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जैन धर्म : एक परिचय
धर्म आत्मा में जाने का प्रवेश-द्वार है। आत्मा का स्पर्श तब होता है, जब वीतराग-चेतना जागती है । राग-चेतना और द्वेष-चेतना की समाप्ति का क्षण ही वीतराग-चेतना के प्रस्फुटन का क्षण है। जैन-धर्म की सारी साधना वीतराग की परिक्रमा है।
"जैन" शब्द का मूल "जिन" है। "जिन" का अर्थ है जीतने वाला या ज्ञानी । अत अपने आपको जीतने वालो का धर्म जैन धर्म है। अपने आपको जानने वालो का धर्म जैन-धर्म है। जैन-धर्म के प्रणेता और प्रारम्भ
जैन-धर्म के प्रणेता जिन कहलाते हैं। जिन होते हैं—आत्म-विजेता, राग-विजेता, दोष-विजेता और मोह-विजेता । जैन परम्परा मे "जिन" शब्द की अतिरिक्त प्रतिष्ठा है । हो सकता है प्राचीनकाल मे यह "चिन" शब्द से जाना जाता रहा हो । प्राकृत भाषा मे "च" का "ज" हो जाता है। इसलिए यहा भी सभावना की जाती है कि "जिन" का मूल रूप "चिन" है। इस दृष्टि से "जिन" शब्द को दो अर्थों का सवाहक माना जा सकता है । जिन-ज्ञानी और जिन-विजेता। आवश्यक मे ज्ञाता और ज्ञापक रूप मेअहंतो की स्तुति की गई है।
जिन का एक अर्थ है-प्रत्यक्षज्ञानी, मतीन्द्रियज्ञानी । वे तीन प्रकार के होते हैं-१ अवधि ज्ञान जिन, २ मन पर्यवज्ञान जिन और ३ केवलज्ञान जिन। इससे भी जिन का अर्थ ज्ञाता ही सिद्ध होता है।
जैन-धर्म के प्रणेता सर्वज्ञ और वीतराग होते हैं। वे प्रकाश, शक्ति और आनन्द के अक्षय स्रोत होते हैं। उनकी आतरिक शक्तिया--अर्हताए समग्रता से उद्भाषित हो जाती हैं, इसलिए वे अर्हत कहलाते हैं।
__ चैतन्य की अखड लौ को मावृत्त करने वाले तत्त्व हैं-मूर्छा और अज्ञान । जिसकी आतरिक मूर्छा का वलय टूट जाता है, उसके ज्ञान का आवरण भी क्षीण हो जाता है । ज्ञान की अखड ज्योति प्रज्ज्वलित होते ही व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। वह सत्य को उसकी परिपूर्णता मे १. आवश्यकसूत्र, सक्कत्युई "जिणाणजावयाण ।" २ ठाण ३१५१२ तओ जिणा पण्णत्ता, त जहा-ओहिणाणजिणे,
मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे ।