न किसी अन्य द्रव्य की मौलिकता पुद्गल द्रव्य में विलीन होती है। इसलिए जीव की भाति पुद्गल भी ध्रुव तत्त्व है। नित्य है। नित्य द्रव्य की पहचान है-जो कभी सख्या मे कम अधिक नहीं होता, जिसका न आदि हो, न अन्त । जो न किसी अन्य द्रव्य के रूप में परिवर्तित होता है और न किसी अन्य द्रव्य को अपने में परिवर्तित करता है।
विश्व मे पुद्गल-परमाणु अनादिकाल से जितने थे, उतने ही हैं और अनतकाल तक उतने ही रहेगे । पुद्गल का परिणमन होता है, पर वह होता है पुद्गल मे हो । पुद्गल फभी जीव नहीं बनता और जीव कभी पुद्गल नही बनता । माधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि विश्व में स्थित पदार्थ मोर जर्जा को सयुक्त राशि सदा शाश्वत रहती है। पदार्य और कर्जा के स्पातरण के बावजूद भी पुल राशि सदा नचल बनी रहती है । जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल द्रस्य अनत हैं । जनत परमाणओ और अनत प्रदेशी (विस्तार पे लिए पेयें--विश्व प्रहेलिया पृ २११, १७१) स्वघो से विश्व भरा पटा
पुद्गल फो मनित्यता
पुद्गल द्रप्र विश्व का एक महत्वपूर्ण घटक है । वह द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, भूप रे जोर पर्याप की पेक्षा से ननित्य भी है। उसमे परिदन सोनिया निरतर पार रहती है।
ईमा पो जातीसदी नदी तर वैमानिको को मान्यता पी पि मृत
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
तत्त्व (element) अपरिवर्तनीय है । एक तत्व दूसरे तत्त्व के रूप मे नही बदल सकता किन्तु अब तेजोद्गरण ( रेडियो एक्टीविटी) आदि के अनुसानो से सिद्ध हो चुका है कि तत्त्व परिवर्तित हो सकता है । जैसे यूरेनियम के एक अणु मे से जब तीन "अ" कण - विच्छिन्न हो जाते हैं तो वह एक रेडियम अणु के रूप मे बदल जाता है । इसी प्रकार जब रेडियम का एक अणु पाच "अ" कणो मे विभाजित हो जाता है तो वह "सीसा" के अणु के रूप मे वदल जाता है । यह है पुद्गल - परमाणुओ के विश्लेषण से होने वाला परिणमन । इसी प्रकार परमाणुओं के सश्लेष – सयोग से भी परिणमन होता है । जैसे नाइट्रोजन के एक अणु के न्यूक्लियस मे जब एक "अ" कण मिल जाता है तो वह ऑक्सीजन का एक अणु बन जाता है ।
सक्रियता और शक्ति
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जीव की भाति पुद्गल भी सक्रिय है और अनत शक्ति सम्पन्न है । पुद्गल की क्रिया को शास्त्रीय भाषा मे परिस्पद कहते हैं । वह स्वत' भी होता है और अन्य पुद्गलो या जीव की प्रेरणा से भी होता है। पुद्गल की गति - त्रिया अप्रतिहत होती है । वह पहाड़ के आर-पार निकल सकता है । अणुओ का परस्पर टकराव और मिलन भी होता रहता है । प्रत्येक भौतिक पदार्थ से निरंतर रश्मिया या तरगें निकलती रहती हैं । यह भी उसकी सक्रियता का प्रतीक है |
" टनेलिंग ऑफ इलेक्ट्रोन्स" सिद्धात के आधार पर एक नया तथ्य प्रकाश में आया है कि यदि दो वस्तुए परस्पर छू रही हो या बहुत आसपास रखी हो तो एक वस्तु से दूसरी वस्तु मे इलेक्ट्रोन्स की उछल-कूद मचने लगती है । इसे वैज्ञानिको ने "टनेलिंग फिनामिना " कहा है। जैसे मुम्बई या पूना के सपाट मैदानो मे पर्वतीय सुरग के माध्यम से रेल्वे का गमनागमन होता है । वैसे ही वस्तुगत अणुओ (इलेक्ट्रोन्स) का गमनागमन होता है । यह सारा कार्य पुद्गल के मौलिक गुण गलन - मिलन के कारण होता है । भौतिक विज्ञान भी पदार्थ के इस स्वभाव को स्वीकृत करता है और उसके लिए दो शब्दो का प्रयोग करता है - Fusion और Fision फ्यूजन का अर्थ है"मिलना" और फिजन का अर्थ है- " गलना" ।
विज्ञान के अनुसार प्रकाश की गति एक लाख प्रति सैकेण्ड । किंतु जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल की है । वह काल के सूक्ष्मतम अश ( एक समय ) मे लोक के सकता है ।
छियासी हजार मील गति इससे भी तीव्र एक छोर तक पहुच
पुद्गल जनत शक्ति सम्पन्न है । " | आई" का शक्ति सिद्धात भी इसका सवादी है । उसके अनुसार एक परमाणु से ३,४५,८०० केलोरी शक्ति
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जैन-दर्शन मे पुद्गल
उत्पन्न हो सकती है । वास्तव में एक परमाणु मे कितनी शक्ति है, इसका विज्ञान अभी तक अदाजा नही लगा पाया है । इस क्षेत्र मे नित नये रहस्य खुलते जा रहे हैं। फिर भी पदार्थ को शक्ति के रूप मे वदलने की सभावना के अनुसार कहा जाता है कि एक पौंड या ४५० ग्राम पदार्थ में इतनी शक्ति होती है, जितनी चौदह लाख टन कोयला जलाने पर मिलती है । यदि ऐसा सभव हो जाए तो ४५० ग्राम कोयले में पूरी अमेरिका के लिए एक माह तक चलने वाली बिजली तैयार हो सकती है ।
गुद्गल मेसकोच - विस्तार की अद्भुत शक्ति होती है । इसलिए सय्यात प्रदेशी लोकाकाश मे अनत प्रदेशी पुद्गलो के अनत - अनत स्कन्ध समाहित हो जाते हैं ।
सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति के कारण पुद्गल परमाणुओ नार फन्धो में ऐसी सूक्ष्मतम परिणति होती है कि एक ही आकाश प्रदेश मे अनतानत पुद्गल रह सकते हैं । जैसे एक कमरे मे एक दीया जलाया जाता है तो उसका प्रकाश पूरे कमरे मे फैल जाता है और यदि उसी कमरे मे सो दिये जला दिये जाते हैं तो वह शत् गुणित प्रकाश भी उस कमरे मे समाहित हो जाता है । उन प्रकाश- अणुओं को अतिरिक्त स्थान रोकने की अपेक्षा नही रहती । यह तथ्य विज्ञान सम्मत भी है । डॉ० एडिग्टन के अभिमत से एक टन न्याष्टीय पुद्गल (न्यूक्लीयर मेटर) को सघन बनाया जाए तो वह हमारे वास्पेट के जब मे समा सकता है ।
इन सब अध्ययनो के सदर्भ से ज्ञात होता है कि जंन दर्शन का समस्त एक विज्ञान के विद्यार्थी
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पुद्गरा और परमाणु मिद्धात वित्तना वैज्ञानिक है । फो दोनो मे सद्द्भुत समानता प दर्शन होते हैं ।
जैन दर्शन मे प्रतिपादित पुद्गल द्रव्य को समग्रता ने समझ लेने के पश्चात् ही आधुनिक विद्वानों की धारणा पुष्ट हुई है कि आधुनिक विज्ञान वप्रथम जन्मदाता भगवान् महावीर ही थे ।
सदर्भ
१
सिद्धान वाि ।
२ हजारीमल स्मृति प्रप-लेय---"दशन व विमान के क्षेत्र मे
द्रष्य ।"
पुद्गल
६ श्री पुष्प मृति भिनदन ग्रन्थ लेख- -जैन दर्शन स्वम्प और विश्लेषण
(श्री देवेन्द्र मुनि मान्त्री)
विश्व प्रति लोग्नध्य ।
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जैनदर्शन में आत्मवाद
आत्म विद्या : परम विद्या
उपनिषद् में उद्दालक और श्वेतकेतु का एक मार्मिक दृष्टात है । श्वेतकेतु गुरुकुल से सपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर आया। प्रतिभा सपन्न था। गुरुकुल की सब परीक्षाए प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। अनेक स्वर्णपदक प्राप्त किए होगे । यौवन की उष्मा । सिर पर ज्ञान-राशि का गोवर्धन पर्वत । अकडना स्वाभाविक था। पिता के चरणो मे प्रणत नहीं हो सका । सीधा खडा रहा । पिता ने देखा। सोचा-इतना पढ़-लिख कर भी अज्ञानी का अज्ञानी आ गया । पिता निराश हुए। पुत्र पर प्रसन्नता का प्रसाद नही वरसा । गभीर मुद्रा मे पूछा-गुरुकुल मे क्या-क्या पढा ? पुत्र ने पठित विषयो की लम्बी सूची प्रस्तुत कर दी। ऋषि ने वत्सलभाव से पूछा-वत्स, ऐसी कोई चीज पढ़ी है, जिसको जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है । श्वेतकेतु का मुख श्वेत हो गया । वह बोला-ऐसा तो हमारे अभ्यासक्रम मे किसी ने नहीं सिखाया । उद्दालक ने पुन प्रश्न किया-आत्मा को जाना ? आत्मा को पहचाना ? उसने नकारात्मक सिर हिलाया। ऋषि ने कहा-पुत्र, आत्मविद्या वह परम विद्या है जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है । आत्मज्ञान के अभाव में सब कुछ जानकर भी व्यक्ति अज्ञानी रह जाता है।
काल की लम्बी अवधि मे न जाने ऐसे कितने श्वेतकेतु हो चुके हैं और वर्तमान मे भी कितने हैं, जो विभिन्न विद्या-शाखाओ मे पारगामिता प्राप्त कर के भी आत्मा के सम्बन्ध मे अनजान हैं । स्वय से अपरिचित हैं । तत्वबोध की यात्रा का आदि विन्दु है --आत्मा । भगवान महावीर ने भी कहा-"जे एग जाणइ से सव्व जाणइ" जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सब कुछ जान लेता है । हम और हमारा अस्तित्व
हमारा अस्तित्व दो तत्त्वो का सयोग है । एक है चेतन-जीव, दूसरा है अचेतन-शरीर । कुछ लोग केवल शरीर को ही मानते हैं। वे चेतन या बात्मा की स्वतत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते । वे अनात्मवादी हैं । आत्मवादी दर्शन आत्मा और शरीर को भिन्न मानता है और चेतन के स्वतत्र
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जनदर्शन मे बात्मवाद
अस्तित्व को म्वीकार करता है।
उमरे आधार पर भारतीय चितन दो धाराओं में विभक्त हो गया। एक धाग का नाम है, जिन्यावाद और दूसरी का नाम है अक्रियावाद ।
___ आत्मा, कम, पुनर्जन्म और मोक्ष पर विश्वास करने वाले क्रियावादी तथा इन पर विश्वास न करने वाले अक्रियावादी कहलाए ।
प्रियावादी वर्ग ने सयमपूर्वक जीवन विताने का, धर्माचरण करने का उपदेश दिया। पयोकि उसके अभिमत से मात्मा का अस्तित्व है । वह अपने मुहत बोर दुष्कृत का पल नोगती है । शुभ-फर्मों का अच्छा और अशुभ कर्मों का बुरा फल होता है । आत्मा का पूर्वजन्म मोर पुनर्जन्म होता है । वह अपने पुण्य और पाप कर्मों पे साथ ही परलोक मे जाती है। पुण्य नौर पाप दोनो का भय होने मे अमीम आत्म-सुखमय मोक्ष होता है । इस चिंतन के आधार पर लोगो मे धर्म के प्रति रुचि जागृत हुई। अल्प-इच्छा, अल्पबारम्भ और अल्प परिग्रह का महत्त्व बढ़ा । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उपासना करने वाला महान् गमझा जाने लगा। समाज मे सयम और त्याग की प्रतिष्ठा हुई।
भक्रियावादी वर्ग ने सुप-पूर्वक जीवन बिताने को ही परमापं माना । उमा अभिमत मे सुकृत और दुष्कृत का शुभ और अशुभ फल नहीं होता। बारमा गरीर मे नाग ये साप ही नष्ट हो जाती है। वह परलोक में जाकर उत्पन्न नही होती। अप्रियावाद का घोप रहा-जो काम-भोग प्राप्त है, उनको जी भर कर नोगो, फल फा पया भरोसा ? परलोक है या नही, रिराने देखा है। इन विचार-धारा वे प्रभाव ने लोगो मे भौतिक लालसा प्रबल हुई। महा-इचदा, महा-बारम्भ और महा-परिग्रह या राहु जगत् पर हा गया।
प्रियावाद ? नत्व-प्रतिपादन का मुप्य आधार हा-अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । उन्होने कहा--मात्मा के अस्तित्व में मदेह मत करो। आत्मा असारे मलिए इद्रिय-माए नरी है। पर इद्रिय-माप न होने मात्र ने उसके स्वतः स्तित्व को नकारा नहीं का पता । इन्द्रिया जमूर्त पदार्थ फो नहीबारामती, फिर भी पैतन्य : व्यापार से आधार पर उमवे अम्नित्व पा दोध होता है। (उत्तरउभयपाणि)
नरे विपरीत कायावाद विपास इन्द्रिय-प्रत्यक्ष पर रहा।
मा से यह कार इतना ही है, जितना दृष्टिगोचर होता है। मारिदिप नहीं है, इसलिए म अन्तित्व मे सदेह है। इस
मेरी पी नि दायु और हारा ये पांच महामूद हो दावित मसाप घनर जपका गला उसन्न होती है। तो दान होगांपरपमा या मी नाग हो जाता है।
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जैनधर्म . जीवन और जगत् जीवात्मा कोई स्वतत्र पदार्थ नही है। जिस प्रकार अरणि की लकडी से आग, दूध से घी और तिलो से तेल उत्पन्न होता है, वैसे ही पचभूतात्मक शरीर से जीव उत्पन्न होता है । शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा नाम की कोई वस्तु शेष नही रहती। आचार-व्यवहार पर विचार का प्रभाव
ये दो विचार-धाराए हैं जो प्राचीनकाल से ही मानव-जीवन के विचार और आचार पक्ष को प्रभावित करती रही हैं । इनसे केवल दार्शनिक दृष्टिकोण ही नही बनता, किन्तु वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक, राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन की नीव इन्ही पर खडी होती है। क्रियावादी और अक्रियावादी का जीवन-पथ एक जैसा नहीं हो सकता। क्रियावादी के प्रत्येक कार्य मे आत्म-शुद्धि का ध्यान रहेगा। अक्रियावादी उसकी चिंता नही करेगा । जहा आत्मवादी की गति त्याग की ओर होगी वहा अक्रियावादी की गति होगी भोग की ओर ।
क्रियावादी और अक्रियावादी वर्गों को आज की भाषा मे आस्तिक और नास्तिक कहा जाता है । इस विचार धारा का प्राचीन प्रतिनिधि चार्वाक-दर्शन था । आधुनिक कम्युनिज्म को उसी का विकसित रूप माना जा सकता है।
जैन-धर्म आस्तिक दर्शनो मे एक है । वह आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद और निर्वाणवाद का पुरस्कर्ता है। आत्मा क्या है
युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दो मे जीव, जीव के गुण और जीव की क्रियाए ---इन सबको आत्मा कहते हैं। आत्मा एक चेतनावान पदार्थ है । उसका लक्षण है---उपयोग । उपयोग का अर्थ है-चेतना का व्यापार । आत्म तत्व की पहचान का आधार है उसकी ज्ञान-दर्शन में परिणति तथा सुख-दुख की अनुभूति । आत्मा जड पदार्थ से उत्पन्न नहीं है। वह चैतन्य गुणयुक्त स्वतन्त्र मत्ता है ।
प्रश्न होता है, आत्मा इन्द्रिय और मन के प्रत्यक्ष नहीं है, फिर उन्हे क्यो माना जाए? इसके समाधान मे कहा गया कि पदार्थों को जानने का माध्यम मात्र इन्द्रिय और मन का प्रत्यक्ष ही नही, इनके अतिरिक्त अनुभवप्रत्यक्ष, योगी प्रत्यक्ष, अनुमान ओर आगम से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । इन्द्रिय और मन की शक्ति अत्यन्त सीमित है । इनसे सब कुछ नही जाना जा सकता । इन्द्रिया मात्र स्पर्श, रस, गध और वर्ण को जान सकती हैं । मन भी इन्द्रियो का अनुगामी है । आत्मा अरूपी सत्ता है। वह स्पर्श, रस-गध और वर्ण नहीं है । शब्दो का प्रयोग करने वाला, गध का
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जैनदर्शन में वात्मवाद
अनुभव करने वाला, स्पगं मोर रस का मान करने वाला तत्त्व नात्मा है । किन्तु यह मोनिक उपकरणो के द्वारा जाना नहीं जाता । (आयारो) विज्ञान और आत्मा
प्राचीन समय में ही मानव-मन मे आत्मा को जानने की प्रबल इच्छा गी है । उप ध नाधन-गमत्री द्वारा उसी योजें हुई हैं। प्रयोग और परीक्षण भी घरा। आज ने अढाई हजार पं पहले वौशाम्बी पक्ति गाली नभ प्रदेशी ने अपने जीवन के नाम्निमाल में शारीरिक अवयवो के विश्लेषण एव परीक्षण द्वारा आत्म-प्रत्यक्षीकरण । अनेक प्रयोग किए थे। पर 7 आत्मा को पानने-देग्रने रे नदय में नवंया अनफन रहा । आधुनिक वैज्ञानिक भी लात्मा को गिद करने में सफल नहीं हुए हैं। उन्होने १०३ तरच माने हैं। मब मूतं (म्पी) है । वैज्ञानिको ने गितने प्रयोग किए हैं, मूतं त्यो परी गिए हैं। फिर भी वे आत्मा र अम्नित्व के बारे में यि मप नही पहन पाए हैं। इनका रण यही है, भौनिक उपकरणो तथा दिया गे माग भौतिक पदार्थों का बोध-विश्लेषण किया जा सकता है. पर भोतिर, अमूत्त मात्मा का पान उनमें नहीं हो सकता। उनके लिए इद्रियागोत चेतना गा जागरण नायग्य है । आत्मा ओ- परलोक की न्वेषक परिपा दम्य पर औलिय नौज ने निगा-" हमें भौनि शान के पीछे पर पारभौतिक विषयों को नही भून नाना चाहिए ।' उन्होंने मागे लिगा "ता जा पा को गुण नही । कि त म नमाई ,म्पय को प्रदगिन ने पानी स्वतन्त्र मत्ता है । प्राणी मात्रा मनात एक प्रेमी यम्नु :'पिग गेरो नामाप अल नहीं हो जाता।" य- विचार जनदगा दान सिट। आत्मा और गरीर
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
मक तत्त्व कोई दूसरा है जो अदृश्य है । शरीर के सो जाने पर भी वह शक्ति नही सोती। वह सतत जागृत तत्त्व 'चेतना' ही है । उस अदृश्य चेतन तत्त्व की सत्ता सर्वत्र काम कर रही है । पाच-छ फुट के इस छोटे-से शरीर मे जो स्वचालित क्रियाए हो रही हैं वे इस अदृश्य की ही सूचना दे रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-"यदि इस शरीर का निर्माण हमे करना पड़े तो कम-सेकम दस वर्ग मील मे एक कारखाना बनाना पडे ।
महान् दार्शनिक आचार्यश्री महाप्रज्ञ आत्मा के अस्तित्व को बहुत ही सरल शैली मे समझाते हैं। वे कहते हैं-"हमारे स्थूल शरीर मे एक सूक्ष्म शरीर है, उसका नाम है तैजस शरीर । उसके भीतर सूक्ष्मतर शरीर है, उसका नाम है कर्म शरीर । उसके भीतर आत्मा है वह हमारे आचार, विचार और व्यवहार का संचालन करता है, नियमन करता है । चेतना की रश्मिया कर्म और तेजस् शरीर की दीवारो को पार कर स्थूल शरीर तक पहुचती हैं । उससे हमारा ज्ञान-तन्त्र, भाषा-तन्त्र और क्रिया-तन्त्र सक्रिय होता है । उसी के आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्मित होता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मा हमारे प्रत्यक्ष नही है, फिर भी उसके गुणधर्म प्रत्यक्ष हैं । यही आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि का पुष्ट प्रमाण है। जैन-दर्शन में आत्मा
जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी-विभिन्न अवस्थाओ मे परिणत होने वाला कर्त्ता और भोक्ता है । वह स्वय अपनी सत्-असत् प्रवृत्ति द्वारा शुभ-अशुभ कर्मों का सचय करता है और उनका फल भोगता है।
आत्मा का कोई आकार-प्रत्याकार नही होता । वह न हल्का है, न भारी, न स्त्री है, न पुरुष । ज्ञानमय असख्य प्रदेशो का समूह है।
आत्मा एक द्रव्य है, वह चैतन्य का अजस्र स्रोत है । उसके अनेक गुण-धर्म हैं । उनमे दो प्रमुख हैं -गुण और पर्याय । कुछ वस्तु धर्म ऐसे होते हैं जो सदा अमुक द्रव्य के साथ रहते हैं, बदलते नही, वे गुण कहलाते हैं । परिवर्तनशील धर्म पर्याय कहलाते हैं। गुण और पर्याय की दृष्ट से आत्मा के मुख्य दो भेद होते हैं-द्रव्य आत्मा और भाव आत्मा ।
द्रव्य आत्मा एक है । वह चेतना-मय असख्य अविभाज्य अवयवो का समूह है। यानी आत्मा असख्य प्रदेशी है । इसका अर्थ यह हुआ कि एक, दो तीन प्रदेशी जीव नही होते । असख्य प्रदेशो के समुदाय का नाम ही जीव या आत्मा है ।
द्रव्य आत्मा कालिक तत्त्व है । वह अजर-अमर है । वह न कभी जन्मता है, न मरता है । उसका अस्तित्व कभी समाप्त नही होता। अतीत
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बनदर्शन में पारमयाद में उसया भग्नित्य पा, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । मात्मा कभी अनात्मा (जस) नहीं होगी । मगर ये एट जाने पर भी मृत्यु नही हाती । यह मजन्मा है, नित्य है, माश्या है।
द्रव्य मी पिट में शास्वत और अविभाज्य होते हुए भी पर्याय की अष्टि में भारमा परिननमोल बोर बनेका हो जाती है । यह परिवर्तनशीलता ही भाप मारमा । । द्रव्य बोर भार की विवक्षा मे खात्मा के साठ भेद हो जाने, जंगे-चेनना पस स्वम्प द्रव्य भात्मा है । ग्रोध, मान, माया ओर मोम में जिन होने पर यह कपाय बात्मा बन जाती है। आत्मा की पचना, प्रति योग आत्मा है । बान्मा या चैतन्य स्वरूप में च्यापन होना उपयोग मारमा है । शात्मक और दगनारमया चेतना मान-आत्मा और दर्शन-नामा । भात्मा पी लिमिट गयममय अवस्था परिय नात्मा है। जात्मा की गति पीपं जात्मा है । ये आठ आत्माए नापेक्ष दृष्टि में बताई गई। पारलर मे आत्मा को जिनगी पर्याय ~अवम्पाए हैं, ये सब भाव बारमा म प्टि मे बान्मा बनन्त हो सरती है । संतांतिक भाषा में इन पाठ थापा निरिन, जात्मा को भी अवस्थाओ को अन्य (अनेरी) बारमा वा जाता है।
जर-दन ये गार समारी वा मा राग-द्वेष मूतक प्रवृत्ति पे गरण फर्मों या धन ली। मंबद्ध जीर नाना योनियों में परिभ्रमण गरणाचा, पगनिमार गुग-युग का नया परता है । गग-द्वेष क्षीण पर नागापमं-कहो जाती है।मक बात्मा निर्यात प्राप्त कर आमसाप में प्रतिष्टितो जाती है । मुल लारमाए मान हैं। उन नव या रपतन परिताप पर भव-मण नही करती। जामदादी दर्शनों का पगादेय मोर-प्राप्ति है।
मे ग गाई भी की मृत गाना रिमास्त्रीय प्रमाणो जपदा भाषा मा ताबा जनुना नी मदता । उमरे लिए नामnि anकामोशी सादाना है। बारमा पी मोज नाम
निपद में महा "र, पच जोर दिदा गो गोल गरी । पार पहावीर मेंहा -. 'मपिता RATA-T I
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जैन-धर्म में कर्मवाद
भगवान् श्री महावीर ने कहा-"जो व्यक्ति सब भूतो को अपने समान समझता है, सब प्राणियो को समान दृष्टि से देखता है, आस्रवो का निरोध करता है और अपना निग्रह करता है, वह पाप कर्मों का बन्ध नहीं करता (दसवेआलिय ४/९) । इससे दो बातें फलित होती हैं-सब आत्माओ की समानता और कर्मों का बन्ध ।
आत्म-समानता और आत्म-एकत्व के स्वर जैन आगमो मे प्रचुर मात्रा मे मुखरित हुए हैं । जैसे "तू जिसे मारना चाहता है, वह तू ही है। कोई प्राणी हीन नही है, अतिरिक्त नहीं है । न कोई छोटा है, न कोई बडा-- इत्यादि ।" (आयारो)
___ इसके विपरित हम यह भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि सब जीव समान नही हैं । कोई एक इन्द्रिय वाला प्राणी है तो कोई पाच इन्द्रिय वाला । कोई समनस्क-सन्नी है तो कोई अमनस्क असन्नी। एक बहुत विकसित है तो दूसरा कम विकसित । एक बुद्धिमान है तो दूसरा मूढ । एक सच्चरित्र है तो दूसरा दुश्चरित्र । एक स्वस्थ है तो दूसरा अस्वस्थ । एक सुन्दर, सुप्रतिष्ठित और यशस्वी है तो दूसरा कुरूप, तिरष्कृत तथा निन्दनीय । एक सामर्थ्यवान है तो दूसरा असमर्थ । यह असमानता क्यो ? इसका समाधान दिया गया कि निश्चय नय से सब जीवन समान होते हुए भी व्यवहार नय से वे भिन्न भी हैं।
प्रत्येक आत्मा की समानता स्वभावगत है । स्वरूप की दृष्टि से, अस्तित्व की दष्टि से सब आत्माए समान हैं।
आत्माओ की विविधता का हेतु कर्म है। प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसा ही बनता है । हीन कर्म प्राणी को हीन बनाता है । श्रेष्ठ कर्म प्राणी को श्रेष्ठ बनाता है।
भगवती सूत्र में एक सवाद है-गौतम ने भगवान महावीर से पूछा"भते । यह विभक्ति कहा से हो रही है ? यह भेद, विभाजन, अलगाव कहा से हो रहा है ? भगवान् ने कहा--गौतम | यह सारी विभक्ति कर्म के द्वारा हो रही है । सारी भेद-रेखाए कर्म के द्वारा खीची जा रही है।"
बौद्ध-धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ "अभिधम्मकोश" मे लिखा है-"कर्मज लोकवचिन्य-लोक की विचित्रता कर्म के द्वारा होती है।"
प्रश्न होता है कि कर्म क्या है ? वह आत्मा को प्रभावित कैसे करता
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३. कर्म-परमाणु चतु स्पर्शी होते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं ।
४. कर्म - प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो सकते हैं। हर कोई पुद्गल कर्म नही बन सकता । कर्म अनन्त परमाणुओ के स्कध हैं । कर्म जीवात्मा के आवरण, परतत्रता और दुखो का हेतु है ।
कर्म-परमाणु अपने आप प्राणी के साथ सवध स्थापित नही करते । जीव अपनी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा उन अनन्त प्रदेशी कर्म- पुद्गलो को आकर्षित करता है । अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सवध बहुत गहरा हो जाता है । आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त - अनन्त कर्मपरमाणु-स्कन्ध जुड जाते हैं । परस्पर एकमेक हो जाते हैं । यहीं है कर्म - वध | यद्यपि कार्मण वर्गणा के पुद्गल पूरे लोकाकाश मे व्याप्त हैं, किन्तु आत्मा के साथ कर्म रूप मे वे ही बधते हैं जो आत्म-प्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावगाढ होते हैं ।
जैनधर्म जीवन और जगत्
बन्धन की अपेक्षा आत्मा और कर्म अभिन्न हैं । एकमेक हैं । लक्षण की अपेक्षा भिन्न हैं । जीव चेतन है, कर्म अचेतन है। जीव अमूर्त है, कर्म मूर्त है ।
अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म - पुद्गल प्रभावित करते हैं । जैसे - वेडी से मनुष्य बन्धता है, शराब से पागल बनता है । क्लोरोफार्म से बेहोश हो जाता है, वैसे ही कर्मों के सयोग से जीवात्मा की इस प्रकार की दशाए होती हैं। बाहरी निमित्तो का प्रभाव अल्पकालीन होता है । कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए तथा विशेष सामर्थ्यं वाले सूक्ष्म स्कध हैं । इसलिए उनका जीवन पर गहरा और आंतरिक प्रभाव पडता है ।
बध के प्रकार
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बन्ध के सामान्यत चार प्रकार बताए गए हैं
प्रदेश बन्ध - आत्म-प्रदेशो के साथ कर्म - पुद्गलो का जुडना । यह एकीभाव की व्यवस्था है ।
- स्वभाव का निर्माण या निर्धारण करना कि अमुक कर्म - पुद्गल आत्मा के कौन-से गुण का आवारक, विकारक या विघातक बनेगा ? यह है स्वभाव
प्रकृति बन्ध
व्यवस्था ।
स्थितिबन्ध - कौन - सा कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ रहेगा और कब अपना विपाक - फल देगा, यह है स्थिति का निर्धारण । अर्थात् काल मर्यादा की व्यवस्था ।
अनुभाग बन्ध - कर्म किस प्रकार का फल देगा ? आत्मा को मद रूप से प्रभावित करेगा या तीव रूप से, यह अनुभाग बघ का काम है । यह है फलदान शक्ति की व्यवस्था ।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
होता है । शुभ नाम कर्म के उदय से व्यक्ति सुन्दर, आदेय-वचन, यशस्वी और आकर्षक व्यक्तित्व-सपन्न होता है। अशुभ नाम कर्म के उदय का परिणाम ठीक इसके विपरीत होता है।
जो कर्म-पुद्गल जाति, कुल, बल, श्रुत, ऐश्वर्य आदि की दृष्टि से व्यक्ति की विशिष्टता और हीनता के हेतु वनते हैं-वह गोत्र-कर्म है । यह भी दोनो प्रकार का है।
__ व्यक्ति की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता, सम्मान-असम्मान-- ये सब नाम और गोत्र कर्म के कारण होते हैं । इनके क्षय से पूर्णता-अगुरुलघुता प्राप्त होतो है । आत्मा अपने नैसर्गिक रूप में स्थित होती है।
जो कर्म-पुद्गल अमुक समय तक अमुक प्रकार के जीवन के निमित्त बनते हैं वह आयुष्य कर्म है । शुभ और अशुभ आयुष्य सुखी और दुखी जीवन का निमित्त बनता है । इससे देव, मनुष्य, तिथंच और नरक-आयु प्राप्त होती है । आयुष्य कर्म के क्षय से आत्मा अमर और अजन्मा बनती
कर्म की अवस्थाएं
कर्म की मुख्यतया तीन अवस्थाए हैं१ बध्यमान-जीवात्मा के साथ कर्म-पुद्गलो का सम्बन्ध, सश्लेष
होता है, वह बद्ध अवस्था है। २ सत्ता-कर्म बन्ध होते ही उसका परिणाम चालू नहीं होता,
कुछ समय के लिए उनका परिपाक होता है। यह
परिपाक-काल "सत्ता" है । सत् अवस्था है। ३ उदीयमान-परिपाक के पश्चात् प्राणी को सुख-दुख रूप या
आवरण रूप फल मिलता है। यह कर्म की उदीयमान
(उदय) अवस्था है। अन्य दर्शनो मे कर्म की क्रियमाण, सचित और प्रारब्ध -ये तीन अवस्थाए मानी गई हैं, जो उक्त तीनो अवस्थाओ की समानार्थक हैं।
वास्तव मे "कर्मवाद" जैन-दर्शन का बहुत बडा मनोविज्ञान है । कर्मशास्त्र के अध्ययन के बिना न मन का समग्रता से विश्लेषण हो सकता है, न व्यक्तित्व का । बहुत विशाल और सूक्ष्म है कर्म का जगत् । कर्म-परमाणुओ से हमारी असख्य दुनिया भर सकती है। उनके सामने हमारे स्थूल शरीर की रचना करने वाली छह सौ खरब कोशिकाए कुछ भी नहीं हैं। इस शरीर में प्रति सैकण्ड पाच करोड़ कोशिकाए तथा प्रति मिनट तीन अरब कोशिकाए उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं। कितने रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं । यह स्थूल शरीर की बात है। हमारा कर्म शरीर बहुत सूक्ष्म है । सब कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतिया स्वत
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जैनधर्म : जीवन ओर जगत्
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करने वाला एक आतरिक नियम है । आतरिक व्यवस्था है । जो कर्मवाद को नही जानता, वह धर्म को भी नहीं जानता । जो चेतना और कर्म की व्याख्या नही कर सकता, वह धर्म की व्याख्या नही कर सकता । धर्म है अन्तरजगत् में प्रवेश । वहा जाने के लिए उन नियमो को भी जानना आवश्यक है । जो आत्मा को बाघ रहा है, वह है कर्म । कर्म-वन्ध और उसके विपाक को समझने वाला व्यक्ति सहज ही अपने आपको कर्म-वन्धन के निमित्तो से बचा सकता है ।
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
होता है। प्राचीन भारत मे यह "हाडी"- भोजन-पकाने के पात्र अर्थ मे प्रयुक्त होता था। जैसे- स्थाली पुलाक न्याय । स्थाली का ही अपभ्रश थाली है।
दक्षिण भारत में सुहाग का प्रमुख चिह्न है थाली । "मागल्यम्-थाली" यानी पीले धागेवाली सुनहरी पैडिल-जो विवाह-मडप मे पिता वधू के गले मे मगल-सूत्र की भाति पहनाता है ।
हम जिस क्रिया का प्रयोजन समझते हैं, उसके सिवाय भी उस क्रिया के अगणित प्रयोजन हो सकते हैं । हमने जिस वस्तु को जिस रूप में जाना, समझा है, उसके अतिरिक्त भी उसे समझने के अनेक कोण हो सकते हैं। हमारे ज्ञात अर्थ के सिवाय उसकी अनेक ज्ञेय पर्यायें हो सकती हैं । जिस घटना की हमे जो प्रतीति होती है, उसके सिवाय उसमे अनेक प्रतीतिया अतर्गभित हो सकती हैं। अनेकान्त दृष्टि से ही इन सबमे सामजस्य स्थापित किया जा सकता है । समाधान खोजा जा सकता है।
जैन-दर्शन के अनुसार ससार मे अनत जीव हैं। वे अनत स्वभाव के हैं । अनत वस्तुए हैं। उनके अनत पर्याय हैं, अनत परमाणु हैं और मनत परिणमन हैं।
अनत जीव, अनत दृश्य पदार्थ और अनन्त परिणमन-यही जागतिक सत्य है। सत्य का स्वरूप सापेक्ष है। अपेक्षा-दष्टि से देखने पर भी गुण-धर्म सत्य है । निरपेक्ष कुछ भी नहीं है । इस सापेक्ष विचार-शैली का नाम ही अनेकान्त है।
भगवान् महावीर ने मत्य की उपलब्धि के लिए एक अलौकिक दर्शन प्रस्तुत किया है। उन्होने कहा-वस्तु का एक धर्म ही सत्य नही है, उसके सभी धर्म सत्य हैं । एक दृष्टिकोण से वस्तु का एक धर्म जितना सत्य है, दूसरी दृष्टि से उसका दूसरा धर्म भी उतना ही सत्य है । इस प्रकार अपेक्षाभेद से यह सिद्ध हो जाता है कि वस्तु अनत धर्मात्मक है ।
__भगवान् महावीर ने भारतीय दर्शन के मौलिक तत्त्वो-आत्मा, शरीर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु, लोक, बधन और मुक्ति का प्रतिपादन अनेकान्त की शैली में किया है । पदार्थ के विभिन्न गुण-धर्मों का विभिन्न दृष्टियो से विश्लेषण कर उन्होने विराट् सत्य की प्रस्तुति दी है।
जैन-दर्शन के अनुसार जीव पुद्गल आदि समस्त पदार्थों के स्वरूपनिर्णय के परिप्रेक्ष्य मे उसे कम-से-कम चार दृष्टियो से परखना नितान्त अपेक्षित है । वे दृष्टियां हैं-(१) द्रव्य-दृष्टि, (२) क्षेत्र-दृष्टि, (३) कालदृष्टि (४) भाव-दृष्टि । यहा द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव को समझ लेना भी जरूरी है
द्रव्य-गुण समुदाय को द्रव्य कहते हैं । द्रव्य का अर्थ है वस्तु ।
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जैनधर्म जीवन और जगत् व्यवस्था कैसे चलेगी? जीवन-क्रम कैसे चलेगा? इसका उत्तर है कि अनेकात मे इस विरोध के परिहार का मार्ग भी उपलब्ध है। उसका एक सूत्र है-सर्वथा विरोध और सर्वथा अविरोध जैसा दुनिया मे कुछ भी नहीं है। जहा विरोध है वहा अविरोध भी है । विरोध और अविरोध को कभी कम नही किया जा सकता। यह विश्व सप्रतिपक्ष है । प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का अस्तित्व सभव नहीं। हमारा जीवन द्वन्द्वात्मक है । सुख-दुख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान-ये सब सापेक्ष हैं । इनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, इनके विरोध-परिहार का उपाय है- सापेक्षता ।
हमारे शरीर मे दो परस्पर विरोधी प्राण धाराए प्रवाहित हैंनेगेटिव और पोजिटिव । चन्द्रनाडी और सूर्यनाडी । पर क्या ये सर्वथा विरोधी हैं ? सचाई यह है कि एक के विना दूसरी का भी अस्तित्व सुरक्षित नही रहता । अकेली चन्द्रनाडी या अकेली सूर्यनाडी हमारे जीवन को सुरक्षित नही रख सकती। हमारे शरीर को सक्रिय नही रख सकती। हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्रियाओ का सचालन नही कर सकती।
हमारे जीवन का एक आधार है प्राण वायु और अपान वायु । ये परस्पर विरोधी है फिर भी दोनो का सापेक्ष मूल्य है । जीवन के लिए दोनो की अनिवार्यता है।
हमारे शरीर मे अनेक प्रकार की ग्रन्थिया है। सबके अलग-अलग भाव हैं । अलग-अलग कार्य हैं फिर भी सब एक दूसरे के पूरक है । परस्पर सामजस्य है । जब तक सामजस्य पूर्वक ग्रन्थि-तत्र काम करता है, तब तक शारीरिक स्थिति ठीक रहती है । सामजस्य टा कि सब गडबडा जाएगा। सतुलन विरोधो के मध्य सेतु है । सतुलन का आधार है अनेकात दृष्टि । अनेकात सापेक्ष सत्यो की स्वीकृति है । अपेक्षा भेद से ही हम शाश्वत और सामयिक सत्य को अपनी-अपनी भूमिका मे स्वीकृति या अस्वीकृति देते हैं ।
विरोधी युगलो मे सगति स्थापित करने का आधार है विवक्षा-भेद । जिस समय मे पदार्थ के जिस गुण-धर्म की विवक्षा होती है, वह प्रधान हो जाता है और शेष सारे धर्म गोण रूप से उस पदार्थ के अन्तहित हो जाते हैं । ऐसा किए बिना प्रत्येक पदार्थ हमारे लिए अनुपयोगी या अप्रासगिक हो जाता है।
गति की सामान्य प्रक्रिया है कि एक पैर आगे रहे और एक पर पीछे रहे । यदि दोनो पर आगे या बराबर रहने का आग्रह करे तो गतिक्रिया नही हो सकती । विलौना करते समय मथनी की रस्सी को थामने वाले दोनो हाथ क्रमश आगे पीछे होते रहते हैं । तभी मथन होता है । नवनीत निकलता है । वस्तु के एक धर्म की प्रधानता और शेष समस्त धर्मों की अप्रधानता अनेकात का व्यावहारिक रूप है।
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
पर भी विचार कर लें।
अनेकान्त वस्तु का स्वभाव है। सर्वज्ञो के अनतज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति है।
अनत धर्मात्मक वस्तु का कथन बिना दृष्टि-बिन्दुओ के सभव नही । वस्तु के अनत धर्मों के प्रतिपादन की क्षमता भी भाषा जगत् के किसी भी शब्द मे नही है। अत 'स्यात्' शब्द के माध्यम से सत्य को सापेक्ष प्रतिपादित करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है ।
अनेकान्त सापेक्ष जीवन-शैली है और स्याद्वाद प्रतिपादन की पद्धति । अनेकात दर्शन है, उसका व्यक्त रूप स्याद्वाद है । वास्तव मे देखा जाए तो अनेकात और स्याद्वाद आपस मे गहरे जुडे हुए हैं। जुडवा बच्चो की तरह, एक दूसरे के पूरक ।
अनेकात के बिना स्याद्वाद का जन्म नही, स्याद्वाद के बिना अनेकात हमारे लिये उपयोगी नही । अनेकात को उजागर करने वाला स्याद्वाद
- अपेक्षा है अनेकातवाद और स्याद्वाद-इन दोनो का ही वर्तमान समस्याओ के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाए और मानवीय व्यवहार के साथ इस महान् दर्शन को जोडकर जागतिक स्तर पर समन्वय और सहअस्तित्व को प्रतिष्ठित किया जाए।
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
क्योकि उसमे कार्यशील पुद्गल परमाणु सपूर्णत नष्ट नही होते । दीपक के तेल और बाती जलते हैं, वे धूम तथा गैस मे परिणत हो जाते हैं, अत उनका स्वरूप परिवर्तन अवश्य होता है, पर विलयन नही।
आकाश, जो साधारणतया नित्य प्रतीत होता है, वह भी कथचित अनित्य भी है। उन्मुक्त आकाश जब घेरे मे बन्द हो जाता है तो उसकी अवस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन ही अनित्यता का ससूचक है। यह निश्चित है कि स्थायित्व के बिना परिवर्तन आधारशून्य है और परिवर्तन के विना स्थायित्व मूल्यहीन । कोई भी पदार्थ स्थायित्व और परिवर्तन की रेखा का अतिक्रमण नही कर सकता। आम को निचोडकर रस बना लिया गया। हमारी आखो के सामने अब वह आम का फल नही है। रस, जो पहले दृष्टिगोचर नहीं था, हमारे सामने है, पर उसमे आम्रत्व वही है । उमे हम नारगी का रस नही कहेगे ।
जहा तक चिन्तन और मान्यता का प्रश्न है, अनेकान्त दृष्टि हमारा पथ प्रशस्त कर देती है । पदार्थ अनन्त हैं और उन्हे जानने के लिए दष्टिया भी अनन्त हैं। पर अभिव्यक्ति का साधन तो एक भाषा ही है। वह भी इतनी लचीली और दुर्बल कि उसके द्वारा हम एक क्षण मे वस्तु के एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकते हैं। इसका अर्थ होता है -- एक वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्द चाहिए। और वैसे अनन्त-अनन्त पदार्थों के लिए अनन्त-अनन्त शव्द चाहिए। उनके लिए जीवन भी अनन्त चाहिए, पर यह मभव नही । अत हम इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि भाषा के सहारे हम न तो वस्तु का सपूर्ण परिज्ञान ही कर सकते हैं और न ही अभिव्यक्ति । लेकिन जैन तीर्थकरो ने भापा के भडार को एक ऐसा रत्न प्रदान किया, जिमो प्रभा-मडल से समूचा भापा-भडार जगमगा उठा। वह शब्द रत्न है 'स्यात्'। यह इतना सक्षम है कि जिस वस्तु के साथ इसे जोड दिया जाए, उग वस्तु के ममग म्प को अभिव्यक्त करने का अपना दायित्व वह वहत ही जागरूकता में निभाता है। यह मापा-जगत् का प्राण है । इसके अभाव मे भापा अपने दायित्व का निर्वाह कर ही नहीं पाती। यह अखड सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है । यह एक ऐसा दर्पण है, जिसमे वस्तु के सभी रूप एक माय प्रतिविम्बित हो सकते हैं । यह वस्तु के किसी एक धर्म का मुख्यतया प्रतिपादन करता हु भी उसके गेप अनन्त धर्मों को आखो मे ओझल नही कर मरता।
___ वायं श्री तुटमी ने श्री "भिक्षु न्यायकणिका" मे स्यावाद की गरम में मुगम परिभाषा देते हुए लिया है--
अपंगानपंगाम्यामनेकान्तात्मकायंप्रतिपादनपद्धतिः स्यावाद । बनेन वर्मा वन्तु सा एक गमय मे, एक धर्म की प्रजानता
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
क्योकि उसमे कार्यशील पुद्गल परमाणु सपूर्णत नष्ट नही होते । दीपक के तेल और वाती जलते हैं, वे धूम तथा गैस मे परिणत हो जाते हैं, अत उनका स्वरूप परिवर्तन अवश्य होता है, पर विलयन नही।
आकाश, जो साधारणतया नित्य प्रतीत होता है, वह भी कथचित अनित्य भी है। उन्मुक्त आकाश जब घेरे मे बन्द हो जाता है तो उसकी अवस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन ही अनित्यता का ससूचक है। यह निश्चित है कि स्थायित्व के बिना परिवर्तन आधारशून्य है और परिवर्तन के बिना स्थायित्व मूल्यहीन । कोई भी पदार्थ स्थायित्व और परिवर्तन की रेखा का अतिक्रमण नही कर सकता। आम को निचोडकर रस बना लिया गया। हमारी आखो के सामने अब वह आम का फल नही है । रस, जो पहले दृष्टिगोचर नही था, हमारे सामने है, पर उसमे आम्रत्व वही है । उसे हम नारगी का रस नही कहेगे ।
जहा तक चिन्तन और मान्यता का प्रश्न है, अनेकान्त दष्टि हमारा पथ प्रशस्त कर देती है । पदार्थ अनन्त हैं और उन्हे जानने के लिए दृष्टिया भी अनन्त हैं। पर अभिव्यक्ति का साधन तो एक भाषा ही है। वह भी इतनी लचीली और दुर्बल कि उसके द्वारा हम एक क्षण मे वस्तु के एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकते हैं। इसका अर्थ होता है-- एक वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्द चाहिए । और वैसे अनन्त-अनन्त पदार्थों के लिए अनन्त-अनन्त शब्द चाहिए। उनके लिए जीवन भी अनन्त चाहिए, पर यह सभव नही । अत हम इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि भाषा के सहारे हम न तो वस्तु का सपूर्ण परिज्ञान ही कर सकते हैं और न ही अभिव्यक्ति । लेकिन जैन तीर्थंकरो ने भाषा के भडार को एक ऐसा रत्न प्रदान किया, जिसके प्रभा-म डल से समूचा भाषा-भडार जगमगा उठा। वह शब्द रत्न है 'स्यात्' । यह इतना सक्षम है कि जिस वस्तु के साथ इसे जोड़ दिया जाए, उस वस्तु के समग्र रूप को अभिव्यक्त करने का अपना दायित्व वह बहुत ही जागरूकता से निभाता है। यह भाषा-जगत का प्राण है। इसके अभाव में भापा अपने दायित्व का निर्वाह कर ही नही पाती । यह अखड सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है । यह एक ऐसा दर्पण है, जिसमे वस्तु के सभी रूप एक माय प्रतिबिम्बित हो सकते हैं। यह वस्तु के किसी एक धर्म का मुख्यतया प्रतिपादन करता हुआ भी उसके शेष अनन्त धर्मों को आखो मे ओझल नहीं पसरता।
जाचार्य श्री तुलसी ने श्री "भिक्षु न्यायकणिका" मे स्याद्वाद की मरन और मुगम परिभाषा देते हुए लिखा है
अपंणानपंणाभ्यामनेकान्तात्मकार्यप्रतिपादनपद्धतिः स्यावाद । अनेक वर्मात्मक वस्तु का एक ममय मे, एक धर्म की प्रधानता
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जनदर्शन मे स्याद्वाद विवक्षा और शेष धर्मों की अप्रधानता-अविवक्षा से प्रतिपादन करने की पद्धति अनेकान्तवाद है। 'स्यात्' शब्द के प्रयोग से हम इस प्रयत्न मे सफल हो सकते हैं, अत इसे स्याद्वाद भी कहते हैं।
स्यात् का अर्थ सशय या सभव नही । सशय अनिर्णायकता की स्थिति में होता है । वह अज्ञान है । उसकी भाषा बनती है-'यह अच्छा है या बुरा, कुछ नही कह सकते। इसके विपरीत स्वाद्वाद निर्णायक ज्ञान है । उसकी भाषा है-यह अमुक दृष्टि से अच्छा ही है और अमुक दृष्टि से बुरा ही है । वस्तु सत् भी है और असत् भी है। अर्थात् वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सत् है और दूसरे के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'असत्' है । एक फूल है। उसमे अस्ति धर्म जितना सावकाश है, उतना ही नास्ति धर्म भी है। इसलिए प्रत्यक्ष दिखने वाले फूल के विषय मे भी हम निश्चित कह सकते हैं-यह फूल है भी और नही भी। सभवत एक बार यह हमे अटपटा-सा लगे, पर तभी तक, जब तक कि हम उसे विविध अपेक्षाओ के परिप्रेक्ष्य मे नही समझ लेते । दष्टियां
नही द्रव्य दृष्टि यह गुलाब का फूल है कमल का फूल नहीं है क्षेत्र दृष्टि यह जयपुर का है
उदयपुर का नही है काल दृष्टि यह वसन्त ऋतु का है ग्रीष्म का नहीं है भाव दृष्टि यह विकसित है
अविकसित नहीं है। इस प्रकार एक ही वस्तु मे दार्शनिक दृष्टि से नित्य-अनित्य आदि तथा व्यावहारिक दृष्टि से छोटा-बडा, दूर-समीप, अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा, शीतल-उष्ण आदि अनन्त धर्मों की अवस्थिति निर्वाध है। यह 'स्यात्' शब्द परस्पर-विरुद्ध धर्मों का प्रतिपादन नहीं करता, अपितु हमे जो विरोध लगता है, उसका यह अपेक्षा भेद से निरसन करता है।
प्रत्येक पदार्थ के विविध रूप हैं। उसे एकरूप मानना चिंतन की जडता का प्रतीक है। भोजन की उपयोगिता को कोन नकार सकता है ? वह भूखे व्यक्ति के लिए परम रसायन, औषध तथा अमृत है । लेकिन वही अजीर्णग्रस्त व्यक्ति के लिए क्या जहर नही बन सकता ?
व्यायाम स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं, परन्तु किन्ही परिस्थितियो मे वह अस्वास्थ्य को बढाने वाला भी हो जाता है।।
हम इस सापेक्ष दृष्टि को दूसरे उदाहरण से और समझे। मान लें दो व्यक्तियो ने एक ही समय में एक ही घडे का पानी पिया। एक को वह पानी बहुत ठडा लगा, पीकर तृप्त हो गया। दूसरे की प्यास नही बुझी । उसे वह पानी गर्म लगा । यह क्यो ? पानी समान होते हुए भी दो व्यक्तियों की प्रतीति और परिणाम मे इतना अन्तर ? इसका कारण यही हो सकता
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जैनधर्म जीवन और जन
है कि पहला व्यक्ति नल का गर्म पानी पीकर आया है, उसे घडे का प ठडा लग रहा है और जो वर्फ खाकर आया है उसे यही पानी गर्म लग' है । यह है अवस्था-भेद से सवेदन की भिन्नता ।
एक फूल है। कोई व्यक्ति उसके रूप पर निछावर हो जाता है कोई मादकता भरी महक से उन्मत्त । चिन्ताओ मे डूबा किसी का मन विह फूलो को देख प्रसन्नता से भर उठता है तो किसी की वासना उभर जाती कुछ व्यक्ति फूलो की सुगधि और कोमल सस्पर्श के सुख-भोग मे लीन र हैं, वहा कुछ समय-समय पर सरसाये मुरझाये फूलो मे पोद्गलिक सुखो अनित्यता का बोध कर विरक्त भी हो जाते हैं। यदि वस्तु एक धर्मात्मक होती तो अलग-अलग परिस्थितियो मे उसका प्रभाव एक-सा ही होता। नहीं होता।
हम विद्युत् के युग मे जी रहे हैं, घर-परिवारो मे बहुत-सी प्रवृत्ति बिजली के आधार पर चलती हैं। विजली के उपयोग हेतु तार फिट f जाते हैं। उनमे विद्युत् की धारा प्रवाहित होती है। उससे पखा चलता बल्ब जलता है, भोजन पकता है, रेडियो बजता है, टी०वी० चलता टेलीफोन पर बातचीत होती है. मकान वातानुकूलित बनता है । इस प्रक अनेक रूपो मे मनुष्य विद्युत् शक्ति का उपयोग करता है। जैसा कि ह जाना सभी तारो मे एक ही विजली का प्रवाह है फिर भी पखे मे उस चालक गुण, बल्ब मे प्रकाशक गुण, सिगडी मे दाहक गुण, रेडियो/टेलीप मे ध्वनि-सप्रेषक गुण क्रियाशील है। जो वटन दबाया जाता है, वही प्रकट हो जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्युत् मे अनेक गुण-' विद्यमान हैं । यहा यह भी ज्ञातव्य है कि उसके अन्यान्य गुण विभिन्न नि पाकर ही उभरते हैं । बल्ब मे उसका प्रकाशक गुण ही कार्य करता है, न दाहक गुण । पर इतने मात्र से हम उसके दाहक गुण को नकार नहीं सक हा, प्रकाशक गण के उभरते ही शेष धर्म अप्रधान बनकर उसका अनुग करने लग जाते हैं। गति के लिए यह अनिवार्य भी है। एक पैर जब बढता है तो दूसरा अपने आप पीछे हट जाता है। यह गति मे बाधा न प्रेरणा है-यदि एक पैर पीछे हटने से इन्कार कर दे तो बड़ी मुश्किल जाए।
इस प्रकार अनेकात और स्याद्वाद के माध्यम से हम पदार्थ का सम्य बोध और सम्यक्-प्रतिपादन कर सकते हैं। इसकी उपादेयता केवल व जगत् तक ही परिसीमित नही है। हमारे जीवन का प्रत्येक पहलू इ सस्पृष्ट तथा उजागर है ।
__ हमारा जीवन एकता और विविधता का योग है। मनुष्य-मनुष्य है, यह समानता की अनुभूति समूची मानव-जाति को एकत्व के सूत्र मे पि
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जनदर्शन मे स्याद्वाद
रखती है । सबकी रुचिया, अपेक्षाए जीने की पद्धतिया और अपेक्षा-पूर्ति के स्रोत हैं भिन्न, अत वह विविध रूपो में विभक्त हो जाती है ।
व्यक्ति का जिसके साथ अधिक लगाव या ममत्व होता है, उसे वह महत्त्व देता है । फलत विभिन्न वर्ग, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि की रेखाए उभर आती हैं। महत्त्व देना बुरा नही, यदि उससे दूसरो का महत्त्व और हित खण्डित न हो। समस्या यही प्रसूत होती है कि व्यक्ति 'स्व' को जितना महत्त्व देता है, 'पर' को उतना ही नकारने लग जाता है। यही से मानवीय एकता खण्डित होने लगती है। सघर्ष के ज्वालामुखी फूट पडते
एक परिवार मे अनेक सदस्य होते हैं। उन सबके हित, स्वार्थ, रुचिया और योग्यताए भिन्न होती हैं। इस स्थिति मे किसी एक के हितो, योग्यताओ आदि को महत्त्व व सम्मान देने पर परस्पर टकराव होता है और अलगाव की दीवारें खिंच जाती हैं। धीरे-धीरे वैमनस्य, घृणा और प्रतिहिंसा की भावनाए बलवती होती जाती हैं। सरस पारिवारिक जीवन मे विरसता का विष घुलने लग जाता है। इसके विपरीत यदि प्रत्येक सदस्य अपने हितों और भावनाओ को गौण कर दूसरे की भावनाओ और हितों को प्राथमिकता दे तो स्वय का हित विघटित कभी नही होता, वह अधिक सधता है और पारिवारिक जीवन मधुमय बन जाता है। निरपेक्ष व्यवहार जहा एकत्व में बिखराव पैदा करता है, वहा सापेक्ष व्यवहार विखरी हुई मणियो को सुन्दर माला का आकार प्रदान करता है। सापेक्ष दृष्टिकोण शान्त, सरस और सुखी जीवन का मूल मन्त्र है। दष्टि की एकागिता आग्रह को जन्म देती है। आग्रह हिमा है, जिसकी भूमिका मे वैमनस्य और दुर्भावनाओ के बीज अकुरित होते हैं, जो एक दिन विष-वृक्ष के रूप मे हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।
वर्तमान के सदर्भ में भी स्याद्वाद की अर्हता निर्विवाद है। इसमे वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का सुन्दर समाधान सनिहित है।
___ शोपणहीन समाज की सरचना, नि शस्त्रीकरण, विश्वमैत्री, सहअस्तित्व आदि दृष्टियो और सिद्धातो का पल्लवन-उन्नयन स्याद्वाद के प्रतिष्ठान से ही सभव है।
जैन दर्शन की यह सुलझी हुई मान्यता समूचे विश्व के लिए एक वैज्ञानिक देन है।
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जैन धर्म में जातिवाद का आधार
किसी अमीर व्यक्ति का अह जागा। वैभव के प्रदर्शन की वृत्ति पनपी। मा की पूजा का विराट् आयोजन रखा गया। सोने की चौकी बनवाई। आयोजन के पश्चात् वह स्वर्ण-निर्मित भारी चौकी ब्राह्मण को दक्षिणा मे देते हुए गर्व के साथ बोला-"पडितजी । आज तक कोई इतना बडा दानी आपने देखा क्या ?" जब अह से अह टकराता है तो वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है । एक रुपये के साथ सोने की चौकी लौटाते हुए पडितजी ने कहा- “सेठजी । आज तक कोई इतना बडा त्यागी देखा क्या ?" सेठजी का अह चूर-चूर हो गया।
जातिवाद की मान्यता के पीछे भी ऐसी ही गर्वोक्तिया परस्पर टकराती हैं और सघर्ष की चिनगारिया उछलती हैं।
___ जातिवाद का प्रश्न नया नही, हजारो वर्ष पुराना है। महावीर और बुद्ध के समय इसकी चर्चा ने उग्र रूप धारण कर लिया था। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक- सभी क्षेत्रो मे जातिवाद का दैत्य प्रवेश पा चुका था।
जातिवाद के मूल मे दो प्रकार की विचार-धाराए रही हैं। एक ब्राह्मण-परम्परा की और दूसरी श्रमण-परम्परा की। एक "जाति" की तात्विक मानती है और दूसरी अतात्विक ।
ब्राह्मण-परम्परा ने जन्मना जाति का सिद्धात स्थापित कर उसे तात्विक माना, ईश्वर-कृत माना । श्रमण-परम्परा ने कर्मणा जाति का सिद्धात स्थापित कर उसे अतात्विक माना। समाज-व्यवस्था की सुविधा के लिए मनुष्य द्वारा किया गया वर्गीकरण माना।
ब्राह्मण-परम्परा ने कहा-ब्रह्मा के मुख से जन्मने वाले ब्राह्मण, भुजा से जन्मने वाले क्षत्रिय, पेट से जन्मने वाले वैश्य और पैरो से जन्मने वाले शूद्र हैं। जन्म-स्थान की भिन्नता के कारण इन वर्गों की श्रेष्ठताअश्रेष्ठता घोषित की गई। ब्राह्मणो को सर्वोत्कृष्ट और पूज्य माना गया । अन्त्यजों को निकृष्टतम और घृणित माना गया।
श्रमण-परम्परा ने इस मान्यता का विरोध किया और यह पक्ष स्थापित किया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्म (आचरण) से होत है। जाति के आधार पर किसी को हीन मानना अपराध है। मानवता का अपमान है। जातिवाद के विरुद्ध इस महान क्राति के सूत्रधार थे-भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध । भगवान महावीर ने कहा-हीन जाति में उत्पन्न
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जैनधर्म मे जातिवाद का आधार
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व्यक्ति भी तप साधना द्वारा श्रेष्ठना और पूज्यता को प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत उच्च कुल मे उत्पन्न होकर भी चरित्र-भ्रष्ट व्यक्ति उच्चता हासिल नही कर सकता। इसलिए जाति की दृष्टि से न कोई हीन है, न कोई अतिरिक्त है । न ऊचा है, न नीचा है ।
प्रश्न होता है -हिन्दुस्तान मे जाति का विभाजन कब और क्यों हुआ ? तथा जातिवाद क्यो पनपा ?
जैन परम्परा के अनुसार पहले मनुष्य जाति एक थी। युग के आरभ मे जातियो की व्यवस्था नही थी। वह यौगलिक युग था। जनसख्या सीमित थी। जो भाई-बहन के रूप मे उत्पन्न होते पति-पत्नी बनकर एक साथ रहते ओर एक साथ ही मरते। उन्हें युगलचारी या यौगलिक कहा जाता था। यौगलिक युग पलटा । कर्म-युग का प्रवर्तन हुआ । भगवान् ऋषभ राजा बने । उन्होने मनुष्य-समाज को कुछ वर्गों में विभाजित कर दिया। मूल बात यह थी कि ऋषभ ने राज्य सचालन के लिए कुछ व्यवस्थाए दी थी। जहा व्यवस्था होती है, वहा विभाग आवश्यक होते हैं। विभाग का आधार हैसमाज की विभिन्न अपेक्षाए। उन्होने समाज को तीन विभागो मे बांटा१. पगम २ कौशल और ३ उत्पादन । इन तीनो के प्रतीक वने-असि, मसि और कृषि शब्द ।
__ जब जनसख्या बढी, कल्पवृक्ष घटे और लोगो की जरूरत बढ़ी तो ऋपभ ने निर्देश दिया-उत्पादन बढाओ और समाज की जरूरतों को पूरा करो। कृपि का विकास हुआ। कृषक-वर्ग उभरा।
उत्पादन के विनिमय-वितरण और निर्यात की व्यवस्था के लिए ऋपभ ने एक विभाग स्थापित किया। उसके आधार पर व्यवसाय-वाणिज्य-कौशल का विकास हुआ । वस्तु-विनिमय और वितरण मे दोनो पक्षो को न्याय मिले, लाभ मिले, सबकी आवश्यकताओ की पूर्ति उचित विनिमय के आधार पर हो, इस दृष्टि से व्यवस्थित हिसाब-किताव रखना भी आवश्यक समझा गया। उसका माध्यम था-लेखन । लिखने का प्रतीक शब्द बन गया। मसि-स्याही।
जहा विनिमय की बात होती है वहा सघर्ष की सभावनाए भी रहती हैं । हितो मे टकराव और आपाधापी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । ऋपभ ने सबके हितो के सरक्षण हेतु रक्षा-व्यवस्था दी। उसका प्रतीक बना असि शब्द । असि यानि तलवार हथियार का प्रतीक बन गया।
समाज की रक्षा वही कर सकता है जो पराक्रमी हो ।
वह पराक्रमी वर्ग क्षत्रिय कहलाया। इस प्रकार भगवान् ऋषभ ने उत्कालीन सामाजिक अपेक्षाओ के आधार पर समाज की सुविधा, विकास और सुरक्षा की दृष्टि से यह त्रिवेणी-व्यवस्था दी।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
वैदिक परम्परा मे निर्धारित चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का मूल आधार भी बुद्धि, पराक्रम, विनिमय और सेवा ही रहा है। ब्रह्मा के मुख भुजा उदर और पैरो से उत्पन्न होने की जो बात कही गई है वह भी प्रतीकात्मक ही है । मुख बुद्धि का, भुजा पराक्रम का, पेट व्यवसाय-विनिमय का, पैर गतिशीलता-सेवा का प्रतीक है ।
जहा समाज अथवा राज्य-सचालन का प्रश्न होता है, वहा व्यवस्थाए आवश्यक हैं । जहा व्यवस्था है, वहा वर्गीकरण भी जरूरी है।
समाज के लिए बुद्धि, पराक्रम, व्यवसाय-कौशल और सेवा मे से किसी एक तत्त्व को भी उपेक्षित नही किया जा सकता। समस्या तव उभरती है, जब किसी भी प्रवृत्ति का उद्देश्य और मूल रूप ओझन हो जाता है तथा दूसरा पक्ष उभर कर सामने आ जाता है ।
काण्ट ने सामाजिकता की दृष्टि से व्यक्तियो को तीन वर्गों में बाटा
१ बुद्धि प्रधान २ साहस प्रधान और
३ वासना प्रधान-सब की वासना-इच्छा की आपूर्ति करने वाला वर्ग ।
यह वर्गीकरण जैन चिन्तन के अधिक निकट है, अनुकूल है। , सामान्यत हर व्यक्ति मे तीनो शक्तिया होती हैं। किन्तु सब मे सब प्रकार की शक्तियो का विकास समान नही होता। जिसमे जिस शक्ति का विशिष्ट विकास होता है वह व्यक्ति उस वर्ग के साथ जुड जाता है। पर एक वर्ग के व्यक्तियो मे अमुक शक्ति का विकास होता ही है, यह जरूरी नही है।
ब्राह्मणो मे भी अपढ़ -अविद्यावान हो सकते हैं। क्षत्रिय जाति में भी कोई भीरू हो सकता है। वैश्य परिवार मे जन्म लेने वालो मे भी सबको व्यावसायिक-बुद्धि, वाणिज्य-कौशल उपलब्ध हो, यह आवश्यक नहीं है। शिल्प और सेवा-कार्य भी किसी की नियति नही हो सकती। इसीलिए जैनचिन्तको ने कहा -जाति तात्विक नही है । मौलिक नही है। जाति-व्यवस्था मनुष्य द्वारा कृत है। समाज की उपयोगिता है। वह व्यक्ति की कमजा शक्ति के साथ जुडी हुई है। काय-परिवर्तन के साथ ही जातिगत मान्यता परिवतित हो जाती है।
इस प्रसग मे आचार्य कृपलानी का उदाहरण बहुत ही प्रेरक हो सकता है । एक बार वे ट्रन से यात्रा कर रहे थे। बगल की सीट पर बैठ सज्जन ने पूछा--"आप किस कौम के हैं ?" कृपलानो मौन रहे। दूसरी-तीसरी बार पूछने पर बोले – “भाई । मैं किसी एक कोम का होऊ तो बालू । देखो; सुबह-सुबह अपनी साफ-सफाई करता हूं, इसलिए हरिजन हूँ।
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। जैनधर्म मे जातिवाद का आधार
११७ मध्याह्न मे खरीरदारी करता हू अथवा सहयोग का विनिमय करता हू, अत' वंश्य हूँ। मेरी वृत्ति है अध्यापन, इसलिए ब्राह्मण हू तथा अपनी और अपने परिवार की रक्षा का दायित्व निभाता है, इसलिए मैं क्षत्रिय भी है।
यही बात भगवान महावीर ने कही थी -
मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । इसलिए जाति को लेकर किसी से घृणा मत करो।
जाति का वर्गीकरण कर्म के आधार पर होता है इस तथ्य को समझाते हुए उन्होने कहा-समाज व्यक्तियो से बनता है । व्यक्तियों में शक्ति की भिन्नता और तरतमता होती है। उसी के अनुरूप कर्म होता है । कर्म जाति का आधारभूत तत्त्व है।
भगवान् महावीर और बुद्ध ने जातिवाद के विरुद्ध तीव्र आन्दोलन चलाया । उन्होने कहा- जाति का गर्व मत करो। जाति का अह नरक का कारण है । इतने प्रयत्नो के बावजूद भी हमारे देश मे जातिवाद का जुडाव मानव-मन के साथ गहरा हो गया है । हीन कुल मे उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को सामान्य मानवीय अधिकारो से वचित कर दिया गया। उसके लिए विकास के सारे द्वार वन्द हो गए । धर्म के लोगो ने जातिवाद की आड में आपसी वैमनस्य को बढावा देने मे प्रमुख भूमिका निभाई । उस समय यह तत्त्व भुला दिया जाता है कि जाति व्यवहाराश्रित है और धर्म आत्माश्रित । आत्म-जगत् मे प्रत्येक प्राणी समान है । वहा जातियो के विभाग इन्द्रियो के आधार पर हैं। धर्म के आधार पर मानव का बटवारा करना धर्म-विरुद्ध है। धर्म के उपदेष्टा ऋषियो ने कहा-प्रत्येक प्राणी को अपने जैमा समझो • उनकी दृष्टि मे भाषा, वर्ण, धर्म, जाति आदि को लेकर भेदभावना को प्रश्रय देना अनुचित है । जातियो की कल्पना केवल कर्म की दृष्टि से की गयी थी। आचार, रीति-रिवाज तथा भौगोलिक दृष्टि से भिन्न होते हुए भी "मनुष्य जाति एक है" ऐसा कह कर सब मे भ्रातृत्व के चीज बोये गये थे। फिर भी मनुष्य इस एकता को भूलकर अनेकता मे विभक्त हो गया। वह जाति के मद मे एक को ऊचा और एक को नीचा समझने लगा । फलस्वरूप समाज मे घणा का वातावरण निर्मित हो गया।
श्रमण-परम्परा के विद्वान् माचार्य धर्म-कीर्ति ने जडता के पाच नक्षण वताए हैं, उनमे एक है जाति का अहसार। अह उन्माद पैदा करता है। उन्माद की स्थिति मे इतनी मोटी बात भी समझ में नहीं आती कि भादमी नादमी को नीचा न समझे, उसे भ्रातृत्व की दृष्टि से देखे, भ्रातृत्वभावना का विकास करे।
वास्तव मे जाति आदि को लेकर किसी को ऊचा-नीचा समझना
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जैनधर्म जीवन और जगत् कोई बौद्धिक बात नहीं है। यह मात्र मान्यता का प्रश्न है। किसी भी मान्यता के पीछे व्यक्ति की वृत्तिया काम करती हैं। सम्प्रदाय, सगठन, सस्थान आदि की अपनी-अपनी मान्यताए होती हैं । प्रत्येक मान्यता के पीछे भिन्न-भिन्न वृत्तिया रहती हैं। जैन मनोविज्ञान की दृष्टि से जातिवाद और सम्प्रदायवाद के पीछे मूल वृत्ति है राग। जहा राग होता है, वहा द्वेष निश्चित होता है । अपनी जाति के प्रति राग व्यक्ति मे अहभाव भरता है और अन्य जाति के प्रति द्वेष तथा घृणा का वातावरण निर्मित करता है। राग और द्वष को प्रकट होने के लिए किसी-न-किसी माध्यम की जरूरत रहती है । भारतीय समाज मे इस वृत्ति को पनपने का मौका मिला जातिगत भेद-भाव के माध्यम से । पश्चिमी देशो मे जाति की समस्या नहीं है तो वहा रग-भेद की समस्या बहुत विकराल है। रग के आधार पर काले और गोरेये दो वर्ग बन गये और सघर्ष का अन्तहीन सिलसिला चाल हो गया। इस समस्या ने राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति तथा शिक्षानीति को प्रभावित किया है । रग के आधार पर मनुष्यजाति को विभक्त कर आपसी विद्वेष भोर वैमनस्य को बढ़ावा दिया है । सचाई यह है कि किसी को हीन मान कर अपनी उच्चता कभी स्थापित नही की जा सकती।
वर्तमान की चिंतन-धारा के अनुसार जातिवाद का समर्थन करना न बुद्धिमानी है, न तर्क-सगत है, न कानून-सम्मत है और न न्याय-सगत । जाति के आधार पर किसी को हीन मानना, अछूत मानना, मानवाधिकार का स्पष्ट हनन है।
जाति को अतात्विक मानने वाले दर्शनो ने जैसे मनुष्य-जाति एक है" का घोप दिया, वैसे जाति को तात्त्विक-मौलिक मानने वाले ईश्वरवादी दर्शनो ने भी उत्तरकाल मे यह घोषणा की कि मनुष्य अच्छा बुरा कर्मों से होता है । जाति मे नही । फिर सिद्धातत जो स्वीकार किया गया वह व्यवहार मे नही आया। व्यावहारिक धरातल पर जातिवाद का विप-वृक्ष वैसे ही फलता-फूलता रहा । भारतीय इतिहास के पृष्ठ ऐसी घटनाओ से भरे पडे हैं, जहा जातीयता के नाम पर दानवता को खुलकर खेलने का अवसर मिला। इन्सान के द्वारा उन्मान के साथ करता और निर्दयता पूर्ण व्यवहार हुआ।
जातीयता के अभिशाप से पीडित न जाने कितने सूतपुत्र कर्ण और भीलपुष एकलव्य आज भी करुण पुकार कर रहे हैं कि
फौन जन्म लेता किस कुल मे आकस्मिक ही है यह बात छोटे फुल पर हाय ! यहा होते रहते कितने माघात । हाय जाति छोटी है तो फिर सभी हमारे गुण छोटे । जाति वटी तो वटे बनें, फिर लाख रहे चाहे खोटे । भाज जहा मस्तित्व, समन्वय और ममानता के सिद्धात राष्ट्रीय
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जैनधर्म मे जातिवाद का आधार
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मौर अन्तर्राष्ट्रीय चेतना को प्रभावित कर रहे हैं। विश्व-मानव की सुखद परिकल्पना कर मनुष्य-मनुष्य के बीच एकता का सेतु स्थापित कर रही है, वहा लगता है साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रान्तीयता मादि दूरी के विन्ध्याचल बन कर मनुष्य-मनुष्य के बीच खडे हो गये हैं । जातीयता का यक्ष मानव-मन की धरती पर घणा के विष-बीज बो रहा है । लगता है। सैद्धातिक स्तर पर जाति को अतात्विक मानने वाला जैन-समाज भी जातिवाद की लोह-शृखला से मुक्त नहीं है । अपेक्षा है वर्तमान के सदर्भ मे जन-समाज अपने पवित्र सिद्धातो की स्मृति करता हुआ अपने व्यवहारो को परिवर्तित करे।
अणुव्रत अनुशास्ता सत श्री तुलसी "अणुव्रत" के माध्यम से इस दिशा मे वर्षों से भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। अणव्रत विचार दर्शन ने समाज की धरती पर एकता और समानता की धाराए प्रवाहित की हैं । जातिवाद के आधार पर पनपी कच-नीच और छूआ-छूत की धारणाओ को तोडा है । पर आने वाले युग की चुनौतियो को देखते हुए जैन समाज को इस दिशा मे काफी प्रयत्न करना है।
अणवत के एक व्रत का भी यदि सकल्पित होकर अनुशीलन किया जाए तो जन-समाज का यह क्रातिकारी कदम समग्र मनुष्य जाति के लिए वरदायी सिद्ध हो सकता है । वह व्रत है
'मैं जाति के आधार पर किसी को अस्पृश्य नही मानगा। मैं जाति के आधार किसी को ऊच-नीच नही मानगा, घृणा नही फैलाऊगा।
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रत्नत्रयी : जैन साधना का आधार
दुनिया मे सर्वोत्कृष्ट वस्तु को रत्न कहा जाता है । पौराणिक युग मे देवो और दानवो ने मिलकर समुद्र-मथन किया। चौदह रत्न निकले। उनसे देवो और दानवो को सतुष्ट किया गया।
अध्यात्म के यात्रियो ने अर्हत-वाणी के आलोक मे आत्म-मथन किया, उससे उन्हे तीन रत्न मिले। उन तीन रत्नो के आधार पर प्रकाश, आनन्द तथा शक्ति के स्रोतो की खोज की।
नीतिकारो ने लोक भापा मे कहा-"पृथ्वी पर तीन ही रत्न - हैं अन्न, जल और सुभाषित। वे मूढ हैं, जो पत्थर के टुकडो को रत्न कहते
भगवान् महावीर ने कहा-"धर्म के क्षेत्र मे तीन ही रत्न हैंसम्यग् ज्ञान, सम्यग-दर्शन और सम्यक्-चारित्र । वे मूढ हैं, जो विभिन्न प्रकार के क्रिया-काडो मे दुख-मुक्ति के दर्शन करते हैं।"
पहले प्रकार के रत्न लौकिक हैं और दूसरे प्रकार के लोकोत्तर । लौकिक बाह्य समृद्धि के सूचक हैं । लोकोत्तर रत्न आतरिक समृद्धि के प्रतीक
धर्म के क्षेत्र मे दो धाराए प्रवाहित हैं -प्रवर्तक धर्म और निवर्तक धर्म । यज्ञ-याग पूजा-पाठ आदि कर्म-काडो को प्रमुखता देने वाले धार्मिक प्रवृत्तिमार्गी कहलाते हैं। बाहरी क्रियाकाडो मे न उलझकर मात्र आत्मोपलब्धि या आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील धार्मिक निवृत्तिमार्गी कहलाते हैं।
वैदिक धर्म प्रवर्तक धर्म है। उसका लक्ष्य है-स्वर्ग-प्राप्ति । "स्व. कामो यजेत"-स्वर्ग प्राप्ति की कामना से यज्ञ करो। जैन धर्म निवृत्तिप्रधान है । उसका लक्ष्य है-निर्वाण । निर्वाणवादी धारा के पुरस्कर्ता थेभगवान महावीर-- "णिव्वाणवादी इह णायपुत्ते ।"
निर्वाण का अर्थ है परम शान्ति-मोक्ष की प्राप्ति । उसके उपाय हैं-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र । ये मुक्ति के सर्वोत्तम उपाय हैं, इसलिए रत्न कहलाते हैं। इनका समन्वित नाम है- रत्नत्रयी। जैन-धर्म मे रत्नत्रयी का बहुत बड़ा स्थान है। क्योकि जन-धर्म लोकोत्तर धर्म है । जैन-दर्शन मोक्ष-दर्शन है । मोक्ष-प्राप्ति का पहला सूट है-सम्यक् दर्शन, दूसरा सूत्र है सम्यक् ज्ञान और तीसरा सूत्र है सम्यग्-चारित्र । यह त्रिपदी ही मोक्ष-पदी है।
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रत्नत्रयी जैन साधना का आधार
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आचार्य उमास्वाति लिखते हैं
"सम्यग-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्ग ।" वस्तुत रत्नत्रयी का समवाय ही मोक्ष-मार्ग है। तीनो मिलकर ही मुक्ति के हेतु बनते हैं । अकेले में मोक्ष-मार्ग बनने की क्षमता नही है । जव ज्ञान, दर्शन और चारित्र एक दूसरे से निरपेक्ष होते हैं, आपस मे बट जाते हैं, तो न ज्ञान सम्यक् रहता है, न दर्शन सम्यक् रहता है और न चारित्र सम्यक् रहता है । मिथ्या ज्ञान, दर्शन और आचरण व्यक्ति को मूढ बनाते हैं । मोक्ष की आराधना मे तीनों का सम्यक् होना और परस्पर सापेक्ष होना अनिवार्य है । कोरा ज्ञान या कोरा आचार मुक्ति का हेतु नही बन सकता । सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्रइस त्रिवेणी मे डुबकी लगाने से ही शुद्धि और सिद्धि उपलब्ध होती है।
___ जन-धर्म आतरिक शुद्धि पर वल देता है । शुद्धि का घटक तत्त्व हैअन्तर्यात्रा । अतर्यात्रा का अर्थ है शुद्ध चतन्य का अनुभव करना । चैतन्य का स्वरूप है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति । इनकी आराधना ही चैतन्य की आराधना है । यही धर्म है।
___ इस रत्नत्रयो मे दर्शन का स्थान पहला है । यह मोक्ष-साधना का महत्त्वपूर्ण आधार है । आधार सुदृढ होता है तो भवन-निर्माण सहज और स्थायी होता है । दर्शन के साथ ही ज्ञान घटित होता है और उससे चारित्र (स्व मे अवस्थित होने का भाव) जागृत होता है। सक्षेप मे यही है जन साधना पद्धति । उसका केन्द्र है-दर्शन और परिधि है-पवित्र आचरण ।
यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने धर्म की परिभाषा की-"ज्ञान ही धर्म है । ज्ञान से भिन्न कोई धर्म नहीं है।"
तीर्थकर महावीर ने कहा-"पढम नाण तओ दया।" धर्म मे पहला स्थान है ज्ञान और श्रद्धा का तथा दूसरा स्थान है अहिसा रूप आचार का। सुकरात ने कहा- वह ज्ञान वास्तव मे ज्ञान नहीं होता, जिसका आचरण न हो । आचरण-शून्य ज्ञान अयथार्थ है, मिथ्या धारणा है, भ्राति है। महावीर ने वहा-"आहसु विज्जा चरण पमोक्खो"~ ज्ञान और आचरण के योग से ही मोक्ष सभव है।
सुकरात ने कहा-शान यदि यथार्थ है, तो उसका आचरण अवश्य होगा । यधार्थ ज्ञान और आचरण को अलग नहीं किया जा सकता।
इम सदर्भ मे महावीर का एक मूल्यवान् शब्द है-परिज्ञा । उसकी समग्रता है--परिता-जानना और प्रत्याख्यान परिमा-सद् को छोडना । इन दोनो का योग ही मोक्ष-मार्ग की परिपूर्णता है। सम्य-दर्शन
इसका अर्थ है-पाषं दृष्टिकोण । दर्शन मोह के विलय से दर्शन
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जैनधर्म जीवन और जगत्
चेतना जागती है । वस्तु को यथार्थ दृष्टि से देखने-परखने की शक्ति विकसित होती है । चेतन-अचेतन, हेय-उपादेय, सत्य-असत्य तथा करणीयअकरणीय का स्पष्ट बोध होने लगता है। इसी का नाम है-सम्यग-दर्शन ।
सम्यक् दर्शन की व्यावहारिक परिभाषा है- यथार्थदृष्टि सम्यग् दर्शनम् – इसका तात्पर्य है- तात्त्विक तथ्यो और नौ तत्त्वो पर असा होना । निश्चय की भापा मे सम्यग् दर्शन का अर्थ है-आत्मा का निश्चय होना। "दर्शन निश्चय पसि" जो आत्मदर्शी होता है वह सम्यग्दर्शी होता है और जो सम्यग्दर्शी होता है वह आत्मदर्शी होता है ।
कुछ व्यक्ति धर्म के प्रति मूढ होते है, कुछ ध्येय के प्रति मूढ होते हैं तो कुछ आराध्य के प्रति भगवान के प्रति मूढ होते हैं । दृष्टि-सम्पन्नता मे सभी प्रकार की मूढताए समाप्त हो जाती हैं, मूर्छा का वलय टूट जाता
सम्यक् द्रष्टा का ध्येय होता है-आत्म-साक्षात्कार । उसका धर्म होता है-आत्म-रमण और उसका आराध्य या भगवान होता है-वीतराग आत्मा।
सम्यक् दृष्टि के जागरण की पहचान है० शम-अन्तर आवेगो की शान्ति ० सवेग-मुमुक्षा ० निर्वेद-अनासक्ति ० अनुकम्पा-करुणा ० आस्तिक्य-सत्यनिष्ठा ।
रत्नत्रयी मे सम्यक् दर्शन का स्थान पहला है, क्योकि सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नही होता । जहा दर्शन मिथ्या है वहा ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है । जहा दर्शन सम्यक् है वहा ज्ञान भी सम्यक् है । दर्शन सम्यक वनते ही ज्ञान सम्यक् बन जाता है ।
"सम्यक श्रद्धा भवेत्तत्र सम्यग ज्ञान प्रजायते । सम्यक् चारित्र-सप्राप्तेर्योग्यता तत्र जायते ॥" (संबोधि १४/८)
दर्शन-विहीन व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्र-गुण प्रकट नहीं होते । चारित्र के बिना निर्वाण नही होता । सम्यक-ज्ञान
"यथार्थबोध सम्यग्-ज्ञानम् ॥" यथार्थ बोध को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । ज्ञान का काम है जानना । पर ज्ञान का उद्देश्य मात्र पदार्थों को जानना ही नही है। उसका मूल उद्देश्य है स्वय को जानना । भ० महावीर ने कहा
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रत्नत्रयी जैन साधना का आधार
१२२ "सपिक्खए अप्पगमप्पएण ।" आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। महात्मा बुद्ध ने कहा-"अप्पदीवोभव"-अपने दीप स्वय बनो। सुकरात ने कहा-'नो दी सेल्फ'-अपने आप को जानो । निष्कर्ष की भाषा मे स्वय फा बोध-"मैं कौन हूँ"- यह ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। जिसे स्वय का यथार्थ वोध हो जाता है, वह वस्तु जगत् को भी सही-सही जानने-समझने लगता है । सम्यक् ज्ञान का फलित है-पदार्थ के प्रति भी यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण । स्वय के बोध के अभाव मे जागतिक ज्ञान भी मिथ्या है, व्यर्थ है।
"जय जान्यो निजरूप को, तब सब जान्यो लोक । नहीं जान्यो निजरूप को, तब सब जान्पो फोक ।"
ज्ञान जड और चेतन का विभाजक तत्त्व है । प्रत्येक प्राणी में ज्ञान की मात्रा का न्यूनतम विकास अवश्य होता है । इसके विना जड और चेतन मे कोई अन्तर नही रहता । ज्ञान की न्यूनाधिकता क्षयोपशम सापेक्ष है । ज्ञान
और दर्शन के आवारक कर्मों के सम्पूर्ण विलय से अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन की अखड लो प्रज्वलित हो उठती है । सम्यक्-चारित्र
"महावतादीनामाचरण सम्यक् चारित्रम् ।"
महावत आदि का आचरण करना सम्यक् चारित्र है । नाणस्स सारो आयारो-ज्ञान का सार आचार है । चारित्र और आचार-इन दोनो का मर्थ एक ही है । सम्यक् चारित्र का एक अर्थ है-पवित्र आचरण । दूसरा अर्थ है -चय रित्ती करण चारियम्-~सचित सस्वारो के रेचन का नाम चारित्र है।
निश्चय नय के आधार पर चारित्र की परिभाषा है-"स्थितिर व चारिणम्"-- आत्मा मे स्थित अवस्थित होना चारित्र है। महावत, अणव्रत, असत्प्रवृत्ति का निरोध - ये सब चारित्र के ही अग हैं ।
ज्ञान की आराधना से अज्ञान क्षीण होता है । दर्शन की आराधना से आस्था का निर्माण होता है, जन्म-परम्परा का अत होता है, मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है । चारिप वी जागधना से स्थिरता उपलब्ध होती है, कर्मों का निरोध होता है स्वनियन्त्रण की क्षमता जागती है। इसकी परिपूर्ण साधना से परमात्मतन्य प्रकट होता है।
इस प्रयी वी गराधना ही आत्मा की आराधना है । यही धर्म है। जितने भी अहंत, वुद्ध जोर परमप्रज्ञा-प्राप्त माधक हुए है, उन्होंने धर्म-चिन्न मे किसी न चिनी रूप से इस प्रयो को स्वीकृति दी है। हिन्दू धर्म मे इसे सान योग, भक्ति योग और कर्म योग के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है । इन्ही तत्त्वो को इस्ल म धर्म मे "मारफ्त, तरीकत और शरीअत" कहा गया है।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
महात्मा बुद्ध इन्हे-सम्मादिट्ठी, सम्मास कप्पो और सम्मावायामो कहते हैं तो पारसी धर्म भी हुमता (पवित्र विचार), हुक्का (पवित्र वाणी) और हर्षता (पवित्र कर्म) पर बल देता है।
__ भगवान् महावीर ने कहा-जव दृष्टि सम्यक् होती है, ज्ञान सही होता है और आचरण पवित्र होता है तो धर्म बढ़ता है। अन्यथा धर्म घटता
आनन्द ने तथागत बुद्ध से पूछा-भते ! आपके निर्वाण के बाद आपके शरीर का क्या किया जाए ? बुद्ध ने कहा-आनन्द । इसमें सिर मत खपाओ। मैंने जो साधना-धर्म दिया है, उसका अभ्यास करो। मेरे इस शरीर को मत देखो। धर्म शरीर को देखो। जो मेरे धर्म शरीर को देखता है, वह मुझे देखता है, और जो मुझे देखता है वह मेरे धर्म शरीर को देखता
भगवान् महावीर ने गौतम से कहा- "गौतम | सत्य की शोध मे प्रमाद मत कर । मेरे से स्नेह मत कर । सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना कर मुक्त बन ।"
यह रत्नत्रयी जितनी पुष्ट-सशक्त होगी, धर्म उतना ही शक्तिशाली
बनेगा।
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जैन जीवन प्रणाली (१) जैन गृहस्थ की आचार-सहिता
सुख प्राप्ति और दुख-मुक्ति की दिशा में प्रत्येक चेतनशील प्राणी प्रयत्न करता है । मनुष्य विकसित चेतना वाला प्राणी है। उसकी बौद्धिक क्षमता और शारीरिक क्षमता वेजोह है । वह नित्य नए आविष्कारों तथा प्रयोगो द्वारा ऐसे ससाधनो को प्राप्त करने में जुटा है, जो उसे अधिक से अधिक सुख दे सके, आराम दे सके। इस परिप्रेक्ष्य मे अनेक दार्शनिक विचार सामने आए । सम्पूर्ण सुन-भोग का हेतु क्या है ? इसके उत्तर में डाविन ने कहा-अस्तित्व की सुरक्षा के लिए सतत संघर्षशील बने रहना ही सुख का आधार-भूत तत्त्व है। इसी प्रकार फ्रायड ने काम को, मासं ने अर्थ को और नीत्से ने सत्ता को सुख का आधार माना ।
_इन महान् विचारको ने अपने विचार-दर्शन को इतने प्रभावी ढग से प्रस्तुत किया कि वैयक्तिक और जागतिक स्तर पर मनुष्य-समाज की सारी अवधारणाए बदल गई। इस सुखवादी विचारधारा के माघार पर अनेक प्रकार की जीवन-प्रणालिया विकसित हुई। इस सन्दर्भ में जन-दर्शन नई दिशा प्रदान करता है। भगवान् महावीर ने कहा - सुख का आधार है अध्यात्म । सघर्षशीलता, कामना, अर्थ और सत्ता -ये समग्र शक्तिया धर्म से नियमित बनकर ही मानव-जाति के लिए वरदान बन सकती हैं। दुखमुक्ति और सुख-समृद्धि की पौध अध्यात्म के ठोस धरातल पर ही सभव है। अध्यात्म की भूमिका पर इस जीवन-शैली को हम 'जैन जीवन-प्रणालो' कह सकते हैं। उसके आधारभूत तत्त्व हैं-सयम और सदाचार। महावीर ने कहा
असयम परित्यज्य, सयमस्तेन सेव्यताम् ।
असयमो महद् दुख, सयम सुखमुत्तमम ॥ सबोधि १४१४३
मसयम दुख है सयम सुख है, इसलिए असयम को त्यागो और सयम का आचरण परो ।
गस्थ हो या मन्यासी ~ सब मुक्त हो सकते हैं, यदि वे अनुत्तन सयम का पालन करते हो । मन्यामी मयम के शिखर पर स्थिर होता है उमपी प्रत्येक प्रवत्ति अध्यात्म से अनुप्राणित होती है, किन्तु एक गृहस्य । लिए भी सयम का बहुत बड़ा मून्य है । सयम के द्वारा जीवन मूल्यवान् वन
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
जाता है । सयम ही धर्म है, सयम ही अध्यात्म है । व्यक्ति किसी भी कार्यक्षेत्र, परिस्थिति, सम्प्रदाय और परिवेश में रहता हुआ धर्म की साधना कर सकता है । इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता नहीं है। भगवान् महावीर ने मुनिजनो के लिए आचार-सहिता का निर्धारण किया तो सद्गृहस्थो के लिए भी एक उन्नत जीवन-प्रणाली प्रस्तुत की, उसकी व्यवस्थित विधि बताई।
धर्म के क्षेत्र मे यह जैन-धर्म की सर्वथा मौलिक और अद्भुत देन है। गृहस्थ साधक की आचार-सहिता और उसका साधना-क्रम, जैन-परम्परा मे जितना सुन्दर और व्यवस्थित मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।
जैन-धर्म मे मुनि के लिए पाच महाव्रतो तथा गृहस्थ साधक के लिए पाच अणुव्रतो के पालन का विधान है।
महावतात्मको धर्मोऽनगाराणा च जायते ।
अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम् संबोधि ॥ १४/४० अणुव्रत
अणुव्रत का अर्थ है-छोटे-छोटे व्रत या यथाशक्ति गृहीत व्रत । अणुव्रत पाच हैं
१. अहिंसा-अणुव्रत-स्थूल हिंसा का परित्याग ।
गृहस्थ के लिए आरम्भजा- कृषि, वाणिज्य आदि मे होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। उस पर कूटम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसलिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है । गृहस्थी को चलाने के लिए उसे वध-बन्धन आदि का सहारा भी लेना पडता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से भी वह नहीं बच सकता। वह पारिवारिक, सामाजिक दायित्वो को वहन करते हुए केवल सकल्पपूर्वक निरपराध प्राणियो की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा यणुव्रत है।
२ सत्य-अणुव्रत- स्थूल असत्य का परित्याग ।
गृहस्थ के लिए सपूर्ण असत्य को त्यागना कठिन है, किन्तु वह ऐसे असत्य का सहारा न ले जिससे किसी निर्दोष प्राणी को सकटग्रस्त होना पड़े।
३. अस्तेय-अणुव्रत-गृहस्थ के लिए छोटी-वडी सभी प्रकार की चोरी मे बवना कठिन है, परन्तु वह कम से कम ऐसी चोरी न करे, जिससे राज्य दण्ड दे और लोक निंदा करे । डाका डालना, ताला तोडकर चोरी करना, वैयक्तिक या सरकारी सपत्ति को लूटना--ये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय
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जैन गृहस्थ की आवार-सहिता
१२७ ४ ब्रह्मचर्य-अणुव्रत--गृहस्थ के लिए पूर्ण ब्रह्मचारी रहना कठिन है, पर एक सीमा तक वासना पर नियन्त्रण स्थापित करना भी आवश्यक है। परस्त्री-गमन, वेश्यागमन आदि अवाछनीय प्रवृत्तिया हैं। सद्गृहस्थ उनसे चचे और स्वदार-सतोप व्रत का पालन करे। वर्तमान के सदर्भ मे जहाँ 'एड्स' जैसा घातक रोग एक विभीपिका पैदा कर रहा है, ब्रह्मचर्य अणुव्रत या मूल्य वढ़ गया है।
५ अपरिग्रह अणवत-गृहस्थ सर्वथा परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता, पर इच्छाओ के असीमित विस्तार का नियमन कर वह परिग्रह की सीमा कर सकता है । अति संग्रह की मनोवृत्ति सामाजिक विषमता को जन्म देती है, अत अपरिग्रह अणुन त सामाजिक स्वस्थता के लिए भी जरूरी
गुणवत
जो व्रत गृहस्थ की वाह्य-चर्या को सयमित करते हैं, उन्हे गुणव्रत कहा जाता है । वे तीन हैं१ दिग्विरति-पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओ मे गमनागमन की सीमा
का निर्धारण । २. उपमोग परिमोग-परिमाण व्रत-व्यक्तिगत भोग-सामग्री का
परिमाण करना। ३. अनर्व-दण्ड विरति-विना प्रयोजन हिमा का त्याग करना ।
ये तीनो व्रत अणुव्रत भावना को पुष्ट करते हैं इसलिए भी ये गुणव्रत कहलाते हैं। शिक्षावत
जो प्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आतरिक पवित्रता बढाते हैं, उन्हे शिक्षाग्रत कहा जाता है । वे चार हैं१ सामायिफ-असत्प्रवृत्ति से विरत होकर समता का अभ्यास
करना। २ देशावकाशिफयत-एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा
का त्याग करना । ३ पौषध-उपवासपूर्वक असत्प्रवृत्ति का त्याग करना । ४ अतिथि-स विभाग-अपना विसजन कर पाय को दान देना।
इन व्रतो का पालन करने वाला जन धावक या उपासक कहलाता है । ये न शांत, सुपी, मममी और सात्विक जीवन के प्रेरक हैं।
भारतीय संस्कृति में माधु-सस्था को अतिरिक्त प्रतिष्ठा है । उसे कची निगाहो से देखा जाता है । सतो के प्रति जनता मे सहज पूज्य भाव है। इस
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जैनदर्शन : जीवन और जगत्
सदर्भ मे ये स्वर भी उभरे कि मोक्ष का अधिकारी सन्यासी ही हो सकता है । गृहस्थ मुक्ति का अधिकारी नही है । भगवान् महावीर ने भी कहा -
"बधे गिहवासे, मोक्खे परियाये" गृहवास बन्धन है, पर्याय -- मुनि-जीवन मोक्ष है । क्योकि "सोवक्के से गिहवासे, निरुवक्केसे परियाये" गृहवास सक्लेशो से भरा है, पर्याय क्लेश-रहित है।
पर इसका अर्थ यह नहीं है कि गृहस्थ मोक्ष प्राप्त कर ही नहीं सकता।
जैन धर्म के प्रवक्ता आचार्यों ने कहा
न्यायाजितधन स्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रिय । __ शास्त्रवित् सत्यवादी च गृहस्थोऽपि विमुच्यते ।।
जिसके अर्थार्जन के स्रोत शुद्ध हो, जिसकी तत्त्वज्ञान मे निष्ठा हो, त्यागी साधु-सन्तो के प्रति अनुराग हो, जो धर्म-शास्त्रो का ज्ञाता हो और सत्यवादी हो, वह व्यक्ति गृहस्थ मे रहता हुआ भी मुक्त हो सकता है।
जैन-श्रावक के लिए निर्दिष्ट उक्त बारह व्रत निश्चित ही व्यवहारशुद्धि के पोपक हैं। इनमे नीति, प्रामाणिकता, सयम सदाचार और सात्विकता की प्रधानता है। इन व्रतो के पालन से जो तथ्य फलित होते हैं, उनमे आदर्श समाज के निर्माण की परिकल्पना निहित है । व्रतो के फलित१ अहिंसा अणुव्रत के फलित - अहिंसा का साधक किसी के साथ
क्रूर व्यवहार नहीं करता। अधीनस्थ व्यक्ति के श्रम और शक्ति का शोषण नहीं करता, उसके भक्तपान का विच्छेद नही करता । किसी की दुर्बलता का अनुचित लाभ नहीं
उठाता।
२. सत्य अणवत के फलित -सत्य का माधक किसी का मर्म-प्रकाशन
नही करता । झूठे दस्तावेज या लेख नही लिखता । किसी पर झूठा आरोप
नही लगाता। ३. अचौर्य अणुव्रत के फलित – अस्तेय का साधक चोरी का माल
नही लेता। राष्ट्रीय हितो का विरोधी
व्यापार नहीं करता। ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत के फलित-ब्रह्मचर्य का साधक यथाशक्ति
ग्रह्मचर्य का पालन करता है, इद्रिय-विजय और मनो-विजय का अभ्यास करता है।
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नन गृहस्थ की आचार-सहिता
१२९ ५. अपरिग्रह का फलित -अपरिग्रह का साधक अति साह नही
करता, अनावश्यक सग्रह नहीं करता, शोषण नही करता, किसी के अधिकारी
का हनन नही करता। गहम्यो के रय के दो पहिए हैं –हिंसा और परिग्रह । गृहस्थ साधक इनमे सर्वथा उपरत नहीं हो सकता। फिर भी इनकी गति अनियन्त्रित और निरकुश न हो, इस दृष्टि से भगवान् महावीर ने ये दो सूत्र दिए
१. अनर्थ हिंसा से बचाव । २ इच्छाओ का अल्पीकरण । ये सूत्र जैन जीवन-प्रणाली के रूप में विकसित हुए ।
यह एक सद्गृहस्थ की पहचान बन गई। जैसे महात्मा गाधी ने अति सग्रह या पूजीवाद मे उत्पन्न समस्याओ के समाधान हेतु विकेन्द्रित अर्थम्यवस्था का सूत्र दिया दृस्टीशिप की नई दृष्टि दी वैसे ही भगवान् महावीर ने उपभोग-परिभोग-विरति प्रत और इच्छा परिमाण व्रत के माध्यम से व्यक्तिगत भोग-सामग्री के सयम की तथा इच्छा-सयम की प्रेरणा दी, ये सामाजिक परिवर्तन एव आर्थिक स्रोतो की शुद्धि की दृष्टि से बहुत ही मूल्यवान हैं।
एक पावक न केवल आध्यात्मिक होता है और न केवल सामाजिक । यह दोनों भूमिकाओ मे सामजस्य स्थापित कर चलता है।
द्विविधो गहिणां धर्मो आत्मिको लोकिफस्तया ।
सबरो निजरा पूर्व समाजामिमतो परः॥
गृहस्थ धर्म दो प्रकार का है-~-आत्मिक और लौकिक । आत्मिक धर्म है सवर और निर्जरा । समाज द्वारा अभिमत धर्म लौकिक कहा जाता
आत्मिक धर्म का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि । वह महतो द्वारा प्रतिपादित
लोपिक धर्म का उद्देश्य है समाज की सुव्यवस्था। उसका प्रवर्तन समाज-शास्त्रियो द्वारा होता है। फिर भी अध्यात्म सामाजिकता का विरोधी नही है । यह उमे स्वस्थता प्रदान करता है ।
इन प्रनो का उद्दश्य है - व्यक्ति पर-परिवार में रहता हा भी धेठ धामिर जीवन जी सरे तथा उन क्षमताओ का बजन कर सके, जिससे अध्यात्म पीकचाई को आ ग मरे । स्वम्य और संतुलित समाज पी सरचना में भी न प्रनो यी भूमिका महन्वपूर्ण है। हिमा, सग्रह और भोग पो अनि नामाजिव दिपमता और शांति वो जन्म देती है । उक्त व्रतों की भापना मे न लिप ममम्याओ का समाधान निहित है।
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जैनधर्मं जीवन और जगत्
इन व्रत का आधार कोरा सिद्धान्तवाद या आदर्शवाद नही है, अपितु ये व्यवहार की उर्वरा मे पल्लवित हुए हैं । ये सामाजिक जीवन की उच्चता और वैयक्तिक पवित्रता का स्थिर आधार प्रस्तुत करते हैं । आतरिक पवित्रता के साथ व्यवहार-शुद्धि भी इन व्रतो से फलित होती है ।
ध्यान शतक मे लिखा है - " तम्हा आराहए दुवे लोए" धार्मिक व्यक्ति धर्म के द्वारा वर्तमान जीवन और भावी जीवन दोनो की आराधना करता है । धर्म का पारलौकिक फल है - स्वर्ग या मोक्ष तथा इहलौकिक फल है— कषाय मुक्ति, व्यवहार-शुद्धि ।
जैन जीवन - प्रणाली का फलित है— जैन श्रावक धर्म की आराधना करता हुआ, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियो से विमुख नही हो सकता, पर उन भूमिकाओ की शुद्धि के साथ आत्महित की सुरक्षा करना वह अपना परम कर्त्तव्य मानता है ।
वह अपनी अन्तश्चेतना से इतना जुड जाता है कि बाहर से लिप्त नही होता । व्यवहार मे जीता हुआ भी वह अपने केन्द्र चेतना को विस्मृत नही करता ।
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..
पदा 4
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के अन
हुग का हथियार है जिसके निर्माता
भी प्रगति
सशी कार्यों पर
लाभप्रद
FESEEEEEEEEEEEEEEEEET
५. मा . रसत जा
NE-over- नी से "जाति नाशक"
विधि
क्रम सामान्य व्यवहार का रूप लेते त्र के शिकार हो सकते है।
फल- जा रहे है। सामूहिक रूप से पर्व- लेकिन पहले हा, जातिविनाशक। यह एक
प्रद उ .
पश्चिम व्यापार को, इसी प्रकार, दस्तावेज का ए ढग का हथियार है जिसके
लेकिन
पहारक
और अधिक प्रोत्साहन मिला है। मे लिया जाना रे में अध्ययन-अनुसन्धान चल
अस्त्र के रूप म मा-कया जा
सूचना के और अधिक अच्छे ढग श्यक बनाते है है। आपके प्रिय व्यजन मे
सकता है।
से विनिमय के लिए हेलसिकी मे कभी नही भर __ मसाले. पडते है, उन्ही की निकोलाई ओबोतोव
तय किये गये कदमो के कार्यान्वयन गण को अभी द से जातिसहारक अस्त्र
आनुवंशिक अस्त्र में भी प्रगति हुई है।
स्थायी शा, नापका पता कर लेगा और आपका मे लाखो अदश्य कारतसो की पश्चिमी समाचारपत्रो की.
सोवियत संघ सशी के साथ उन मानव मनि २फाया कर देगा। यहा हमारा तरह विधती जाती है और या तो सवरो से पता चलता है कि ।
विश्वास-निर्माण सम्बन्धी कार्यो पर
कोपर पक्ष में रही। अभिप्राय विविध जातीय समूहो लोग मर जाते है या कम से तथाकथित आनवशिकास्त्रो के
अमल कर रहा है जिनकी अन्तिम लाभप्रद . १ के लोगो का पता करने और
विकास के लिए भी अनुसधान कम उनका वध्यकरण अवश्य हो
दस्तावेज में व्यवस्था है।
शान्ति तथा
सनिक तनाव-शथिल्य का मार्ग सदृढीकरण और उनका सफाया करने के लिए जाता है, लेकिन इमारत, पुल, कार्य चल रहा है। इसके प्रयोग
प्रशस्त करने के बारे मे सोवियत के अनौपचारिक विशेष रासायनिक, जीविक या सडके आदि ज्यो की त्यो सावत से पतकता की यत्रावधि छिन्नन्य द्रव्यो के इस्तमाल में है।
सघ का रुख मध्य यूरोप मे सशस्त्र क्षेप के . . बनी रहती है। यदध सामग्रियो भिन्न हो जायगी। मनुष्य क विशेषज्ञो की राय है कि के पश्चिमी निर्माता न्यटन बम पित्र्यसूत्रो या जीन को प्रभावित
सनाओ तथा शस्त्रास्त्रो मे कटाती शब्दो मे, ऐसे 'जातिसहारक" अस्त्र लोगो के की "श्रेष्ठता" और "सम्भाव- करके, जो पैतृकता या आनवशि
के बारे में ठोस समझौता करने की हेलसिकी समम खानपान और पहनावे' या दोनो नामओ" पर लट्टू हो रहे है और कता के वाहक और मानव जीवी की
उसकी तत्परता से उत्पन्न होता है। पूरी तरह के बीच के अन्तर का आसानी से यह मानते है कि ध्वसकारी अस्त्रो प्रक्रियाओ के मुख्य नियामक है,
नकारात्मक प्रभाव
सघ अन्तिम "विवेक" कर सकता है और के भण्डार मे यह एक नया योग
के भण्डार में यह एक नया योग- शरीर को देखने, सनन, चलने- - दूसरी तरफ यह स्वीकार किया को कार्यान्वित चनिन्दा लोगो का सफाया कर दान है।
फिरने और हिलने-डुलने, सास सक्ता है। यह चयन शक्ति रक्त लेकिन ससार के अनेक देश लेने, सोचने-विचारने आदि की समूहो, त्वचा के रगद्रव्य आदि दूसरी ही तरह सोचते है। उनका किसी भी जीवन्त क्रिया को अस्त
हमारा आगामी अ विशिष्टतामो पर आधारित है। विश्वास है कि न्यूटन बम के व्यस्त किया जा सकता है। दूसरे
C * भारतीय स्वतनता को ३०वी-जयन्ती।। निर्माण से नाभिकीय युद्ध का शब्दो मे, मनुष्य को यत्रमानव ज्यूटन बम खतरा बढ़ जायेगा। मसलन, मे बदला जा सकता है।
* शान्ति, मंत्री और सहयोग को सन्धि की ६ अभी नद वषों पहले तक .
भारत के विदेश मत्री अटल विज्ञान और प्रविधि के उन बिहारी वाजपेयी ने हाल मे ससद क्षेत्रो की यह एक अधूरी सूची है
मनाने के लिए युवक दर्पण, अक ३२ दम का विकास कर सकना त्ति को क्षति पहुचाये म
__ मे कहा कि भारत सरकार न्यूट्रन जिनके विकास से निकट भविष्य मक के रूप में प्रकाशित करेगा। इस सयुक्त नर महार कर सकता हो. बम के निर्माण की जोरदार भर्त्सना में ही सामूहिक विनाश के सर्वथा , - दुनिया की, करती है।
नये प्रकार के अस्त्र और उनकी * भारत-सोवियत सहयोग के विभिन्न गोत्र.
प्रणालिया तैयार की जा सकती .......ी बात थी। संहारकाध्वनि, प्रकाश
सारसी _जनक दिलचस्प लवा... .........
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जैन जीवन-प्रणाली (२) जैन मुनि की आचार-संहिता
भारतीय संस्कृति और संन्यास
विश्व मे तीन संस्कृतिया प्रभावशाली मानी जाती हैं१ यूनानी संस्कृति, २ भारतीय संस्कृति और ३ चीनी सस्कृति ।
पहली समाज प्रधान, दूसरी व्यक्ति प्रधान और तीसरी परिवार प्रधान संस्कृति रही है । सन्यास का प्रादुर्भाव व्यक्ति प्रधान सस्कृति से हुआ। यह भारतीय संस्कृति का महान् अवदान है। भारतीय संस्कृति की मुख्य तीन धाराए हैं- वैदिक, वौद्ध और जैन। जैन साहित्य मे व्यक्तिवादी स्वर अधिक मुखर हुए । जैसे कि सुख और दुख अपना-अपना है । कर्मों का कर्ता और उनका फल-भोक्ता व्यक्ति स्वय है। अपने कृत कर्मों का फल व्यक्ति स्वय भोगता है। फल भोग मे किसी की साझेदारी या भागीदारी नहीं चलती। इन अध्यात्म-सूत्रो से प्रेरित हो हजारों-हजारो व्यक्ति आत्महित की साधना मे सलग्न हो गए। यही है सन्यास-परम्परा के सूत्रपात की आदि कहानी । वैसे भारतीय संस्कृति की तीनों ही धाराओ मे सन्यास की परपरा रही है। जैनो में सन्यास-दीक्षा जीवन-पर्यन्त होती है, बौद्धो मे सावधिक होती है। वैदिको में प्रारम्भ से दीक्षा (सन्यास) की स्वीकृति नहीं थी। यह जैन धर्म का ही प्रभाव मानना चाहिए कि वैदिक परम्परा में भी सन्यास को मान्यता मिली। वर्तमान मे तीनो ही परम्परा के साधु-सन्यासी हजारो की सख्या में परिव्रजन करते हैं। उन सबकी अपनी-अपनी आचार-सहिता है। अपनी-अपनी विधिया हैं।
जैन-मुनियो की अहिंसा और अपरिग्रह प्रधान माचार-सहिता तथा त्याग-वैराग्य मुलक चर्या सदा से ही लोक-चेतना को प्रभावित करती रही
जैन मुनि के लिए निग्रन्थ, समण, श्रमण, भिक्षु, अनगार आदि शब्दो का प्ररोग उपलब्ध होता है, जो विशेष जयों का सवाहक है। निग्रंन्य उनकी अकिंचनता का, समण समता का, श्रमण-श्रमशीलता और तपस्विता का, निनु निक्षागोविता का तथा अनगार-निर्मुक्तता का प्रतीक है । जैन मु । को पर्या में उत्कृष्ट नि सगता के दर्शन होते हैं। वे सम्बन्धातीत न
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जैन जीवन-प्रणाली (२) जैन मुनि की आचार-संहिता
भारतीय संस्कृति और संन्यास
विश्व मे तीन सस्कृतियां प्रभावशाली मानी जाती हैं१ यूनानी सस्कृति, २ भारतीय संस्कृति और ३ चीनी सस्कृति ।
पहली समाज प्रधान, दूसरी व्यक्ति प्रधान और तीसरी परिवार प्रधान संस्कृति रही है । सन्यास का प्रादुर्भाव व्यक्ति प्रधान सस्कृति से हुआ। यह भारतीय संस्कृति का महान् अवदान है। भारतीय संस्कृति की मुख्य तीन धाराए हैं- वैदिक, वौद्ध और जैन। जैन साहित्य मे व्यक्तिवादी स्वर अधिक मुपर हुए। जैसे कि सुख और दुख अपना-अपना है। कर्मों का कर्ता मोर उनका फल-भोक्ता व्यक्ति स्वय है। अपने कृत कर्मों का फल व्यक्ति स्वय भोगता है। फल भोग मे किसी की साझेदारी या भागीदारी नहीं चलती। इन अध्यात्म-सूत्रो से प्रेरित हो हजारो-हजारो व्यक्ति आत्महित की साधना में सलग्न हो गए। यही है सन्यास-परम्परा के सूत्रपात की आदि कहानी । वसे भारतीय संस्कृति की तीनों ही धाराओ मे सन्यास की परपरा रही है। जैनो मे सन्यास-दीक्षा जीवन-पर्यन्त होती है, बौद्धो मे सावधिक होती है । वैदिको मे प्रारम्भ से दीक्षा (सन्यास) की स्वीकृति नहीं थी। यह जैन धर्म का ही प्रभाव मानना चाहिए कि वैदिक परम्परा में भी सन्यास को मान्यता मिली। वर्तमान में तीनो ही परम्परा के साधु-सन्यासी हजारो की सरया मे परिप्रजन करते हैं। उन सबकी अपनी-अपनी आचार-साहिता है । अपनी-अपनी विधिया हैं।
जैन-मुनियो की अहिंसा और अपरिग्रह प्रधान आचार-सहिता तया त्याग-पराग्य मुलक चर्या सदा से ही लोर-पेतना को प्रभावित करती रही
। मुनि के लिए नि न्य, समग, श्रमण, भिक्ष, जनगार आदि शब्दा लोग उपलब्ध होता है, जो पिरो जयों का नवाहक है। निग्रंप उनकी मार IT IT का, नमण समता , भ्रमण-धमनीलता और तपस्विना का, भि. भिसामपिता ना तथा जनगार-निर्मतता का प्रतीक है। नन नियों तो र ट नि साता के दर्शन होते हैं। वे नमन्शातीत चेतना के
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जैनधर्म जीवन और जगत्
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इन व्रत का आधार कोरा सिद्धान्तवाद या आदर्शवाद नही है, अपितु ये व्यवहार की उर्वरा मे पल्लवित हुए हैं । ये सामाजिक जीवन की उच्चता और वैयक्तिक पवित्रता का स्थिर आधार प्रस्तुत करते हैं । आतरिक पवित्रता के साथ व्यवहार-शुद्धि भी इन व्रतो से फलित होती है ।
ध्यान शतक मे लिखा है - " तम्हा आराहए दुवे लोए" धार्मिक व्यक्ति धर्म के द्वारा वर्तमान जीवन ओर भावी जीवन दोनो की आराधना करता है । धर्म का पारलौकिक फल है- स्वर्ग या मोक्ष तथा इहलौकिक फल है - कषाय- मुक्ति, व्यवहार-शुद्धि |
जैन जीवन - प्रणाली का फलित है -- जैन श्रावक धर्म की आराधना करता हुआ, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियो से विमुख नही हो सकता, पर उन भूमिकाओ की शुद्धि के साथ आत्महित की सुरक्षा करना वह अपना परम कर्त्तव्य मानता है ।
वह अपनी अन्तश्चेतना से इतना जुड जाता है कि बाहर से लिप्त नही होता । व्यवहार मे जीता हुआ भी वह अपने केन्द्र चेतना को विस्मृत नही करता ।
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बन जांचन-प्रगानी ( जैन मनि की आचार-सहिता
भारतीय मनि और सन्यास
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इन व्रतो का आधार कोरा सिद्धान्तवाद या आदर्शवाद नही है, अपितु ये व्यवहार की उर्वरा मे पल्लवित हुए हैं। ये सामाजिक जीवन की उच्चता और वैयक्तिक पवित्रता का स्थिर आधार प्रस्तुत करते हैं । आतरिक पवित्रता के साथ व्यवहार-शुद्धि भी इन व्रतो से फलित होती है।
ध्यान शतक मे लिखा है-"तम्हा आराहए दुवे लोए" धार्मिक व्यक्ति धर्म के द्वारा वर्तमान जीवन और भावी जीवन दोनो की आराधना करता है। धर्म का पारलौकिक फल है-स्वर्ग या मोक्ष तथा इहलौकिक फल है-कषाय-मुक्ति, व्यवहार-शुद्धि ।
जैन जीवन-प्रणाली का फलित है-जैन श्रावक धर्म की आराधना करता हुआ, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियो से विमुख नही हो सकता, पर उन भूमिकाओ की शुद्धि के साथ आत्महित की सुरक्षा करना वह अपना परम कर्तव्य मानता है।
वह अपनी अन्तश्चेतना से इतना जुड जाता है कि बाहर से लिप्त नही होता । व्यवहार मे जीता हुआ भी वह अपने केन्द्र चेतना को विस्मृत नहीं करता।
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जैन जीवन-प्रणाली (२) जैन मुनि की आचार-संहिता
भारतीय संस्कृति और संन्यास
विश्व मे तीन सस्कृतिया प्रभावशाली मानी जाती हैं१ यूनानी संस्कृति, २ भारतीय संस्कृति और ३ चीनी सस्कृति ।।
पहली समाज प्रधान, दूसरी व्यक्ति प्रधान और तीसरी परिवार प्रधान संस्कृति रही है। सन्यास का प्रादुर्भाव व्यक्ति प्रधान सस्कृति से हुआ। यह भारतीय संस्कृति का महान् अवदान है। भारतीय संस्कृति की मुख्य तीन धाराए हैं-वैदिक, बौद्ध और जैन । जैन साहित्य मे व्यक्तिवादी स्वर अधिक मुखर हुए। जैसे कि सुख और दुख अपना-अपना है। कर्मों का कर्ता और उनका फल-भोक्ता व्यक्ति स्वय है। अपने कृत कर्मों का फल व्यक्ति स्वय भोगता है। फल भोग मे किसी की साझेदारी या भागीदारी नहीं चलती । इन अध्यात्म-सूत्रो से प्रेरित हो हजारो-हजारो व्यक्ति आत्महित की साधना मे सलग्न हो गए। यही है सन्यास-परम्परा के सूत्रपात की आदि कहानी । वैसे भारतीय सस्कृति की तीनो ही धाराओ मे सन्यास की परपरा रही है। जैनो मे सन्यास-दीक्षा जीवन-पर्यन्त होती है, बौद्धो मे सावधिक होती है। वैदिकों मे प्रारम्भ से दीक्षा (सन्यास) की स्वीकृति नही थी। यह जैन धर्म का ही प्रभाव मानना चाहिए कि वैदिक परम्परा मे भी सन्यास को मान्यता मिली। वर्तमान मे तीनो ही परम्परा के साधु-सन्यासी हजारो की सख्या में परिव्रजन करते हैं। उन सबकी अपनी-अपनी आचार-सहिता है। अपनी-अपनी विधिया हैं।
जैन-मुनियो की अहिंसा और अपरिग्रह प्रधान आचार-सहिता तथा त्याग-वैराग्य मूलक चर्या सदा से ही लोक-चेतना को प्रभावित करती रही
जैन मुनि के लिए निर्ग्रन्थ, समण, श्रमण, भिक्षु, अनगार आदि शब्दो का प्रयोग उपलब्ध होता है, जो विशेष अर्थों का सवाहक है। निर्ग्रन्थ उनकी अकिंचनता का, समण समता का, श्रमण-श्रमशीलता और तपस्विता का, भिक्षु भिक्षाजीविता का तथा अनगार-निर्मुक्तता का प्रतीक है । जैन मुनियो को चर्या में उत्कृष्ट नि सगता के दर्शन होते हैं। वे सम्बन्धातीत चेतना के .
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जैनधर्म जीवन और जगत्
जागरण द्वारा अनेकता में एकता के जीवन्त उदाहरण हैं । वस्तुत जिन रागात्मक सम्बन्धो के आधार पर परिवार या समाज का निर्माण होता है, उन सम्बन्धो का विच्छेद ही सन्यास या दीक्षा है। यह व्यक्ति-प्रधान सस्कृति की पराकाष्ठा है। धर्म व्यक्तिगत तत्त्व है, पर उसकी साधना से समूह प्रभावित होता है, सामूहिक चेतना जागती है, इसलिए वह समूहगत भी होता हैं । तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने पहली बार धर्म-साधना को सामूहिक रूप दिया । श्रमण-सघ की स्थापना की। भगवान महावीर ने उसका उदात्तीकरण किया। इसी का परिणाम है कि आज भी जैन मुनि बडे-बडे सघो मे रहते हुए आत्म-साधना के पथ पर निर्बाध आगे बढ़ रहे हैं। जैन मुनि का आचार ___एक बार किसी नगर के उद्यान मे महान् ज्ञानी अध्यात्म दृष्टिसम्पन्न, सयम और तप मे लीन, अहत-प्रवचन के ममज्ञ प्रतापी जनाचार्य का आगमन हुआ। तत्कालीन राजा, राज्यमत्री, ब्राह्मण-विद्वान्, क्षत्रिय वर्ग आदि हजारो श्रोताओ ने उनका धर्म-प्रवचन सुना। उनकी जिज्ञासा जागी। प्रवचन के उपरात उन्होने पूछा-भन्ते ! हम जैन मुनि के आचार के विषय मे विस्तार से जानना चाहते हैं। आपको कष्ट न हो तो बताने का अनुग्रह करें।
आचार्य ने उनकी जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा-मोक्षार्थी निर्गन्थो का आचार बहुत कठोर है, दुश्चीर्ण है। इस प्रकार का अत्यन्त दुष्कर आचार निर्ग्रन्थ-दर्शन के सिवाय कही नही मिलता । जैन आचार-शास्त्र के मौलिक नियम बालक, युवा, वृद्ध, स्वस्थ, अस्वस्थ सभी श्रमणो के लिए समान रूप से लागू होते हैं, उन्हे उनका अखड पालन करना होता है ।
मुनि का अर्थ है ज्ञानी । ज्ञान का सार है आचार । आचार का पहला सोपान है–समस्त प्राणियो के प्रति आत्मतुला की दृष्टि, आत्मत्व की अनुभूति । आचार का अन्तिम लक्ष्य है -आत्म-स्वरूप मे अवस्थित होना, समस्त कर्मों से मुक्त हो आत्मा के चैतन्य स्वरूप मे रमण करना, मोक्ष को प्राप्त करना।
इनकी सिद्धि के लिए वे पाच महानतात्मक आचार को स्वीकार करते हैं।' पांच महावत
१ अहिंसा महाव्रत-मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा का पालन करना । अहिंसा का फलित है-समता और मैत्री। अहिंसा का सीधा अर्थ है सब प्राणियो के प्रति सयम । जीव-जन्तु, पशु-पक्षी और मानव की १ दसवेआलिय, अ० ६
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जैन मुनि की आचार-सहिता
१३३ हिंसा तो दूर, जैन मुनि पेड-पौधो आदि सूक्ष्म जीवो की हिंसा भी नहीं करते । जन तत्त्व विद्या के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति को भी सजीव माना गया है। इन स्थावर जीवो को भी कष्ट न हो, इस दृष्टि से जैन मुनि सदा जागरूक रहते हैं। वे धरती का दोहन नहीं करते नदी आदि के कच्चे जल का उपयोग नही करते हैं, जल को गन्दा नही करते, आग नही जलाते, हवा को दूषित नहीं करते, हरियाली को काटना तो दूर उसे पांवो से भी नही कुचलते। सीधे शब्दो मे कहे तो वे सहज जीवन जीते हैं, प्रकृति की छेडछाड नहीं करते। अहिंसक वृत्ति के कारण किसी प्रकार का प्रदूषण फैलाकर पर्यावरण को क्षति नही पहुचाते। इसलिए कहा जा सकता है कि जैन मुनि न केवल मनुष्य जाति के अपितु सम्पूर्ण चराचर जगत के रक्षक हैं, त्राता हैं।
२. सत्य महावत-मानसिक, वाचिक और कायिक ऋजुता का विकास तथा अविसवादन योग का अभ्यास । जैन मुनि किसी भी परिस्थिति में असत्य का सहारा नहीं लेते। असत्य भाषा का प्रयोग नहीं करते । असत्य बोलने के हेतु हैं-क्रोध, लोभ, भय और हास्य । मुनि इनका वर्जन करते हैं । वे किसी को आघात या कष्ट पहुचाने वाला, आपसी वैर-विरोध, तनाव या मन-मुटाव बढ़ाने वाला, हिंसा का निमित्त बनने वाला कठोर और निश्चयात्मक शब्द नहीं बोलते । सत्य-महानत के दो सुरक्षा प्रहरी हैं-वाणी का सयम और भाषा-विवेक । अविवेकपूर्ण और असयत वाणी का प्रयोग अनर्थ का कारण बन जाता है।
३ अचौर्य महाव्रत-स्वामी की अनुमति के बिना अल्पमूल्य या बहुमूल्य वस्तु का ग्रहण न करना तथा देव, गुरु और धर्म की आज्ञा का अतिक्रमण न करना।।
बिना आज्ञा किसी के मकान मे रहना, किसी वस्तु का उपभोग करना, अभिभावको की अनुमति बिना किसी व्यक्ति को दीक्षित करना-ये कार्य जैन आचार शास्त्र सम्मत नही हैं।
४ ब्रह्मचर्य महाव्रत-मन, वाणी और शरीर की पवित्रता का विकास, वासना-विजय, आत्म-रमण। अब्रह्मचर्य घोर प्रमाद है । सयम और चरित्र का नाश करने वाला है। जैन मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए वे खाद्य-सयम, दृष्टि-सयम और स्मृति-सयम की साधना करते हैं। वासना को उत्तेजित करने वाले ससर्ग, पहनावा, चर्चा और वैसे साहित्य से स्वय को बचाते हैं। साधु-साध्विया क्रमश स्त्री और पुरुष का स्पर्श तक नहीं करते। उनके साथ एक आसन पर नही बैठते, एकात मे बातचीत नहीं करते। क्योकि साधना के प्रारम्भ मे निमित्तो से बचना आवश्यक हो जाता है।
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जैनधर्म : जीवन और जगत् ५. अपरिग्रह महावत-सग्रह-त्याग, समत्व-विसर्जन ।
जैन-मुनि अकिंचन होते हैं । वे सोना-चादी, रुपये-पैसे नहीं रखते । किसी प्रकार का बैक-बैलेंस नहीं रखते। जमीन-जायदाद नहीं रखते। यहा तक कि दूसरे दिन के लिए भी खाद्य-पेय पदार्थों का संग्रह नहीं करते। कबीरजी ने भी इसके समर्थन मे लिखा है
__साधु हो संग्रह करे, दूजे दिन का नीर ।
तरे न तारे जगत् को, कह गये दास कबीर ॥ ६. रात्रि-भोजन-वर्जन-जन-आगमो मे रात्रि-भोजन का त्यागछठा व्रत माना गया है। जैन मुनि पाच महाव्रतो की भाति रात्रि-भोजनविरमण व्रत का भी पूरी निष्ठा के साथ पालन करते हैं। वे रात्रि में किसी प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थ और औषध का सेवन नहीं करते। यह बहुत बडा तप है।
उक्त पाच महाव्रत जैन मुनि की साधना का मूल आधार है। इनकी पुष्टि और सिद्धि के लिए उन्हे सतत जागरूक प्रयत्न करना होता है । बारवार अभ्यास करना होता है। प्रत्येक महाव्रत की आराधना के लिए जैनशास्त्रो मे पाच-पाच अभ्यास-विन्दु निर्दिष्ट हैं, जिन्हे भावना कहते हैं ।
जैन-परम्परा मे पाच महानतो की पच्चीस भावनाए सुप्रसिद्ध हैं, जैसे
१. अहिंसा महाव्रत की पाच भावनाए-१. चलने मे जागरूकता, २. मन का सयम, ३. वाणी का सयम, ४. धर्मोंपकरणो के व्यवहार में जागरूकता, ५ आहार-शुद्धि का विवेक ।
२. सत्य महावत की पाच भावनाए-१ वाणी का विवेक, २-५. क्रोध, लोभ, भय और हास्य का वर्जन ।
३. अचौर्य महाव्रत की पाच भावनाए-१. याचना का विवेक, २. उपभोग का विवेक, ३ परिमित पदार्थों का स्वीकरण, ४. उनकी सीमा का निर्धारण, ५ सामिको से याचना का विवेक ।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाच भावनाए-१ एकान्तवास, २ वैषयिक कथा का वर्जन, ३. चक्षु-सयम, ४. स्मृति-सयम, ५. अतिमात्र/प्रणीत भोजन का वर्जन ।
५. अपरिग्रह महाव्रत की पाच भावनाए-१-५, पाचो इन्द्रियो का सयम तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयो के प्रति समता की साधना ।
____ महाव्रतो की सुरक्षा के लिए पांच समितियो और तीन गुप्तियो के पालन का प्रावधान है। ये जिन-शासन मे आठ प्रवचन-माता के नाम से विख्यात हैं। समिति का अर्थ है सम्यक् प्रवृत्ति, विवेकपूर्ण प्रवृत्ति । वे पाच
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नैन मुनि की आचार-सहिता
१३५ १ ईर्या-समिति-गमन योग, युग-प्रमित भूमि को देखकर चलना । २ भाषा-समिति-वचन-योग, विवेकपूर्वक निरवध भाषा बोलना।
३ एषणा-समिति-निर्दोष-भिक्षा का ग्रहण तथा अनासक्त भाव से आहार करना।
४ आदान-निक्षेप-समिति-उपकरणो को लेने व रखने में सावधानी रखना ।
५ उत्सर्ग-समिति-उत्सर्ग-विधि मे विवेक रखना।
मनुष्य की जीवन-यात्रा के मुख्य पाच व्यवहार हैं-चलना, बोलना, खाना, वस्तुओ का उपयोग करना और उत्सर्ग करना। इन प्रवृत्तियो के आधार पर व्यक्ति के अन्तरग और बाह्य व्यक्तित्व को परखा जा सकता है। एक मुनि की जीवन-शैली गहस्थ की जीवन-शैली से सर्वथा भिन्न होनी चाहिए। समितिया उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का पेरामीटर बन सकती हैं।
साधना की दृष्टि मे सम्यक् प्रवृत्ति ही पर्याप्त नहीं है, उसकी तेजस्विता और प्रभावोत्पादकता के लिए निवृत्ति का मूल्य भी कम नही है । जैन साधना मूलत निवृत्ति प्रधान है । निर्वाण-प्रधान है । उसके लिए त्रिगुप्ति की साधना आवश्यक है । गुप्ति का अर्थ है-सत् और असत-दोनो प्रकार की प्रवृत्ति का निरोध । तीन गुप्तिया ये हैं
(१) मनगुप्ति-मानसिक प्रवृत्तियो का सयम या निरोध । (२) वचनगुप्ति-वाणी का सयम या निरोध । (३) कायगुप्ति-कायिक चेष्टाओ का सयम या निरोध ।
प्रत्येक जैन मुनि के लिए पाच महाव्रत, पाच समिति और तीन गुप्ति- इन तेरह नियमो का पालन करना अनिवार्य है। इन तेरह नियमों के आधार पर अन्य भी अनेक प्रकार के नियमो-उपनियमो का विकास हुआ है।
जैन धर्म के महान् प्रवक्ता आचार्य प्रवर के मुह से जैन मुनियों के माचार के विषय मे विस्तार से जानकारी प्राप्त कर श्रोताओं ने कृतार्थता का अनुभव किया। जैन-श्रमणो की तपस्विता और आचार-निष्ठा के प्रति उनके मन मे आस्था का भाव जागा। उनका माथा अनायास झुक गया उनके अलौकिक त्याग के प्रति । उनके जिज्ञासु भाव ने अध्यात्म के सुमेरु जैनाचार्य से बरावर सपर्क बनाए रखने को विवश किया। इस दौरान जैन मुनि के आचार की अनेक वारी किया श्रति के वातायन से उनकी चेतना के लोक मे प्रविष्ट हुई। जैसे
जैन मुनि अनगार होते हैं। उनका अपना कही मकान नहीं होता।
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
जहा जाते हैं, वही व्यक्तिगत, सार्वजनिक या सरकारी जो भी स्थान मिले, अधिकारियो की अनुमति पूर्वक रह जाते हैं। त्याग का उत्कृष्ट नमूना है अनगार वृत्ति।
आधुनिक मनोविज्ञान के प्रवर्तक फायड के अनुसार प्राणी की मौलिक वृत्ति है 'काम'। भगवान महावीर की दृष्टि मे प्राणी की मौलिक वृत्ति है लोभ-परिग्रह । 'काम' को कामना के रूप मे स्वीकार करें तो दोनो विचारो मे सवादिता हो सकती है। आधुनिक मनोविज्ञान ने इस क्षेत्र मे नई खोज की है। उसकी मान्यता से प्राणी को मौलिक वृत्ति है अधिकार की भावना। छोटे से छोटे प्राणी मे अपने घर के प्रति प्रवल अधिकार की भावना होती है । उसको त्याग देना कठिन काम है। जैन मुनि का आदर्श हैं -निर्गन्यता, अकिंचनता। उसकी साधना के लिए वह सबसे पहले इसी अधिकार-वृत्ति 'पर प्रहार करता है । अगार (घर) को त्याग अनगार बन जाता है ।
वृत्ति-परिष्कार की यात्रा में बहुत ही अर्थवान बन जाता है अनगार शब्द ।
० जैन मुनियो का जीवन-व्रत है - पदयात्रा। वे जब अपना सामान कधो पर लिए, नगे पाव, गाव-गाव और नगर-नगर मे धर्म की महाज्योति लिए पहुंचते हैं तो लगता है श्रमण-सस्कृति का परम पुरुषार्थ देह-धारण कर अज्ञान और आलस्य के तमस को समाप्त कर रहा है।
० जैन मुनि भिक्षा-जीवी होते हैं। उनकी भिक्षा विधि को गोचरी या साधुकरी वृत्ति कहते हैं। वे एक ही घर से भिक्षा नहीं लेते । अनेक घरों से थोडी-थोडी भिक्षा लेते हैं, जिससे उनका काम भी चल जाए और गृहस्थ को भी भार महसूस न हो। वे गृहस्थ के लिए जो सहज निर्मित भोजन होता है, उसे ग्रहण कर लेते हैं । नैमित्तिक आहार नहीं लेते।
० वे शुद्ध सात्त्विक भोजन ग्रहण कर अहिंसात्मक तरीके से जीवनयापन करते हैं । वे मास, अडे और मादक द्रव्यो का सेवन नहीं करते।
० वे गृहस्थोचित कार्यों मे भाग नहीं लेते। ० वे किसी राजनैतिक पार्टी का समर्थन या विरोध नही करते । • वे सापेक्ष सहयोग लेते हुए भी पूर्ण स्वावलम्बी जीवन जीते हैं । ० वे स्वय ही हरिजन हैं और स्वय ही महाजन ।
० उनकी विहार-चर्या प्रशस्त होती है। उनकी चर्या के चार ध्रुव है-स्वाध्याय, ध्यान, पवित्रता और तप। उनके आचार-शास्त्रीय नियम इन्ही ध्रुवो की परिक्रमा करते हैं। यह पवित्र आचार सहिता सदियोसहस्राब्दियो से जैन श्रमण सघो को प्राणवान बनाए हुए है। यही समस्त सत-परम्परा की जीवन्तता का आधार है।
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जैन मुनि की आचार-सहिता
१३७ युगीन समस्याओ के सदर्भ मे जैन मुनि के आचार की एक-एक धारा का विश्लेषण करें तो हम पाएगे कि उनके प्रत्येक विधि-निषेध के पीछे गूढ़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहा है। इसीलिए वर्तमान के परिप्रेक्ष्य मे उसका व्यापक महत्त्व है । इसके आचरण और अनुशीलन मे समूची मानवजाति का हित निहित है।
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जैन मुनियों की पद-यात्रा और उसकी उपलब्धियां
सन्त और संस्कृति
"ईरान और टर्की के बीच घमासान युद्ध । टर्की की निरन्तर पराजय । एक दिन ईरान के सूफी सत फरिदुदीन तुर्कों के हाथ पड गये। जासूसी का मारोप । फासी की सजा सुनाई गई। ईरान का एक धनाढ्य सत के बरावर हीरे-जवाहरात लेकर सत को मुक्त करने की माग करता है । अनेक ईरानी सत के बदले प्राण देने को तैयार हैं। टर्की सब याचनाओ को अस्वीकार कर देता है । आखिर ईरान के शाह टर्की के सुलतान से प्रार्थना करते हैं'आप राज्य ले लें, पर सन्त को छोड दें।' सुलतान आश्चर्यचकित । बात क्या है, जिस राज्य को हम पूरी ताकत के साथ लडकर भी नही पा सके, उसे आप एक 'आदमी' के बदले हमे सौंप रहे हैं ?
शाह बडी गभीरता के साथ तथ्य को अनावत करते हुए कहते हैंराज्य नश्वर है और सात अविनाशी । सत व्यक्ति नहीं होता, वह सस्कृति का प्रतीक होता है। हमने यदि सत को खो दिया तो ईरान सदा-सदा के लिए कलकित हो जाएगा।
बात सुलतान की समझ में आ जाती है-जिस देश में सतो का इतना सम्मान, उसे कौन पराजित कर सकता है। सत की वापसी के साथ ही दोनो देशो के मध्य युद्ध-चिराम की घोषणा हो जाती है।
यह घटना-प्रसग सत-परम्परा की सार्थकता को उजागर कर रहा है। आचार्य जिनदास महत्तर लिखते हैं
___ "विविह कुलुप्पण्णा साहवो कप्परूखा" सत-जन विविध कुलो मे उत्पन्न धरती के कल्पवृक्ष हैं। इससे भी आगे बढ़े तो लगता है, मानवता के लिए कल्पवृक्ष से भी अधिक वरदायी और महिमामय हैं सन्त ।
सन्तो का न निश्चित एक वेष होता है, न देश । न एक परिवेश होता है, न कोई स्थान विशेष । वे देते हैं मानव की आध्यात्मिक चेतना को नये उन्मेष और जीवन की दिव्यता का पावन सन्देश ।
वैसे सारे विश्व मे साधु-सतो की अपनी अलग ही अहंता और उपयोगिता है, लेकिन भारतीय संस्कृति का तो प्राण-तत्त्व ही सन्त-परम्परा
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संस्कृति की प्रतिष्ठा, प्रसार और पल्लवन जीवन मे सदा से सन्तो की प्रतिष्ठा, वन्दना और है । आज भी वह निर्मल धारा भारत की धरती के करती हुई आगे बढ़ रही है । इसलिए भारतीयो के श्रद्धा-प्रणत हैं उन अध्यात्म-प्रचेता सतो की निष्काम सत और परिव्रजन
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के लिए भारतीय लोकअभिवदना होती आयी अणु अणु को आप्लावित कोटि-कोटि अन्त करण सेवाओ के प्रति ।
वैसे तो कोई भी अध्यात्म साधक जहा कही बैठकर अध्यात्म की धुनी रमाता है, वहा के पूरे वातावरण को प्रभावित करता है । उसके शारीरिक और मानसिक पवित्र विकिरणों से समग्र वायु-मडल शुद्ध होता है । उसके अन्त करण से निरन्तर प्रवाहमान प्रेम, करुणा और मंत्री की धाराए प्राणी जगत् की समस्त चैतसिक कलुषताओ को धो डालती हैं । उनके कर्जाकरण वातावरण में ऐसे उर्जस्वल विचार - वलयो को निर्मित करते हैं जिनमे विलयित विश्व चेतना ज्ञान, शक्ति और आनन्द के सरोवरों में निमग्न रह सकती है ।
जगलो, पहाडो और गुफाओ मे रहकर ध्यान-साधना करने वाले ऋषि-मुनि भले ही जन सपर्क से दूर रहे, उनका सास्कृतिक और आध्यात्मिक अनुदान किसी भी दृष्टि से कम नही कहा जा सकता। फिर भी आत्मकल्याण के साथ-साथ जन-कल्याण के पवित्र उद्देश्य से उनका परिव्रजन भी सांस्कृतिक उन्नयन और लोक-चेतना के जागरण की दृष्टि से अतिरिक्त मूल्यवत्ता रखता है । क्योकि समाज को सामाजिक और नैतिक दायित्व का बोध कराना भी साधु-समाज का पवित्र कर्तव्य हो जाता है । जैन मुनियों का परिव्रजन
प्राचीन काल मे सभी सत, भले ही वे जैन मुनि हो या वौद्ध भिक्षु सन्यासी हो या फकीर, जनता को प्रतिबोध देने या अपने-अपने धर्म का प्रचार करने, पैदल ही एक गाव से दूसरे गाव घूमा करते थे । अपनी इस घुमक्कड वृत्ति के कारण ही वे परिव्राजक कहलाते थे । किन्तु कालान्तर मे परिव्रजन गौण हो गया । अधिकाश साधु-सन्यासी मठो, मन्दिरो, आश्रमो और उपाश्रयो मे नियत - वासी हो गए। उनकी सुविधावादी मनोवृत्ति ने अथवा युगीन अपेक्षाओं ने यान - वाहनो के उपयोग को स्वीकृति दे दी । किन्तु जैन मुनियो ने अपने पद-यात्रा - क्रम को कभी उपेक्षित नही किया । सुख-सुविधाओं की प्रवाह किए विना, घोर कष्ट सहन कर जन-कल्याण के लिए अपने आपको समर्पित कर देने वालो मे जैन श्रमणो का स्थान अग्रणी है ।
पद-यात्रा क्यो ?
जैन मुनि अपरिग्रह के महान् व्रती होते हैं । इसलिए अकिंचन
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
होते हैं । अकिंचन के लिए अनिकेतन होना जरूरी है और अनिकेतन के लिए परिव्रजन । इसलिए वे नियतवासी न वनकर परिव्रजन करते रहते हैं। जैन मुनियो के लिए प्रयुक्त 'अनगार' शब्द से उनकी यही अनिकेतता ध्वनित होती है।
जैन मुनि पूर्ण अहिंसक होते हैं । अत वे सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी की हिंसा का वर्जन करते हैं । जैन-दर्शन के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा और हरियाली-ये सारे सूक्ष्म जीवो के पिंड हैं । जैन मुनि इनकी हिंसा से उपरत रहते हैं । वाहनो का प्रयोग करने से उक्त सूक्ष्म-कायिक जीवो की हिंसा से बचा नहीं जा सकता। स्थूल जीवो मे भी कीडे-मकोडो से लेकर मनुष्य तक न जाने कितने प्राणी वाहनो की अन्धी दौड मे कुचल दिए जाते हैं। सूक्ष्म जीवो की हिंसा से भी उपरत रहने वाले अहिंसा-व्रती मुनि ऐसी स्थूल हिंसा के निमित्त भी कैसे बन सकते हैं ?
पाव-पांव चलते हुए भी जैन मुनि ई-समिति-गति-शुद्धिपूर्वक चलते हैं-पथ को देखते हुए चलते हैं, ताकि उनके चलने से पथ-गत सूक्ष्म या स्थूल जीवो का हनन न हो। वाहन से चलते हुए मुनि ई-समिति का पालन नही कर सकते । उसके अभाव में उनका अहिंसा महाव्रत खडित होता है । अत अहिंसा महाव्रत का सम्यक् पालन करने के लिए जैन मुनि वाहन का प्रयोग नहीं करते।
निष्कर्ष की भाषा मे जैन मुनि अहिंसक और अकिंचन-दोनो होते हैं, इसलिए वे पद-यात्रा करते हैं। पद-यात्रा आगमिक विधान
___ जैन तीर्थंकरो या मुनियो की चर्या का जहा भी वर्णन आता है, उनके लिए यह विशेष उल्लेख मिलता है
'गामाणुगाम दूइज्जमाणे, सुहसुहेण विहरमाणे-एक गाव से दूसरे गाव घूमते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए ।' जैन मुनियो के लिए कही एक जगह आश्रम बनाकर बैठने का उल्लेख किसी भी प्राचीन और मौलिक ग्रन्थ मे उपलब्ध नहीं होता।
___ आगम कहते हैं- "मुनि कारण के बिना एक स्थान मे न रहे।" साधु-साध्विया हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु मे विहार करते रहे । जैन मुनियो का अनियतवास प्रशस्त माना गया है। दशवकालिक चूणि मे अगस्त्य स्थविर लिखते हैं—" • ण णिच्च मेगत्थ-वसियव्व किन्तु विहरितन्व"-मुनि नित्य एक स्थान मे न रहे, अपितु विहार करते रहे।
विहार की दृष्टि से वर्ष को दो भागो मे बाटा गया है-वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल । वर्षाकाल में मुनि एक स्थान मे चार मास तक रह
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सकता है और ऋतु-बद्ध-काल में एक मास । जैन मुनि के लिए चतुर्मास का काल एक स्थान मे रहने का उत्कृष्ट काल है । ऋतुबद्ध-काल मे एक स्थान मे रहने का उत्कृष्ट समय एक मास है। साध्विया एक स्थान मे दो मास तक भी रह सकती हैं। चिकित्सा आदि के अपवादो को छोडकर जिस स्थान में साधु-साध्विया एक बार उत्कृष्ट समय तक रह चुके होते हैं वहा पुन रहने के लिए समय की निश्चित मर्यादाए की गई हैं।
जैन मुनियों की यात्रा के दो रूप हैं-अन्तर्यात्रा और बहिर्यात्रा। पहली चेतना के स्तर पर घाटत होती है और दूसरी का सम्बन्ध है बाह्यपरिवेश से । अन्तर्यात्रा मे अन्तश्चेतना अन्तर्जगत् की अन्वेषणा करती है।
और बाह्ययात्रा में होता है-धर्म प्रचारार्थ जन-सपर्क का विस्तार । जैनमुनि इन दोनो ही यात्राओ के माध्यम से जीवन और जगत् के सूक्ष्म, जटिल एव बहुआयामी पहलुओ को समग्रता से जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं। पद-यात्रा का आग्रह क्यो?
__ आज के बौद्धिक वर्ग का एक ज्वलत प्रश्न है कि कुछ ही क्षणो में समग्र विश्व की परिक्रमा करने वाले द्रुतगामी यान-वाहनो के उपलब्ध होते हुए भी पद-यात्रा का आग्रह कहा तक उचित है ? क्या इससे समय और शक्ति का अपव्यय नही होता ?
प्रश्न अवश्य चिंतनीय है। किन्तु अपनी लम्बी-लम्बी यात्राओं के माध्यम से विश्व-भ्रमण के नए कीर्तिमान स्थापित करना ही यदि जैनधमणो का उद्देश्य होता तो इस दिशा में बहुत पहले ही कोई क्रातिकारी कदम उठाया जा सकता था, लेकिन जैन-मुनियो का विहार तो वही तक अनुमत है, जहा तक उनकी साधना अक्षुण्ण रहे। उनके परिव्रजन से ज्ञान दशन और चारित्र-सम्पदा की अभिवृद्धि हो। अपने व्रतो को उपेक्षित कर मात्र जनकल्याण को प्रमुखता देने को वे आत्म-प्रवचना ही मानते हैं। यानयात्रा जहा एक ओर महावनो की सूक्ष्म धाराओ के साथ असगत है वहां दूसरी ओर साधक मे 'सुविधावादी' मनोवृत्ति का बीज-वपन भी कर देती है, जो उसकी सारी साधना को ही खोखली बना सकती है।
दूसरी बात वाहनों से यात्रा करने मे वह आनन्द नहीं आता, जो पदयात्रा मे उपलब्ध होता है । वाहनो द्वारा तो मनुष्य ढोया जाता है। वहां उसकी स्वतयता छिन जाती है । वाहनो की निभरता से उसे कही अनचाहे रुकना होता है, ता कही चाहने पर भी अनेक दश्यो और स्थलो को अनदेखा ही छोडना पड़ता है। प्रकृति और मनुष्य के साथ सीधा-सपर्क भी पद-यात्रा से ही सम्भव हा सकता है । पद-यात्रा मे स्व-निभरता के साथ अनुभूतियों मे भी प्रवणता आती है। भौगालिक और सास्कृतिक स्थितियो के आकलन
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के साथ आर्थिक और राजनीतिक स्थितियो की भी सम्यक् जानकारी मिलती है । समाज के पिछडे और मध्यम वर्ग से व्यक्तिश सम्पर्क होने के कारण सामाजिक स्थितियों का यथार्थ रेखा-चित्र अकित किया जा सकता है । इन सब सदर्भों मे झाकने से पदयात्रा का महत्त्व सहज समझ मे आ सकता है ।
परिव्रजन का उद्देश्य
जैन मुनियों के विहार का उद्देश्य मात्र पर्यटन या विश्व - दर्शन नही होता । उनका उद्देश्य है - जन-जन की अन्तश्चेतना के साथ तादात्म्य स्थापित करना । उनकी वृत्तियो और प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता से अध्ययन और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर उनकी समस्याओ का स्थायी समाधान प्रस्तुत करना । उन्हे नियत्रित और सतुलित जीवन जीने की प्रेरणा देना ।
जैन मुनि पाव-पाव चल कर सूरज की तरह गाव-गाव और घर
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घर मे नैतिकता और आध्यात्मिकता की रोशनी फैलाना चाहते हैं ।
वे इसी धरती की मिट्टी मे चरित्र निष्ठ और परिपूर्ण व्यक्तित्वो की फसल उगाना चाहते हैं, न कि आकाशमागं से किसी दिव्य-ज्योति का अवतरण । यह सब पद-यात्रा के द्वारा जन-सामान्य के साथ सम्पर्क - साधने से सहज सभव हो सकता है ।
जैन मुनि भ्रमणशील होते हैं । आज यहा तो कल वहा । न कोई स्थान, न मकान | हा वे जहा पडाव डालते हैं, वही उनका मकान बन जाता है । ' बताये क्या अपना नाम स्थान, जहा ठहरें, वही अपना मकान ।' कितना सुख होता है इस फकीरी मे । ममत्व - मुक्ति की इस साधना मे न कोई व्यक्ति बाधक बनता है, न स्थान । इप अनियत वास के कारण न किसी व्यक्ति के साथ उनके रागात्मक सबध जुडते हैं, न क्षेत्र-विशेष के साथ । इसीलिए वे वायुवत् अप्रतिबद्ध-विहारी होते हैं ।
जिनके अपना कोई घर-द्वार नही होता, वे अनावश्यक वस्तु- सग्रह से सहज ही बच जाते हैं ।
जैन मुनि वाहन का प्रयोग नही करते, न बैठने के लिए, न भार ढोने के लिए | वे अपना सामान अपने कधो पर ही लेकर चलते हैं, इसलिए वे उतना ही सामान रखते हैं जितने की अनिवार्य अपेक्षा होती है । इससे उनका लाघव-धर्म पुष्ट होता है ।
ब्रह्मचर्यं की साधना मे भी पाद - विहार सहयोगी बनता है । 'आयारो' मे उल्लेख है— कदाचित् मुनि का मन वासना से आक्रात हो जाए, तो वह खाद्य सयम, यासन, कायोत्सर्ग, खड़े-खडे ध्यान आदि उपायो से उसे समाहित करने का प्रयत्न करे। यदि इन समग्र उपायो से भी मन स्थिर और
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यात्मस्थ न हो, तो फिर वह 'गामाणुगाम विहरेज्जा'-ग्रामानुग्राम विहार करना प्रारम्भ कर दे । मन स्वस्थ हो जाएगा।
किसी भी देश की सस्कृति का मूल रूप गावो में ही सुरक्षित रहता है। भारत की जनसंख्या का अधिकाश भाग तो गावो मे ही रहता है। मुनियो के पाद-विहार से कोटि-कोटि ग्रामीण जनता लाभान्वित होती है और साकृतिक चेतना के उन्नयन के नये आयाम उपलब्ध होते हैं।
जन-जीवन मे धर्म का आलोक विखेरने के उद्देश्य से की गई जैनमुनियो की पद-यात्राए मानव-जीवन के अवरोध, कुण्ठा और कसक को धोकर उसे अनन्त आनन्द की दिशा मे यात्रायित करती है।
जन-मुनियो के पाद-विहार का इतिहास बताता है कि वे जहाजिस प्रात मे गये, वहा की सभ्यता, सस्कृति और परम्पराओ का उन्होने सूक्ष्मता से अध्ययन किया । वहा के आचार, विचार, व्यवहार और लोकजीवन मे वे घुल मिल गये। वहा की भाषा सीखी । वे उसी भाषा मे बोले और उसी भाषा मे साहित्य सृजन किया । फलत वे जहा गये, जहा रहे, वहा की जनता के साथ उन्होने आत्मीय-सम्बन्ध स्थापित कर लिए । इसीलिए उन्हें वहा-वहां की घरती को उर्वर बनाने और जैन-सस्कारो की फसल उगाने मे अभूतपूर्व सफलता मिली । भारत की विविध-प्रातीय भाषाओं में जैन-मनीषियो द्वारा रचित साहित्य जितनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है, उतना अन्य धर्माचायों या मनीषियो द्वारा लिखित उपलब्ध नहीं होता। जैनाचार्यों बोर जैन श्रमण-श्रमणियो का यह विपुल साहित्यिक अनुदान भी उनकी पद-यात्राओं को महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
जैनाचार्यों की ऐतिहासिक पद-यात्राओ ने विविध सस्कृतियो के मध्य सेतु का काम भी किया है। भारत की विविध-प्रातीय जनता की भाव-धारा को आध्यात्मिक और सास्कृतिक समन्वय के धागे से जोडा है।
__ यह कितने आश्चर्य की बात है कि जैन-धर्म के सभी तीर्थकरो का जन्म उत्तर भारत मे हुआ और उनकी वाणी को विशदरूप देने वाले अनेक महान् आचार्यों को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ भारत के दक्षिणी मचल को । भगवान् महावीर की परम्परा मे अनेक यशस्वी आचार्योकुन्दकुन्द, अकलक, पूज्यपाद, समन्तभद्र, विद्यानन्दि, नेमिचन्द सिद्धांतचक्रवर्ती आदि का जन्म दक्षिण भारत मे ही हुआ था। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैन मुनि जैन-धर्म और दर्शन की दिव्य ज्योति लेकर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पहुचे, वहा घूम-घूमकर उन्होने अध्यात्म की अलख जगाई और महावीर-वाणी की दिव्यता से लोक-चेतना को
प्लावित किया । यह सारा श्रेय उनकी पद-यात्राओ को ही दिया जा सकता है।
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जैन-श्रमणो ने अपनी पद-यात्राओ से जहा बहुत कुछ पाया है, वहा कुछ उपलब्धियो से उन्हे वचित भी रहना पड़ा है। चर्या के कठोर नियमो के कारण उनके विहार क्षेत्रो का परिसीमन हो गया। वे व्यापक रूप से विदेशो मे नही जा सके । इसलिए वहा जैन-धर्म का व्यापक प्रचारप्रसार भी नहीं हो सका। हालाकि प्राचीन समय मे जैन श्रमण बहुत बड़ी सख्या में विदेशो मे विहार करते थे, ऐसा अनेक ठोस प्रमाणो के आधार पर सिद्ध हो चुका है।
___ अनेक विद्वानो का अभिमत है कि भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर ने अनार्य देशो मे विहार किया था। उनके शिष्य श्रमण भी भारी संख्या में विदेशो मे घूमते थे ।
उत्तर-पश्चिम सीमा प्रात एव अफगानिस्तान मे विपुल सख्या मे जैनश्रमण विहार करते थे।
ई० पू० २५ मे पाड्य राजा ने अगस्ट्स सीजर के दरबार मे दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गये थे।
विद्वान् इतिहास-लेखक जी० एफ० मूर के अनुसार ईसा पूर्व इराक, श्याम और फिलीस्तीन मे जैन मुनि सैकडो की सख्या मे चारो ओर फैले हुए ये । पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथियोपिया के पहाडो और जगलो मे उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे। वे अपने त्याग और विद्या के लिये प्रसिद्ध थे । वे साधु वस्त्रो तक का परित्याग किये हुए थे।
यूनानी लेखक मिश्र, एबीसीनिया और इथ्यूपिया मे दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।
इस प्रकार मध्य एशिया मे जैन-धर्म या श्रमण-सस्कृति का काफी प्रभाव था। उससे वहा के धर्म भी प्रभावित हए थे।
जावा, सुमात्रा और लका मे भी जैन-मुनियो के विहार का उल्लेख मिलता है।
इससे हम इस निष्कर्ष तक पहुचते हैं कि एक समय ऐसा था, जब हिन्दुस्तान के बाहर के देशो मे जैन-मुनि पहुचे थे और वहा जैन-धर्म का अच्छा प्रसार हुआ था । कालातर मे जैन-श्रमणो की उपेक्षा या अन्यान्य परिस्थितियो के कारण सुदूर देशों की पद-यात्राओ का वह क्रम स्थायित्व नही पा सका।
लेकिन भारत में लगभग सभी प्रातो मे आज भी सभी जैन-सम्प्रदायों के साधु-साध्विया उसी रूप में भ्रमण करते हैं और जन-जीवन को जागृति का सदेश देते हैं।
____ अणव्रत अनुशास्ता युगप्रधान गुरुदेवश्री तुलसी ने स्वय लगभग सत्तर हजार कि. मी की पद-यात्रा कर सपूर्ण देश की आध्यात्मिक ओर
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नैतिक चेतना को पुनर्जीवित किया है।
गुरुदेवश्री ने अपने लगभग सात सौ साधु-साध्वियो को देश के नैतिक और चारित्रिक जागरण के पवित्र अनुष्ठान के लिए समर्पित कर रखा है । वे भारत के सभी प्रातो तथा उसके पडोसी देशो-नेपाल, भूटान सिक्किम तक पहुचते हैं और जैन-धर्म तथा अणुव्रत के सदेश को घर-घर पहुचाते हैं।
गुरुदेवश्री तथा उनके शिष्य-शिष्याओ की पद-यात्रा के मुख्य उद्देश्य हैं-धर्मकाति, धर्म-समन्वय और नैतिक-जागरण।
महान् उद्देश्य से की गई और की जा रही उनकी महान् पद-यात्राओ ने देश भर मे आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यो की पुन प्रतिष्ठा मे अद्भुत सफलता प्राप्त की है और उनके भविष्य मे सन्निहित है लोक-मगल की अनन्त-अनन्त सभावनाए।
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आगम वाचना : इतिहास-यात्रा
जिन शासन का प्राण तत्त्व है अर्हत्-प्रवचन । अर्हत सर्वज्ञ होते हैं, केवलज्ञानी होते हैं । उनकी ज्ञान-चेतना सर्वात्मना जागृत हो चुकी होती है। सपूर्ण जीव-अजीव जगत् अपने गुण-पर्याय धर्मों के साथ उनकी ज्ञान-चेतना मे स्पष्ट परिलक्षित होता है । सर्वज्ञता प्राप्त होते ही वे लोक-कल्याण हेतु प्रवचन करते हैं । सत्य का प्रतिपादन करते हैं। महंतो द्वारा प्रतिपादित विशाल श्रुत के आधार पर गणधर द्वादशागी की रचना करते हैं ।
भगवान महावीर जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे । कठिन अध्यात्म-साधना के पश्चात् वे सर्वज्ञ बने । सत्य का साक्षात्कार किया। जन-चेतना को जागृत करने हेतु उन्होने प्रवचन किया। इद्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधरो ने, जो कि उनके प्रधान अतेवासी शिष्य थे, उस अर्थ रूप मे प्रवाहित श्रुत के अजस्र-स्रोत को ग्रन्यो या शास्त्रो के रूप मे रूपायित किया। शास्त्र रचे।
अर्हत्-प्रवचन के आधार पर रचा गया आगम वाङ्मय द्वादशागी या गणि-पिटक कहलाया। वह विशाल ज्ञान-राशि आगम या श्रुत के नाम से प्रसिद्ध है। अहंत परम्परा के उत्तरवर्ती आचार्यों को यह अपार श्रुत-राशि विरासत के रूप में प्राप्त होती है । ये इसका अमूल्य-निधि के रूप मे सरक्षण करते हैं।
जैन-शासन को गणधरो की अमूल्य देन है-द्वादशागी या गणिपिटक । वैदिक परम्परा मे जो स्थान वेदो का है, बौद्ध परम्परा मे जो स्थान त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन परम्परा में गणिपिटक का है। भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा मे आचार्य सुधर्मा और जवू स्वामी ये दो ही केवली हुए। उनके युग तक आगम वाड्मय सपूर्णत सुरक्षित रहा । उनके पश्चात् छह श्रुत केवली हुए । उनमे भद्रबाहु का स्थान बहुत ऊ चा है । आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् श्रुत की धारा क्षीण होने लगी।
___ जब-जब श्रुत की प्रवहमान धारा मे अवरोध उत्पन्न हुए, श्रुत विच्छिन्न हुआ, श्रमण-सघ ने श्रुत-सपन्न समर्थ आचार्यों के नेतृत्व मे श्रुत की सुरक्षा का तीव्र प्रयत्न किया। श्रुत का सकलन, सूत्र और अर्थ की विस्मृत या विच्छिन्न परम्परा का पुन सधान, ग्रन्थ-लेखन आदि-आदि माध्यमो से महान् जैनाचार्यों ने श्रुत की महान् सेवाए की ।
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आगम वाचना इतिहास - यात्रा
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श्रुत सेवा के तीव्र प्रयत्नो मे मुनि सघ के महासम्मेलन बुलाए गए और आगमों का सामूहिक वाचन किया गया । इसलिए वे प्रयत्न जैन सघ मे आगम-वाचना के रूप में इतिहास - प्रसिद्ध हो गए । वे वाचनाए कब, किन परिस्थितियो और किन आचार्यों के नेतृत्व मे सम्पन्न हुईं, इसके सबंध मे । वीर - निर्वाण की पहली मध्य आगम वाङ्मय
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सक्षिप्त जानकारी करेंगे प्रस्तुत निबध के माध्यम से सदी से लेकर वी नि के ९५० अथवा ९९३ वर्ष के के सकलन और व्यवस्थितीकरण की दृष्टि से पाच हुईं ।
प्रमुख वाचनाए सपन्न
प्रथम वाचना
प्रथम आगम वाचना वी नि की दूसरी शताब्दी ( वी नि १६०) मे हुई । उस समय श्रमण संघ का मुख्य विहार क्षेत्र मगध, आज का बिहार प्रदेश था । मगध राज्य मे १२ वर्षो तक लगातार दुष्काल पडा । उससे श्रमण-संघ को काफी कठिनाइयों से गुजरना पडा । मुनि-चर्या की कठोरता, नियमो की जटिलता, भिक्षा की अनुपलब्धि - इन सब कारणो से अनेक श्रुतधर मुनि दिवगत हो गए, अनेक रुग्ण हो गए। श्रुतधर मुनियो का स्वास्थ्य क्षीण हुआ । स्मृति क्षीण हुई। फलत श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न हो गई ।
दुष्काल की समाप्ति पर विच्छिन्न श्रुत को सकलित करने के लिए वीनि १६० के लगभग, श्रमण- सघ के आचार्य पाटलीपुत्र ( मगध ) मे एकत्रित हुए । इस महासम्मेलन का नेतृत्व कर रहे थे महामनस्वी आचार्य स्थूलभद्र । उनके निर्देशन मे सभी श्रमणो ने मिलकर ग्यारह अगो का प्रामाणिक सकलन किया । बारहवा अग दृष्टिवाद किसी भी श्रमण को याद नही था । इस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता एक मात्र आचार्य भद्रवाह बचे थे । वे नेपाल मे महाप्राण ध्यान की साधना मे निरत थे । श्रुत की इस अपूरणीय क्षति को पूरा करने प्रखर मेधावी आर्य स्थूलभद्र विशाल श्रमण- सघ के साथ नेपाल पहुचे । सघ के अनुनय भरे निवेदन को स्वीकार कर आचाप भदवाहु ने स्थूलभद्र आदि श्रमणो को दृष्टिवाद की वाचना देना प्रारम्भ किया । धृतिदुर्बलता के कारण स्थूलभद्र के सिवाय पूर्व श्रुत की आराधना मे सभी मुनि असफल हो गए । मात्र स्थूलभद्र ही चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर सके । साध्वी वहनो को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होने शक्ति- प्रदशन किया, इस प्रमाद के प्रायश्चित्त स्वरूप आचार्य भद्रबाहु ने उन्हे अतिम चार पूर्वी की अर्थ - वाचना नही दी । अत अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु हुए । उनके स्वर्गवास (वी नि १७० ) के पश्चात् अर्थत अतिम चार पूर्वो का विच्छेद हो गया ।
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जैनदर्शन . जीवन और जगत् दूसरी वाचना
ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य मे श्रुत-सुरक्षा का एक और प्रयत्न हुआ था कलिंगाधिपति जैन सम्राट खारवेल के युग मे । हिमवत स्थविरावली के अनुसार सम्राट् खारवेल ने कुमारी पर्वत पर एक वृहत् श्रमणसम्मेलन आयोजित किया था। इस सम्मेलन में आचार्य महागिरि की परपरा के बलिस्सह, बौद्धलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य आदि दो सौ जिनकल्प तुल्य साधना करने वाले श्रमण एवं आर्य सुस्थित, आयं सुप्रतिबुद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य आदि तीन सौ स्थविरकल्पी श्रमण सम्मिलित हुए थे। आर्या पोइणी आदि तीन सौ साध्विया, भिक्ख गय, चूर्णक, तेलक आदि छह सौ श्रावक तथा पूर्णमिश्रा आदि छह सौ श्राविकाए भी सम्मिलित थी।
उक्त वृहत् सम्मेलन मे साध्वियो और श्राविकाओ की भागीदारी जैन शासन मे नारी-जाति की प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक दस्तावेज है । इस अवसर पर श्रुत-स्वाध्याय और श्रुत-स्थिरीकरण के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो का निर्माण भी हुआ।
श्यामाचार्य ने पन्नवणा सूत्र की, उमास्वति ने तत्त्वार्थ सूत्र की और स्थविर आर्य बलिस्सह ने अगविद्या प्रति शास्त्रो की रचना की। इस प्रकार सम्राट् खारवेल ने प्रचार-प्रसार, श्रुत-सरक्षण आदि दृष्टियो से जन-धर्म की अद्वितीय सेवा की। जैनधर्म को व्यापक बनाने मे अपनी सत्ता और शक्ति का भरपूर उपयोग किया।
सम्राट् खारवेल को उसके कार्यों की प्रशस्ति के रूप मे धम्मराज, भिक्खु राज, खेमराज आदि सम्मान-सूचक शब्दो से सम्मानित किया गया । चक्रवर्ती खारवेल जैन-धर्म का अनन्य उपासक था । उसके सुप्रसिद्ध हाथीगुम्फा अभिलेख से भी यह उपलब्ध होता है कि उसने उडीसा के कुमारी पर्वत पर जैन श्रमणो का एक सघ बुलाया और मौर्यकाल मे जो अग विच्छिन्न हो गए थे उन्हे उपलब्ध कराया।
कलिंग-चक्रवर्ती सम्राट खारवेल का शासनकाल वी नि ३०० से ३३० माना गया है, अत उक्त श्रमण-सम्मेलन भी इसी अवधि मे सपन्न हुआ या, ऐसा इतिहासविज्ञो का अभिमत है ।
अनेक इतिहासकारो ने इस सम्मेलन को वाचना का दर्जा नही दिया है, फिर भी इसकी गरिमा और मूल्यवत्ता किसी भी आगम-वाचना की तुलना मे कम नही है । तीसरी और चौथी वाचना
ये दोनो वाचनाए वी. नि ८२७ से ८४० के मध्य हई । इस काला
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आगम वाचना इतिहास-यात्रा
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वधि मे फिर बारह वर्षीय भयकर दुष्काल पहा । इससे जन-जीवन अस्तव्यस्त और सत्रस्त हो उठा । तपस्वी और धृति-सपन्न मुनि सघ भी इससे अप्रभावित नहीं रह सका । भिक्षा का मिलना अत्यन्त कठिन हो गया । अनेक श्रुतधर आचार्यों और मुनियो ने वैभार गिरि और कुमार-गिरि पर्वत पर अनशन स्वीकार कर आत्मार्थ सिद्ध किया । कुछ मुनि सयम-जावन के निर्वाह हेतु दूर देशो की ओर चल पडे । जो रहे, वे उचित भिक्षा-वृत्ति के अभाव मे आगमो का अध्ययन, अध्यापन, ग्रहण और प्रत्यावर्तन नहीं कर सके । ऐसी स्थिति मे धीरे-धीरे श्रुत का नाश होने लगा। अतिशायी श्रुत तो बच ही नही सका, अगो और उपागो के सपूर्ण अर्थ के ज्ञाता मुनि नही बचे । सूत्रागम का भी बहुत बडा भाग नष्ट हो गया ।
दुष्काल समाप्त हुआ । वातावरण अनुकूल बना, तब उस समय के समर्थ आचार्य स्कदिल के नेतृत्व मे मथुरा में सामूहिक आगम-वाचना हुई । जिन-जिन श्रमणो को आगमो का जितना भाग याद था, उसका अनुसधान कर व्यवस्थित किया गया । इस प्रयत्न से कालिक सूत्रो और पूर्वगत के कुछ अशो को सकलित किया गया। यह वाचना आर्य स्कदिल के नेतृत्व तथा मथुरा में होने के कारण स्कदिली-वाचना या माथुरी-वाचना कहलाई।
___इस वाचना मे मधुमित्र, गधहस्ती आदि डेढ सो श्रमण उपस्थित थे। मधुमित्र और गधहस्ती आर्य स्कदिल के मेधावी गुरु भाई मुनि थे। परस्पर श्रुत के आदान-प्रदान द्वारा टूटी हुई श्रुत-शृखला को जोडने तथा अवशिष्ट श्रुत-सपदा के सरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया गया । मतातर के अनुसार उस समय तक श्रृत नष्ट नही हुआ था । वह विद्यमान था, किन्तु श्रत के अर्थ की विस्मृति हो गई यथा आर्य स्कन्दिल के सिवाय शेष श्रुतधर मुनि दिवगत हो गए थे । अत श्रुत की अर्थ-परस्परा को चिरजीवी बनाए रखने के लिए युग प्रधान आर्य स्कन्दिल ने उस सकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि दी । अनुयोग का प्रर्वतन किया। यह अनुयोग-प्रर्वतन ही स्कन्दिली या माथरी वाचना कहलाया। गधहस्ती ने इस वाचना का पूरा विवरण लिखा। मथुरा के ओसवाल वशज सुश्रावक पोपाल ने उस विवरण समेत सपूर्ण सूत्रो को ताड-पत्र पर लिखवाकर श्रमण सघ को समर्पित किया। स्मृतिपरम्परा से सुरक्षित श्रुत पहली वार लिपिबद्ध हुआ । ठीक इसी समय आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता मे श्रमण सघ वल्लभी मे एकत्रित हुआ। श्रुत का आदान-प्रदान हुआ । श्रमण वीच-बीच मे वहुत-सा श्रुत भूल चुके थे। चिंता हुई, श्रुतनिधि सपूर्णत नष्ट न हो जाए, इस दृष्टि से उस समय तक जितना श्रुत वचा था, उसे सकलित कर लिया गया । यह वल्लभी वाचना अथवा नागार्जुनीय वाचना कहलाई। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण से भी आयं स्कन्दिल को
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जैनधर्म जीवन और जगत्
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अनुयोग प्रर्वतक तथा नागार्जुन को वाचक रूप मे वदना की है ।
पांचवी वाचना
पुन
माथुरी और बल्लभी वाचना के १५९ वर्ष पश्चात् यानी वी नि ९८० मे देवद्धगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता मे श्रमण संघ एकत्रित हुआ । देवद्धिगणी श्रुत-रत्नो के धारक युग प्रभावक आचार्य थे । वे एक पूर्व के ज्ञाता थे । उन्होने अनुभव किया - स्मृति दौर्बल्य श्रुत- परावर्तन का अभाव, गुरु-परम्परा की विच्छित्ति इत्यादि कारणो से श्रुत की धारा अत्यत क्षीण हो रही है । पूर्वं श्रुत वह अथाह अपार ज्ञान राशि है जिसके लिए कहा जाता है कि सपूर्ण पृथ्वी को कागज और मदराचल को लेखनी बना लिया जाये तो भी उस ज्ञान का लेखन सभव नही, उस अमेय ज्ञान - सपदा क श्रमण अपनी स्मृति - परम्परा से सुरक्षित रखते थे । आर्य देवद्धिगणी समयज्ञ थे । उन्होने देखा, अनुभव किया कि अब समय बदल गया है, स्मृति के आधार पर श्रुत को सुरक्षित रखना सभव नही है । श्रमणो की स्मरण शक्ति उत्तरोतर क्षीण होती जा रही है । समय रहते यदि श्रुत-सुरक्षा का उचित उपाय न खोजा गया तो उसे बचाना कठिन है । इसी चितन के आधार पर देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व मे श्रमण- सघ पुन मथुरा मे एकत्रित हुआ । उपलब्ध कठस्थ श्रुत के आधार पर विछिन्न आगम-वाड्मय को व्यवस्थित किया गया । यह वीनि की दसवी सदी की महत्त्वपूर्ण आगम-वाचना थी । आगम - साहित्य को स्थायित्व देने की दृष्टि से उनके निर्देशन मे आगम-लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ । उस समय माधुरी और बल्लभी दोनो ही वाचनाए उनके समक्ष थी । दोनो परम्पराओ के प्रतिनिधि आचार्य एव मुनिजन भी उपस्थित थे । देवद्धिगणी ने माथुरी वाचना को प्रमुखता प्रदान की और बल्लभी - वाचना को पाठातर के रूप मे स्वीकार किया। माधुरी - वाचना के समय भी आगम ताड - पत्रो मे लिखे गये थे, पर इस दिशा मे जो सुव्यवस्थित कार्यं देवद्धगणी ने किया, वह अपूर्वं था ।
बलहीपुरम्म नयरे, देवडिय महेण समण सघेण ।
पुत्थइ आगमु लिहिओ, नवसय असी सयाओ वीराओ ।। इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण संघ ने आचार्य देवद्धिगणी की निश्रा में वीनि ९८० मे वाडमय को पुस्तकारूढ़ किया था । उनके इस पुनीत प्रयत्न से आगम-ज्ञान की धारा सुरक्षित रही । उत्तरवर्ती परम्परा उपकृत हुई ।
आज जन शासन से जो आगमम-निधि सुरक्षित है, उसका श्रेय देवगणी क्षमाश्रमण के दूरदर्शिता पूर्ण सत्प्रयत्नों को ही हे । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के सत्ताईस पाट तक आचार-विचार को
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मागम वाचना इतिहास-यात्रा
१५१ शुद्ध परपरा रही थी। श्री देवद्धिगणी सत्ताबीसवें आचार्य हुए हैं। अत श्वेताम्बर आम्नाय की सभी शाखा-प्रशाखाओ के लिए वे नमस्य हैं। उनके प्रयत्न प्रणम्य हैं। यह हुई आगम-वाङ्मय की सुरक्षा के उपायो की चर्चा । जैन समाज ही नहीं, पूरा अध्यात्म जगत् उन आचार्यों का ऋणी है, जिन्होने श्रुत-ज्ञान की मशाल को समय के उस नाजुक दौर मे भी अपनी श्रद्धा की ओट मे रखकर बुझने से उवार लिया, जब परिस्थितियो का झझावात उसे वुझाने की पूरी तैयारी में था ।
पाठको के मन मे एक प्रश्न जरूर उठ रहा होगा कि पुस्तकारूढ़ तो दसवी शताब्दी मे किया गया। इससे पूर्व ज्ञान की इस विशाल थाती को मात्र कठाग्र रखकर या स्मृति-कोष्ठको मे भरकर कैसे सुरक्षित रखा गया ? इस प्रश्न का समाधान शरीर-शास्त्रीय और परा-मानस शास्त्रीय अध्ययन से स्पष्ट हो सकता है । आधुनिक खोजो ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव मस्तिष्क शक्ति का अक्षय कोष है । उसमे ऐसे तत्त्व निहित हैं जिनके आधार पर बीस अरब पृष्ठो से भी अधिक ज्ञान-भडार को सुरक्षित रखा जा सकता है। कुछ वैज्ञानिको ने यहा तक घोषणा की है कि मनुष्य-मस्तिष्क मे इतने स्मृति-प्रकोष्ठ हैं, जिनमे समग्र विश्व का साहित्य सगृहित किया जा सकता है। दुनिया के सभी पुस्तकालयो का ज्ञान भरा जा सकता है। किन्तु देश, काल आदि परिस्थितियो की प्रतिकूलता ने मानवीय मस्तिष्क की उन क्षमताओ पर तीव्र प्रहार किया, जिससे स्मृति क्षीण हुई और उसके साथ प्रवाहित होने वाली ज्ञान-गगा की धारा भी सिमटने लगी। सर्वनाश के उन क्षणो मे भी जिन्होंने अद्वितीय आत्मविश्वास के साथ आगम-वाङ्मय के प्रकाश को बचाया, श्रुत की स्रोतस्विनी के सवाहक बने, वे महान् आचार्य जैन-शासन मे अभिनदनीय बन गए । उनके सानिध्य मे सपन्न होने गली आगम-वाचनाए इतिहास की अमर गाथाए वन गई ।
वर्तमान में युगप्रधान वाचना-प्रमुख गणाधिपति गुरुदेव तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नेतृत्व मे आगम-सपादन का अद्भुत कार्य हो रहा है । यह भी अपनी कोटि की अपूर्व वाचना है। इस वाचना का क्रम चाल है । अथाह आध्यात्मिक ऊर्जा के महास्रोत गुरुदेव श्री तुलसी और भारतीय मनीषा के शिखरपुरुप आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रखर पुरुषार्थ के साथ उनके अनेक प्रबुद्ध शिष्य-शिष्याओ के श्रम से सपादित आडगम वामय, निष्पक्ष दृष्टि से निर्धारित शुद्ध पाठ, सस्कृत रूपातरण, आधुनिक हिन्दी अनुवाद तथा विस्तृत पाद-टिप्पणो के साथ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित होकर नव विद्वानो के हाथो में पहुचा तो उन्होने इसे बीसवी सदी की महान् उपलब्धि के रूप मे स्वीकार किया। आगम-सपादन के इस महान् अनुष्ठानो को निर्विवाद रूप से 'पाचवी आगमवाचना' कहा जा सकता है ।
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वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष जैन सम्राट चेटक
वैशाली गणराज्य
महावीर के युग में उत्तर-भारत मे राजतत्रीय और गणतत्रीय दोनो प्रकार की सत्ताए विकसित हो चुकी थी । वत्स, अवन्ती, मगध और कौशल -ये उस समय के राजतनीय या एकतत्रीय राज्य थे। उनकी शक्ति अपरिमित थी । वे साम्राज्यवाद की बलवती भावना से ओत-प्रोत थे। इनके अतिरिक्त अन्यान्य सभी सभागो मे गणराज्य या संघराज्य स्थापित थे। ये गणराज्य राजतत्रवाद के प्रबल विरोधी थे । यद्यपि इनकी शासन-प्रणाली पूर्णत जनतत्रात्मक नही थी, किन्तु उसे वर्तमान की जनतत्रीय प्रणाली का आदि रूप मानें तो कोई आपत्ति नही होगी। वैशाली गणतत्र के संचालक सदस्यो की विशाल सख्या के आधार पर प्रतीत होता है कि यह पूरे राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी। इस माने मे वह जनतत्रात्मक सभा थी । लेकिन वर्तमान शासन-प्रणाली के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि उस युग के गणराज्य न तो पूरे एकतत्रीय राज्य थे, न पूरे प्रजातत्रीय । उसके प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने गए व्यक्ति नहीं होते थे । अपितु कितने ही कबीले मिलकर उसका सचालन करते थे।
कात्यायन के अनुसार गणराज्य वह शासन-प्रणाली है जिसको एक विशिष्ट क्षत्रीय वर्ग संचालित करता है । अत जनतन्त्र का अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि जनतत्र अयवा वर्तमान भारत का गणतत्र जहा जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियो का शासन है वहा प्राचीन गणराज्य विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियो द्वारा सचालित होते थे ।
वैशाली गणराज्य के सविधान के आधार पर आधुनिक विद्वानो का यह अभिमत पुष्ट हो रहा है कि तत्कालीन गणो मे कुलीन-तत्रात्मक राज्यव्यवस्था थी। फिर भी उक्त गणराज्य प्रजातत्र के अधिक अभिमुख थे।
उल्लिखित गणो मे राजनैतिक रूप से सबसे प्रसिद्ध गण वज्जियो (लिच्छवियो) का था। वह नौ सम्मिलित कबीलो का एक शक्तिशाली सघ था । वह सघ गणतत्रीय विचारो का प्रमुख केन्द्र था। इस जाति को अपनी इस विशिष्ट राजनैतिक व्यवस्था पर गौरव था। अपनी प्रभुता की सुरक्षा के लिए इसे समय-समय पर महान् बलिदान भी करने पड़े थे। संथागार और चेटक
लिच्छवी क्षत्रियो द्वारा शासित वज्जिसघ उस युग का एक आदर्श
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वैशाली गणणत्र के अध्यक्ष जैन सम्राट् चेटक
१५३ और प्रख्यात गणतत्रीय राष्ट्र था । उसका विधि-विधान आज की जनतत्रीय प्रणाली से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। जनता या नागरिको के प्रतिनिधि राजा कहलाते थे। उनका स्थान वर्तमान के ससद-सदस्यो-विधायको के समकक्ष था । वे वैशाली के सथागार मे बैठकर गणतत्रीय पद्धति से राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि समस्याओ पर विचार-विमर्श करते थे । गणराज्य की सचालन-विधियो के मुख्य केन्द्र सथागार होते थे। वे प्रमुख नगरो मे होते थे । गण-भवनो मे केन्द्रीय अधिवेशन होते थे। यह सथागार वस्तुत लोकसभा का ही पूर्व रूप कहा जा सकता है।
सथागारो मे पारित अधिनियमो को ही राजा तथा मत्रीमडल क्रियान्वित करता था। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, नागरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी समस्याए यही सुलझाई जाती थी।
भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ भी उनमे से एक थे, ऐसा कई इतिहासकार मानते हैं । वे सभी सदस्य अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि होते थे, जो उन-उन क्षेत्रो के अधिपति घोषित किए जाते थे । उन सभी सदस्यो की एकता और प्रेम अनुकरणीय था । वे परस्पर किसी को हीन या उच्च नही मानते थे। सभी अपने आपको अहम राजा मानते थे । वैशाली मे इनके अलगअलग प्रासाद, आराम आदि थे। इन राजाओ की शासन-सभा सघ-सभा कहलाती थी। इनका गणतत्र वज्जी सघ या लिच्छवी सघ कहलाता था। इस सघ मे ९-९ लिच्छवियो की दो-दो उप-समितिया थी। एक न्याय कार्य सभालती थी और दूसरी परराष्ट्र-कार्य को। इस दूसरी समिति ने मल्लवी, लिच्छवी और काशी-कौशल के गण राजाओ का सगठन बनाया था, जिसके अध्यक्ष ये महाराज चेटक । राज्याध्यक्ष बनाम धर्माध्यक्ष
जैन इतिहास में महाराज चेटक को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है । भारतीय जन-मानस मे आज भी उनके प्रति आदर के भाव हैं। वह इसलिए नहीं कि महाराज चेटक तीथंकर महावीर के मामा थे या बहुत वडे शासक थे, अपितु इसलिए कि एक शासक के सम्मानपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होते हुए भी उनका जीवन अध्यात्म से अनुप्राणित था। वे सत्ता के बल पर धम-नीति पर छाए नहीं, अपितु उन्होंने राजनीति को धमनीति के अनुसार सचालित किया। उन्होने अपने गणतत्र को जैन सिद्धातो को प्रयोग-भूमि बनाया। मानवीय एकता, वैचारिक स्वतत्रता, समता, सद्भावना और सहअस्तित्व के सिद्धातो को उन्होने व्यावहारिक रूप प्रदान किया।
वे अपने युग के ऐतिहासिक व्यक्ति थे । वे महावीर के परम भक्त और दृढ़धी उपासक थे । उनकी धार्मिकता और महता की छाप पूरे परि
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जैनधर्म जीवन और जगत्
वार पर थी। उनका सारा परिवार जैन दर्शन और सिद्धातो के प्रति आस्थावान था। उनके सात कन्यायें थी जो परम विदूपी और आदर्श नारिया थी।
वे अपने पिता के आदर्श सस्कारो मे ढली हुई थी। राजा चेटक की यह प्रतिज्ञा थी कि वह अपनी कन्याओ को सार्मिक राजाओ के साथ ही ब्याहेगा। उन्होने उस युग के प्रख्यात राजाओ के साथ अपनी सुसस्कारी पुत्रियो को व्याहा । उनमें से
१. प्रभावती-वीतभयपुर (सिंधु सौवीर के) के राजा उदायन को २ पद्मावती-अगदेश के राजा दधिवाहन को ३ मृगावती-वत्सदेश के राजा शतानीक को ४ शिवा-उज्जनी नरेश चण्डप्रद्योत को ५ ज्येष्ठा-महावीर के भ्राता नन्दीवर्धन को ६ चेलना-मगध सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार को ब्याही गई थी। एक कन्या सुज्येष्ठा महावीर के सघ मे दीक्षित हो गई।
यद्यपि सम्राट् श्रेणिक पहले जैन नही था, लेकिन वह उस शक्तिशाली गणतत्र के सर्वोच्च नेता के साथ स्थायी मैत्री सबध स्थापित करना चाहता था । इधर चेटक की पुत्रियो की सर्वगुणसम्पन्नता सर्वत्र सुविश्रुत थी।
__ श्रेणिक ने राजा चेटक के पास उसकी पुत्री से विवाह करने का । प्रस्ताव भेजा। राजा चेटक ने वह स्वीकार नही किया। क्योकि वह अपने प्रण के अनुसार किसी विधर्मी नरेश को अपनी पुत्री नहीं दे सकता था। सम्राट् श्रेणिक ने फिर छल-बल से उनकी सबसे छोटी पुत्री चेलना को पाया, जिसे एक आदर्श नारी, दृढ श्रद्धालु और तत्त्वज्ञा श्राविका के रूप मे जैन सघ मे गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। वैसे चेटक की सभी पुत्रिया अपने समय की विख्यात नारिया हुई हैं।
जैन परम्परा मे जिन १६ आदर्श नारियो का वर्णन आता है, वे सोलह सतियो के नाम से जानी जाती हैं। उनमे से चार तो महाराज चेटक की पुत्रिया ही थी, जिनके नाम हैं--प्रभावती, पदमावती; मृगावती और शिवा।
महाराज चेटक का साम्राज्य वैशाली गणतत्र के नाम से प्रसिद्ध था। उनके गणतत्र की अपनी विरल विशेषताए थी। गण के सभी सदस्यो में मतैक्य, सौहार्द, परस्पर आदर के भाव, अपने सिद्धातो के प्रति दृढता आदि की भावना प्रबल थी। उनमे राष्ट्रीयता की भावना अद्वितीय थी। महात्मा बुद्ध ने इनकी सहिष्णुता की बहुत प्रशसा की है।
चेटक के दस पुत्रो मे से 'सिंह' वज्जी सघ के प्रधान सेनानायक थे । राजा चेटक वारहव्रती श्रावक थे। वे दृढ़ प्रतिज्ञ थे। समरागण मे भी उन्हे
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वैशाली गणतत्र के अध्यक्ष जैन सम्राट् चेटक
१५५ निहत्थे पर वार न करने का और एक दिन में एक से अधिक बाण न चलाने का सकल्प था, जिसका पालन उन्होने घोर आपत्कालीन स्थिति में भी किया।
___ अपने दोहिय कणिक के साथ महाराज चेटक का भीषण सग्राम हुआ, जो रथमूसल सग्राम या महाशिला-कटक सग्राम के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है । उस परिस्थिति मे भी वे अपने व्रतो की कठिन कसौटी पर खरे उतरे । प्रण की सुरक्षा के लिए उन्होने अपने प्राणो का बलिदान कर दिया। कवि की ये पक्तिया कितनी सार्थक हैं
प्रण करना है सहज कठिन है लेकिन उसे निभाना, सवसे वडी जाच है, व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। अन्तिम मूल्य न दिया अगर तो
और मूल्य देना क्या ? करने लगे मोह प्राणो का तो फिर प्रण लेना क्या?
उस प्रलयकर युद्ध मे भी महाराज चेटक तथा उनके विभिन्न सेनापतियो ने जिस अहिंसा-निष्ठा और विवेक का परिचय दिया, उससे जैन धर्म के सिद्धात, अहिंसा और जैन धर्मावलम्बियो के प्रति जो भ्रात धारणाए पनपी हुई हैं, उनका स्वत निराकरण हो जाता है। महाराज चेटक का व्यक्तित्व एक महान राजनयिक शक्ति के साथ-साथ वर्चस्वी अहिंसक योद्धा के रूप मे अभिव्यक्त होता है । उन्होने यह सिद्ध कर दिया कि
० धर्म व्यक्ति को सामाजिक और नैतिक दायित्वो से विमुख नहीं
करता। ० अहिंसा कायरता नही, अपितु प्राण-विसर्जन की तैयारी मे सतत
जागरूक पौरुष है। ० अहिंसाव्रती अनाक्रमण मे विश्वास रखते हैं, पर वे अनाक्रमण की क्षमता से शून्य नहीं होते । हा, वे अपनी शक्ति का मानवीय हितो
के विरुद्ध प्रयोग नहीं करते । ० उनके सामने युद्ध की अनिवार्य-स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है तो
फिर वे अपने दायित्व से पीछे भी नही हटते हैं ।
महाराज चेटक के गणराज्य मे जैनधर्म का समुचित प्रसार हुआ था । गणराज्य के अठारह सदस्य-नप नौ मल्लवी और नो लिच्छवी भगवान महावीर के निर्वाण के समय वही पौषध किये हुए थे।
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महान् जैन नरेश : मगध सम्राट श्रेणिक
श्रेणिक जैन थे या बौद्ध ?
महावीरकालीन चार राजतत्रीय राज्यो मे मगध साम्राज्य सर्वाधिक शक्ति-सपन्न था। उसके शासक थे सम्राट् श्रेणिक । हिन्दू, बौद्ध और जैनइन तीनो ही भारतीय धर्म-परम्पराओ मे उनका उल्लेख है । सभी संप्रदायो द्वारा उन्हे अपने धर्म का अनुयायी घोपित किया गया है, बौद्ध साहित्य मे तो उनके बौद्ध होने के इतने सवल प्रमाण उपलब्ध हैं कि सहसा उन पर विश्वास हुए बिना नहीं रहता। लेकिन ऐतिहासिक छान-बीन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्राट् श्रेणिक पितृ-परम्परा से ही जैन थे । हो सकता है, अपने निर्वासन-काल मे वे किसी अन्य सम्प्रदाय के सम्पर्क मे गये हो, उससे प्रभावित हुए हो, और जैन-धर्म के प्रति उदासीनता रखने लगे हो । सभवत उसी उखडी हुई आस्था को जैन-धर्म मे पुन प्रतिष्ठित करने के लिए ही महारानी चेलना को भारी प्रयत्न करने पड़े थे। वह सम्प्रदाय "बौद्ध" भी हो सकता है, कोई अन्य भी। लेकिन सिवाय इसके कि वे बौद्ध धर्म से भी सहानुभूति और सौहार्द रखते थे, कोई भी पुष्ट प्रमाण नही मिलता, जिससे उन्हे बौद्ध माना जा सके । हा, यह तो हर जन-प्रिय शासक के लिए अनिवार्य होता है कि वह सब धर्मों का आदर करे और सबको फलने-फूलने का अवसर दे । इसके विपरीत ऐसे अनेक-अनेक प्रमाण तथा उल्लेख जैन प्रथो मे उपलब्ध हैं, जिनके आधार पर उनका जैन होना तो निर्विवाद सिद्ध हो ही जाता है, साथ ही साथ उनके द्वारा दी गई जैन-धर्म की अपूर्व सेवाओ की भी अवगति मिलती है । उनका वैदिक पुराणो मे विधिसार, बौद्ध पिटको मे बिम्बसार
और जैन-साहित्य मे श्रेणिक भभासार के नामो से समुल्लेख हुआ है । उनके पिता का नाम हिंदू पुराणो मे शिशुनाग या शैशुनाक तथा बौद्ध ग्रन्थो और जैन अनुश्रुतियो मे उपश्रेणिक मिलता है ।
श्रेणिक के कुमारकाल में ही उनके पिता ने किसी कारण से कुपित होकर उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया था। निर्वासन-काल मे उन्होने देशाटन कर देश-देशान्तरो के अनुभव प्राप्त किए। इसी काल मे वे सभवत कतिपय जैनेतर साधुओ के सपर्क मे गए। उनके भक्त बने और जन-धर्म से विद्वेष भी करने लगे, किंतु थोडे ही समय मे उन्होने अपने दृष्टिकोण और जीवन की दिशा को मोड लिया था। वे महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के पूर्व ही पुन जैन बन गये थे।
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महान् जैन नरेश मगध सम्राट् श्रेणिक
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पश्चात् चेटक -
अपने ज्येष्ठ भ्राता चिलाती-पुत्र के जैन श्रमण बन जाने के लगभग ई०पू० (५८७-८८९) मे वे मगध - सिंहासन पर आरूढ हुए । सुता चलना श्रेणिक की अग्रमहिषी थी । अनुश्रुतियो के आधार पर चेलना से विवाह के समय श्रेणिक बौद्ध धर्म से प्रभावित थे । इसलिए प्रमुख जैन श्रावक चेटक ने अपनी प्रतिज्ञानुसार अपनी कन्या को एक विधर्मी राजा को देने से इन्कार कर दिया। लेकिन श्रेणिक ने छल - पूर्वक चेलना को प्राप्त कर लिया । चेलना की जैन-धर्म के प्रति अनन्य आस्था थी । जैन बनाने के अनेक प्रयत्न किये । तथा सम्राट् ने उसे रगना चाहा । पर कोई किसी को झुका नही सका । एक दिन सम्राट् महानिग्रंथ अनाथी को ध्यान-लीन देखा । निकट गया। वार्तालाप किया और अन्त मे जैन बन गया । उसके पश्चात श्रेणिक का जैन प्रवचन के साथ
उसने सम्राट् को
वौद्ध धर्म के रंग मे
घनिष्ठ सम्बन्ध जुड गया
जैन धर्म के प्रति पुन आस्था
सभवत भगवान् महावीर के कैवल्य-लाभ से पूर्व ही श्रेणिक की आस्था पुन जैन धर्म मे केन्द्रित हो गई थी ।
जैन आगमों के अनुसार उनके जैन धर्म से प्रभावित होने का निमित्त बना था - जैन मुनि अनाथी का प्रथम सपर्क |
टपक रही थी । वे
श्रमण पर दृष्टि
वन- क्रीडा के लिए गये हुए श्रेणिक ने "मण्डिकुक्षि" नामक रमणीय उद्यान मे एक तरुण जैन श्रमण को देखा । उनका शरीर सुकोमल था । आकृति भव्य थी । मुख से असीम सौम्यता और शाति एक वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा मे बैठे थे । ज्योही उन तरुण टिकी, मगध सम्राट् के मुख से अनायास शब्द मुखरित हुएअहो वष्णो अहोरूव, अहो अज्जस्स सोमया । अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो मोगे असगया ॥ कैसा वर्ण ? कैसा रूप ? इस आर्य की कैसी सौम्यता ? कैसी क्ष्मा ? कैसा त्याग ? कैसी इनकी भोगनिस्पृहता ?
मुनि के आकर्षण से आकृष्ट श्रेणिक उनके निकट गये और आश्चर्यं भरी वाणी से पूछने लगे -
आर्य | आप तो अभी तरुण है, अत अभी तो आपके भोगोपभोग का समय है । यह विराग का नही, अनुराग का समय है । त्याग का नही, भोग का समय है । योग का नही हर विषय के प्रयोग का समय है । मुझे आश्चर्य होता है, इस जवानी मे भी आप क्यो सन्यासी वन
गये हैं । मुनि ने
कहा - "राजन् । में जनाय था ।"
बाइए - आज ने में
राजा - " आप जैसे बुद्धिमान भी अनाव
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जैनधर्मं जीवन और जगत्
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आपका नाथ बनता हू । छोडिये इस कष्ट - साध्य साधना और कठिन तपस्या को । ससार मे प्रवेश करें और जीवन का सही आनन्द लूटें । मुनि - "राजन् ' आप स्वय भी अनाथ हैं । फिर कैसे बनेंगे मेरे नाथ ?" सम्राट् श्रेणिक आश्चर्य मे डूब गये । वे समझ नही रहे थे मुनि की रहस्य-भरी बात । मेरे जैसा अपार विभुता का स्वामी भी यदि अनाथ होगा तो फिर दीन-दुखियो का क्या होगा ?
•
जिज्ञासा के स्वर मे सम्राट् ने अनाथता की परिभाषा और मुनि की अनाथता का कारण पूछा। मुनि ने कहा- 'मैं कौशाम्बी नगरी के एक धनकुबेर पिता का पुत्र था । भरा-पूरा परिवार था । सुख-समृद्धि का सागर लहरा रहा था । एक बार मेरी आखो मे भयकर पीडा और शरीर मे दाहज्वर उत्पन्न हो गया । हर सभव उपचार असफल होता गया । पिता मेरे लिए सब कुछ न्योछावर करने के लिए प्रस्तुत थे । फिर भी मुझे रोग मुक्त नही कर सके । ममतामयी मा, सगे भाई - बहिनें तथा प्राणप्रिया पत्निया भी गोली पलको से मेरी ओर निहारती रही, पर कोई भी उस असह्य पीडा से मुझे नही उबार सका । राजन् | यह मेरी अनाथता थी । इस प्रकार मैंने स्वय को सब तरह से अनाथ पाकर अन्त मे धर्म की शरण ली। मैंने दृढ सकल्प किया- "यदि इस व्याधि से मुक्त हो जाऊ तो अनगार धर्म को स्वीकार करू ।" अगले ही दिन पीडा शात हो गई, और में धर्म की शरण मे आ गया । स्वयं स्वयं का नाथ बन गया ।"
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साधुत्व स्वीकार कर उसका सम्यक् पालन न करने वाले तथाकथित साधको को भी महानिग्रंथ अनाथी ने अनाथ बताया । और प्रतिबोध की भाषा मे श्रेणिक से कहा - मेधाविन् | ज्ञान-गुणोपपेत इस सुभाषित अनुशासन को सुनकर और कुशीलजनो के मार्ग का सर्वथा परित्याग कर तुम महानिर्ग्रथो (तीर्थंकरों) के पथ का अनुसरण करो । ऐमा कर तुम भी स्वय के नाथ वन जाओगे, अपने स्वामी बन जाओगे |
यह सुनकर मगधराज श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । अजलि-बद्ध होकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन्होने कहा - " महामुने । आपने मुझे अनायता का सम्यग् बोध दिया । आपका जन्म सफल है । आप ही सही अर्थ मे सनाथ और सवधु हैं । क्योकि आप सर्वोत्तम जिनमार्ग मे अवस्थित हैं । मैंने आपको विषय-भोगो के लिए निमंत्रित किया । आपके ध्यान मे विघ्न उपस्थित किया । इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हू । मै आपका अनुशासन स्वीकार करता ह् ।" उसके अनन्तर मगध सम्राट् श्रेणिक महानिग्रंथ अनाथी को प्रणाम कर संवन्धु और सपरिजन धर्म मे अनुरक्त हुए ।
अनाथी निग्रंथ से धर्म-बोध मिलने के पश्चात् जैन-धर्मं के साथ सम्राट् श्रेणिक की घनिष्टता उत्तरोत्तर बढती गई । भगवान् महावीर के
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महान् जैन नरेश मगध सम्राट् श्रेणिक
१५९ कैवल्य-लाभ के पश्चात् उनके प्रति श्रेणिक की अनन्य भक्ति और प्रगाढ श्रद्धा के अनेक उदाहरण जैन आगम साहित्य मे उल्लिखित हैं । जिज्ञासु श्रावक
श्रेणिक की जैन धर्म के प्रति गहरी अनुरक्ति ने जन-साधारण को प्रभावित किया। भक्ति ने भगवान् को रिझाया। राजगह की उर्वरा धरती से उठने वाली अध्यात्म क्राति की सभावनाओ के कारण ही श्रेणिक के समय भगवान महावीर ने राजगह मे वर्षावास विताये थे।
सम्राट् थेणिक उस समय प्राय नियमित रूप से समवसरण मे उपस्थित होते । व्याख्यान श्रवण करते समय उनक मानस मे जो भी जिज्ञासाए उभरती, भगवान के सामन प्रस्तुत करते और उनका समुचित समाधान प्राप्त कर अत्यात आल्हादित होते ।
___ भगवान् महावीर और श्रेणिक के अनेक सस्मरण आज भी जैनवाडमय मे गुम्फित हैं। उनमे श्रेणिक का जिज्ञासु रूप प्रखरता से अभिव्यक्त हुआ है । एक जैन सम्प्रदाय की तो यहा तक मान्यता है कि राजा श्रेणिक ने भगवान् महावीर से ६० हजार प्रश्न पूछे और भगवान् ने उनका समाधान किया। भावी तीर्थकर
एक वार सम्राट् श्रेणिक महावीर के समवसरण मे प्रवचन मुन रहे थे । एक कुष्ठी उनकी बगल में बैठा था। उसने महावीर को देखकर कहा-"मर रे ।" श्रेणिक से कहा-"जी रे।" अभयकुमार से कहा"चाहे जी चाहे मर ।" कालशौकरिक कसाई भी उधर से होकर गुजरा, कुष्ठी ने उसकी ओर सकेत कर कहा-"न मर, न जी।" यह असम्बद्ध प्रलाप सुनकर श्रेणिक के संनिको ने उसे पकडना चाहा । पर वह देखते-देखते ही अन्तरिक्ष मे विलीन हो गया । णिक ने इस देव माया के बारे में जानने की उत्सुकता व्यक्त की । भगवान् महावीर ने कहा-घेणकि यह दुष्ठी के रूप में देवराज इन्द्र या। इसने जो कुछ कहा- यथार्थ कहा है। जैने मुके मरने के लिए कहा-वह इसलिए कि मेरे आगे मोक्ष है। तुझे जीने पे लिए कहा – क्योकि तुम्हारे लिए आगे नरक है। अभयकुमार का यह जीवन पविय है । वह परम धार्मिक है और उसके लिए आगे भी सद्गति है, स्वयं है इन दृष्टि से उसका मरना और जीना दोनो ही शुभ है। कालगोकरिक का यह जीवन नी बीभत्स है और जगला भी बीभत्ल होगा। वह जागे नरक मे जाएगा। इसलिए उससे कहा "न जी, न मर।" अर्थात् तेरा जीना और मरना दोनो ही अशुभ हैं। अपने नरक-गमन की बात सुनकर घेनिक लन्ध रह गये। उन्होने कहा-प्रभो ! आपका भक्त होकर भी -
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जैनधर्म : जीवन और जगत्
जाऊगा ? क्या आपकी पर्यपासना का यही फल मिलेगा?
भगवान् ने कहा-राजन् । ऐसा नहीं है । नरक का आयुष्य तो तूने मृगया-गृद्धि के कारण पहले ही बाध रखा है। मेरी पर्युपासना का फल तो यह है कि तुम नरक से निकल कर मेरे हो समान तीर्थकर वनोग । जैसे मैं इस युग का अन्तिम तीर्थकर हूँ, वैसे ही तू विकासशील युग का प्रथम तीर्थकर होगा।
यह मगल सवाद सुनकर श्रेणिक का मन उल्लास से भर गया । उसने प्रार्थना की-"भगवन । ऐसा भी कोई उपाय है जिससे मेरी नरकयात्रा टल सके ?'
भगवान् ने कहा-"श्रेणिक ? यदि कपिल नाम की ब्राह्मणी दान दे, कालशौकरिक कसाई प्रतिदिन की जाने वाली ५०० भैसो की हिंसा छोड दे
और तुम पूणिया श्रावक की सामायिक-साधना खरीद सको तो तुम्हारी नरक-यात्रा टल सकती है।"
श्रेणिक के मन मे इतनी छटपटाहट लगी हुई थी अपने उद्धार के लिए कि वह हर सभव प्रयत्न करने को तैयार था। लेकिन श्रेणिक की बात न कपिला ने मानी, न कालशौकरिक ने। राजा ने अपनी सत्ता के बल पर ऐसा करवाना चाहा, पर सफलता नही मिली। कपिला ने राजाज्ञा से दान दिया, पर बिना मन के । इसलिए उसने कहा-यह दान मैं नहीं दे रही हू, राजा ही दे रहे हैं । कालशौकरिक को कुए मे डाल दिया गया, पर वह वहा भी मिट्टी के भैसे बनाकर मारने लगा।
श्रेणिक अब भी निराश नही था । वह स्वय भगवान् के परम उपासक समता के विशिष्ट साधक "पूणिया" श्रावक के पास गया और कहामहाश्रावक | मुझे तुम्हारी एक सामायिक की आवश्यकता है, मात्र एक सामायिक की। महाप्रभु ने तुम्हारी सामायिक-साधना की बहुत सराहना की है । इसमे इतनी शक्ति है कि उसमे मेरी नरक-यात्रा टल जायेगी। श्रावक प्रवर !
___ अनुग्रह करो, अपनी एक सामायिक मुझे दो और उसका जितना मूल्य हो मेरे राज्य-कोष से अदा करो। श्रावक ने मन ही मन मुस्कराते हुए कहा-नरपुगव । जिन भगवान् ने आपको सामायिक खरीदने का निर्देश दिया है, उसका मूल्य भी वे ही बतायेंगे। जो मूल्य होगा, वह आप पूछ आइये, मैं आपको सामायिक दे दगा। मैंने आज तक यह धधा किया नही
सम्राट् हर्ष से उछलता हुआ प्रभु के चरणो मे पहुचा और बोला
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महान् जैन नरेश : मगध सम्राट्
श्रेणिक
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भगवन् । पूर्णिया श्रावक अपनी सामायिक देने को तैयार है। उसने कहा है कि सामायिक का जो मूल्य भगवान् बतायेंगे उतने में ही हम सौदा कर लेंगे | प्रभो । वताइए सामायिक का मूल्य क्या होना चाहिये ।
भगवान् ने कहा--"श्रेणिक | पूणिया श्रावक तो सामायिक देने के लिए तैयार हो गया है लेकिन उसे खरीद पाना तेरे लिए कठिन है ।" श्रेणिक चौक पडा । "भगवन् । मगध सम्राट के लिए भी कोई सौदा कठिन हो सकता है ? प्रभो । जिस सामायिक के द्वारा मेरी नरक-यात्रा और घोर यातनाए टल सकती हैं, उसके लिए में मेरे सपूर्ण कोप को भी लुटा सकता हू ।”
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श्रेणिक | तुम अपने कोप की बात कर रहे हो, लेकिन उसकी सामायिक के सामने कोप तो क्या तुम्हारा सपूर्ण साम्राज्य भी तुच्छ और नगण्य है । तुम यदि धरती से चन्द्रलोक तक भी स्वर्ण और मणिमुक्ताओ का ढेर लगा दो, तो भी सामायिक का मूल्य तो क्या, उसकी दलाली का मूल्य भी पूरा नही हो सकता |
यह सुनकर श्रेणिक ठगाठगा सा रह गया । उसकी आशाओ पर तुषारापात हो गया । भगवान् ने प्रतिबोध की भाषा मे कहा - भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा आध्यात्मिक आनन्द कभी खरीदा नहीं जा सकता । साधना के द्वारा ही उस परम तत्त्व की अनुभूति हो सकती है । दूसरी बात, साधना स्वयं के द्वारा ही होती है, दूसरे की अच्छी और बुरी प्रवृत्ति दूसरे के हित और अहित का प्रत्यक्ष निमित्त नही बन सकती ।
श्रेणिक । सघन कर्म के विपाक स्वरूप यह नरक यात्रा अवश्यभाविनी है, उसे भोगना ही होगा । किन्तु तुम निराश मत बनो । आगामी चौबीसी मे तुम प्रथम तीर्थंकर बनोगे । वहा तुम्हारे और मेरे बीच की खाई ममान हो जाएगी ।
परम धर्मानुरागी
सम्राट् श्रेणिक अपनी शक्ति के अनुसार धर्म-साधना करते हो थे । साथ-साथ दूसरो को भी इस क्षेत्र मे प्रेरित करते रहते थे । उनका ताधनिक वात्सल्य अनुकरणीय था । मुमुक्षु और विरक्त व्यक्तियों को साधना के क्षेत्र मे उतने और जागेढने के लिए वे अपनी जार से हर मभव सहयोग देते थे ।
एक वार श्रेणिक ने अपने राज्य, परिवार, सामन्तों तथा मंत्रियों बीच घोषणा करवाई कि कोई भी व्यक्ति भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो मैं उसे रोकूंगा नहीं ।
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आवेपत्य पर उप .. ऐपयोजक भिक्षु चेतना परिपद,गगाशहर जैनधर्म . जीवन और जगत
एक बार उन्होने पूरे नगर मे उद्घोषणा करवायी कि "कोई भी व्यक्ति भगवान् महावीर के शासन मे दीक्षित होना चाहे, वह खुशी से ऐसा कर सकता है। उसके दीक्षा-महोत्सव की पूरी व्यवस्था मैं करूगा। यदि किसी के भरण-पोषण करने योग्य कुटम्ब परिवार न हो तो उसके भरणपोषण की चिंता और व्यवस्था स्वय मैं करूगा।"
राजा श्रेणिक की इस घोषणा का बहुत ही सुन्दर प्रभाव पड़ा। उनके अनेक राजकुमार, राजरानिया तथा अन्य मुमुक्षु नागरिक सोत्साह सयम-पथ पर अग्रसर हुए।
उपरोक्त दीक्षा-समारोहो मे सम्राट् स्वय उपस्थित रहते थे। उन मगलमय दृश्यो को देखकर वे हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव करते थे।
इससे पूर्व भी श्रेणिक अपने मेधावी, होनहार प्रतिभा सम्पन्न एव प्रशासनिक व्यवस्थाओ मे अनन्य सहयोगी राजकुमार अभय, (जो उनका महामत्री भी था) को तथा मेघकुमार, नन्दीसेन आदि अनेक राजकुमारो को धर्मसघ मे समर्पित कर चुके थे ।
___सम्राट् श्रेणिक की जैन शासन के प्रति आतरिक अभिरुचि, जैन सिद्धातो के प्रति अटूट आस्था तथा भगवान् महावीर के प्रति अपूर्व भक्ति सचमुच ही जैन-धर्म की प्रभावना का प्रबल निमित्त बनी थी।
जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार मे सम्राट् की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही । राजा की इस धर्मानुरागिता से उनकी प्रजा प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकती थी।
यही कारण था श्रेणिक के युग मे राजगृह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था । उनके प्रभाव से जहा राजपरिवार जैन धर्म से अनुरक्त हुआ, उसके वरिष्ठ सदस्य महावीर के सदस्य बने, वहा धन्ना और शालिभद्र जैसे धन-कुवेर और सम्मान्य श्रेष्ठी-पुत्रो ने भी उनके सघ की आतरिक सदस्यता स्वीकार की। रोहिणेय चोर की जीवन-दिशा बदली तो एक लकडहारे का जीवन भी दिव्य आलोक से जगमगा उठा।
श्रेणिक एक महाप्रतापी और विजयी सम्राट थे। उन्होने अपनी प्रशासनिक कुशलता, राजनीतिज्ञता, दूरदर्शिता और पुरुषार्थ-परायणता से अपने साम्राज्य का विस्तार किया, उसे शक्तिशाली बनाया ।
तत्कालीन शक्ति-सम्पन्न राजाओ एव राज्यो के साथ उन्होने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। यद्यपि अवन्ती-नरेश चण्डप्रद्योत उनका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी या । लेकिन वह काफी दूर था। मगध की बढती हुई शक्ति को रोकने का साहस वह नही कर सकता था। इसलिए श्रेणिक को अपनी
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महान् जैन नरेश . मगध सम्राट् श्रेणिक
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शक्ति जोर प्रभाव को बढ़ाने का सुन्दर अवसर प्राप्त हो गया और उस समय उम अवसर का लाभ उन्होने अत्यन्त विलक्षणता से उठाया । वे अपने देश की शाति-सुव्यवस्था और समृद्धि के लिए बहुत जागरूक थे ।
अनेक विदेशी राज्यो के साथ भी उन्होने मैत्री सम्वन्ध स्थापित किए और भगवान् महावीर का मंगल सदेश भी वहा तक पहुचाया । ईरानी सम्राट कुरुप ( ई० पू० ५५६-५३१ ) के साथ तो उनके मंत्री - सम्वन्ध काफी प्रगाढ थे । उसके साथ राजनैतिक आदान-प्रदान भी हुआ करता था ।
सम्राट कुरूप का एक पुत्र आर्द्रकुमार राजकुमार अभय का मिश्र था । अभय ने जैन मुनियो या श्रावको के काम मे आने वाले कतिपय धर्मउपकरण आर्द्रकुमार को प्रेमोपहार मे भेजे, जिससे प्रतिबुद्ध होकर वह राजगृह आया और भगवान् महावीर का शिष्य वन गया। आर्द्रकुमार की प्रज्ञा निर्मल थी । वह तार्किक और सिद्धातवादी भी था अन्यतीर्थियो के साथ उसके निर्भय चर्चा प्रसग जैनागमो में काफी मात्रा मे उपलब्ध हैं ।
सम्राट् श्रेणिक ने विभिन्न व्यवसायो व्यापारो और उद्योगो को विभिन्न श्रेणियो या निगमो मे संगठित किया । कहते हैं इसी कारण से उनका नाम श्रेणिक प्रचलित हुआ । उन्होंने कई ऐसी सस्थाओं की प्रतिष्ठा की जो जनतन्त्रात्मक पद्धति से अपनी प्रवृत्तियो को पूर्ण स्वतन्त्रता से चलाती थी । राज्य द्वारा भी मगध साम्राज्य के व्यवसाय मोर उद्योग - घधो को भारी प्रोत्साहन मिला था । वे श्रेणिया ही आगे चलकर विविध जातियो मे परिणत हुई - ऐसा अनेक विद्वानो का अभिमत है ।
सम्राट् श्रेणिक एक कुशल शासक थे । जैन - साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि उनके राज्य मे किसी प्रकार की अनीति और भय नही था । प्रजा शान्त, सुखी और धार्मिक थी। राजा श्रेणिक जनपदो के प्रतिपालक और प्रजा - वत्सल थे । वे दयाशील, मर्यादाशील, दानवीर, और महान् निर्माता थे । उन्होने अपनी राजधानी राजगृह का नव निर्माण किया
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श्रेणिक ने ५२ वर्ष पर्यन्त मगध का शासन किया। उनके नेतृत्व मे मगध ने सर्वांगीण प्रगति की । उनके शासन काल मे जैन धर्म का अभूतपूर्व उत्कर्ष हुआ । अन्त मे श्रेणिक ने चेलना से उत्पन्न अपने पुत्र कूणिक (भजातशत्रु) को राज-पाट सौंप कर एकात मे धर्म- ध्यान पूर्वक शेष जीवन विताने का निश्चय किया ।
बौद्ध भिक्षु देवदत्त के बहकाने पर कूणिक ने अपने पिता को बन्दी बना लिया और स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया ।
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जैनधर्म जीवन और जगत्
फिर अपनी मा द्वारा अपने प्रति पिता के प्रगाढ स्नेह-की घटना सुनकर उसका मन ग्लानि और पश्चात्ताप से भर गया । वह तत्काल पिता को बन्धन-मुक्त करने और क्षमा मागने के लिए दौडा। उसके हाथ मे हथौडा था । श्रेणिक ने सोचा यह मुझे मारने के लिए आ रहा है। उन्होने तत्काल तालपुट विश खाकर आत्महत्या कर ली। कणिक जब निकट गया तो उनके प्राण पखेरू उड चुके थे।
___ इस प्रकार ई० पू० ५३५ मे महान् प्रतापी और धर्मात्मा नरेश एव भारत के प्रथम ऐतिहासिक सम्राट का दुखद प्राणात हुआ।
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जैनधर्म . जीवन और जगत्
उसके दृष्टिकोण और चरित्र मे विकार उत्पन्न करते हैं। वे आत्मा की शक्ति को स्खलित करते हैं। कुछ कर्म-परमाण शरीर- मणि और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं । इस प्रकार आश्व बन्ध का निर्माण करता है। बन्ध पुण्य-कर्म और पाप-कर्म द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है । कर्मप्रभावित आत्मा ही जन्म-मरण की परम्परा को आगे बढाती है । जन्म-मरण की यात्रा ही ससार है। उसका हेतु है---आश्रव । आधव कर्माकर्षणहेतुरात्मपरिणाम माधवः ।
-जैन सिद्धांत दीपिका ४/१६ कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं । आश्रव चेतना के छेद हैं। उनके द्वारा विजातीय तत्त्व-कर्म रजे निरन्तर आत्मा मे प्रवेश करती रहती हैं । आश्रव को रूपक की भाषा मे समझाया गया है। जैसे नौका मे छेद होते हैं, तालाब के नाला होता है, मकान के द्वार होते हैं, वैसे ही आत्मा के आश्रव होते हैं । आश्रव कर्म ग्रहण करने वाले आत्मपरिणाम हैं । आत्मा की अवस्था है, इसीलिए जीव है ।
आश्रव पाच हैं -- १ मिथ्यात्व आश्रव-विपरित श्रद्धा, तत्त्व के प्रति अरुचि । २. अविरित आश्रव-पौद्गलिक सुखो के प्रति अव्यक्त लालसा । ३ प्रमाद आश्रव-धर्माचरण के प्रति अनुत्साह, आत्म-विस्मृति । ४ कषाय आश्रव-आत्मा की आतरिक उत्तप्ति ।
५ योग आश्रव-मन, वचन और काय की चचलता, प्रवृत्ति । मिथ्यात्व आश्रव
अतत्त्व मे तत्त्व का सज्ञान, अमोक्ष मे मोक्ष का सज्ञान तथा अधर्म में धर्म का सज्ञान मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व से प्राणी की चेतना मुढ होती है । उससे दृष्टिकोण मिथ्या होता है ।
मिथ्यात्वी विपरीत मान्यता से दीर्घ ससारी हो जाता है । उसे प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वह जड जगत् को अपने आकर्षण का केन्द्र मानता है । मिथ्यात्व की तुलना गीता के तमोगुण से होती है । वहा कहा गया है कि वह बुद्धि ताममी होती है, जो तम से व्याप्त होकर अधर्म को धर्म समझती है और सत्य को विपरीत मानती है ।
___ बुद्ध की भाषा मे वह दृष्टाश्रव है, जो यथार्थ मे अयथार्थ का दर्शन करता है, तथा अयथार्थ मे यथार्थ का । पतजलि इसे "अविद्या" कहते हैं। मिथ्यात्व की विद्यमानता मे न तो तत्त्वो के प्रति श्रद्धा जागृत होती है और न सत्य के प्रति भाकर्षण । यह मिथ्यात्व मोह के उदय मे सतत मूढ़ रहता
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________________ बन्धन और उसके हेतु 69 है। मूढ व्यक्ति धर्म को सही रूप में नहीं जान सकता। अविरति माधव पदायों के प्रति व्यक्त या अव्यक्त यामक्ति या नातरिक लालसा का नाम विरति है / सम्यक दर्शन भाव मे पदार्थों के प्रति होने वाला आनरिक नारर्पण नहीं छूटता। सत्य की शोघ मे वाहर का विकर्षण या पिरा का होना अत्यन्त अपेक्षित है / अविरति के कारण आत्मा के प्रतिक्षण कर्मों का बन्धन होता रहता है / प्रमाद आथव प्रमाद का अयं हे आत्म-विकास के प्रति अनुत्माह। प्रमाद व्यक्ति को जागृत नहीं होने देता। जात्म-विस्मृति मे प्रमाद की जहभूमिका रहती है / शराब, नीद, व्यर्थ की बातें, इन्द्रिय-विषय और पाय-- ये सब प्रमाद पाप त है। मनुष्य मामान्यत इन्ही वृत्तियो की धुरी पर धूमता रहता है / ये पत्तिया उमे भीतर झा ने नहीं देती। प्रमाद जातरिफ मूर्छा है, स्वय को पिस्मृति है और है अस्ति व-बोध के प्रति अनुत्लाह / प्रमाद का पनप बोटे बिना अध्यात्म की रश्मिया चंतन्य-मन्दिर में प्रवेश नहीं पा मरती / कपाय आश्रय जो पत्ति नात्मा को उत्तप्त करती है उसे “कपाय" कहा जाता है। उपाय प्रमाद का ही एक जगहे, फिर नी आघवो मे उसका स्वतन उल्लेय है। इस कारण यह है कि जात्म-पिकात की प्रमिक अवस्थामो में प्रमाद फाइट नाम पर नी पाय प्रकम्पन चालू रहते हैं। उसके मूदमागो के प्रति नत हुए विना मुक्ति सनप नहीं। पपाय के मुख्य अग हैं -प्रोध, मान, माया और लोग / र जात्मा क गुर स्वरूप की उपलब्धि मे वाधर योग आधव जीमा पर और माया सी प्रवृत्ति को योग रहत हैं। दारे गदा में पार गल च चलना / 'मारे व्यापार / वन पर को पर पटारे, नर तरिम जमन - प्रतिधिम्म माय है। घटनाए पर एन नीतर 50ii है, सहराउन विस्तारमा नियक्ति मार लानी मियाल, अधिराम, प्रमाद और उपाय र चार सूक्ष्म बसत मानर माना 7 II न सा होता है। 217 स्थल, पति / पन बुद्धि / वानी ना तो है।