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________________ रत्नत्रयी जैन साधना का आधार १२२ "सपिक्खए अप्पगमप्पएण ।" आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। महात्मा बुद्ध ने कहा-"अप्पदीवोभव"-अपने दीप स्वय बनो। सुकरात ने कहा-'नो दी सेल्फ'-अपने आप को जानो । निष्कर्ष की भाषा मे स्वय फा बोध-"मैं कौन हूँ"- यह ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। जिसे स्वय का यथार्थ वोध हो जाता है, वह वस्तु जगत् को भी सही-सही जानने-समझने लगता है । सम्यक् ज्ञान का फलित है-पदार्थ के प्रति भी यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण । स्वय के बोध के अभाव मे जागतिक ज्ञान भी मिथ्या है, व्यर्थ है। "जय जान्यो निजरूप को, तब सब जान्यो लोक । नहीं जान्यो निजरूप को, तब सब जान्पो फोक ।" ज्ञान जड और चेतन का विभाजक तत्त्व है । प्रत्येक प्राणी में ज्ञान की मात्रा का न्यूनतम विकास अवश्य होता है । इसके विना जड और चेतन मे कोई अन्तर नही रहता । ज्ञान की न्यूनाधिकता क्षयोपशम सापेक्ष है । ज्ञान और दर्शन के आवारक कर्मों के सम्पूर्ण विलय से अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन की अखड लो प्रज्वलित हो उठती है । सम्यक्-चारित्र "महावतादीनामाचरण सम्यक् चारित्रम् ।" महावत आदि का आचरण करना सम्यक् चारित्र है । नाणस्स सारो आयारो-ज्ञान का सार आचार है । चारित्र और आचार-इन दोनो का मर्थ एक ही है । सम्यक् चारित्र का एक अर्थ है-पवित्र आचरण । दूसरा अर्थ है -चय रित्ती करण चारियम्-~सचित सस्वारो के रेचन का नाम चारित्र है। निश्चय नय के आधार पर चारित्र की परिभाषा है-"स्थितिर व चारिणम्"-- आत्मा मे स्थित अवस्थित होना चारित्र है। महावत, अणव्रत, असत्प्रवृत्ति का निरोध - ये सब चारित्र के ही अग हैं । ज्ञान की आराधना से अज्ञान क्षीण होता है । दर्शन की आराधना से आस्था का निर्माण होता है, जन्म-परम्परा का अत होता है, मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है । चारिप वी जागधना से स्थिरता उपलब्ध होती है, कर्मों का निरोध होता है स्वनियन्त्रण की क्षमता जागती है। इसकी परिपूर्ण साधना से परमात्मतन्य प्रकट होता है। इस प्रयी वी गराधना ही आत्मा की आराधना है । यही धर्म है। जितने भी अहंत, वुद्ध जोर परमप्रज्ञा-प्राप्त माधक हुए है, उन्होंने धर्म-चिन्न मे किसी न चिनी रूप से इस प्रयो को स्वीकृति दी है। हिन्दू धर्म मे इसे सान योग, भक्ति योग और कर्म योग के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है । इन्ही तत्त्वो को इस्ल म धर्म मे "मारफ्त, तरीकत और शरीअत" कहा गया है।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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