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जैन-दर्शन में पुद्गल
जैन-दर्शन अनेकातवादी दर्शन है । वह न एकेश्वरवादी है और न केवल प्रकृतिवादी । वह जड और चेतन की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है। उसके अभिमत से जीव और अजीव दोनो वास्तविक तत्त्व हैं । विश्व व्यवस्था के आधारभूत छ द्रव्यो मे जीव के अतिरिक्त पाच द्रव्य अचेतन हैं। उनमे एक है पुद्गलास्तिकाय । यह स्वतत्र द्रव्य है । इसका अस्तित्व कालिक है । यह सावयवी है, मूर्त है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्राणी-जगत् के सपर्क में आने वाली दृश्य, श्रव्य प्रत्येक वस्तु पुद्गल है । विज्ञान जिसके लिए "मेटर" शब्द का प्रयोग करता है, जैनेतर दर्शन जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, उसे जैन-दर्शन पुद्गल कहता है।
___ साख्य दर्शन में जो स्थान प्रकृति का है, वही स्थान जैन-दर्शन मे पुदगल का है । जीव के ससार-परिभ्रमण और सुख-दुख के भोग का कार्य पुदगल-सापेक्ष है । साख्य-दर्शन की प्रकृति की भाति पुद्गल का विकास बुद्धि फे स्प मे नही होता । वुद्धि चेतना का गुण है । पुद्गल जड है।
पुदगल जैन साहित्य का पारिभापिक शब्द है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्घ है-- 'पूरण-गलन-धर्मत्वात् पुद्गल ।"
पुद्गल पूरण-गलन-धर्मा होता है । "पुद्" का अर्थ होता है सश्लेष, मिलना और "गल" का अर्थ है विश्लेष, अर्थात् जो द्रव्य प्रतिक्षण मिलतागलता रहे, वनता-बिगडता रहे, टूटता-जुडता रहे, वह पुद्गल है । छ द्रव्यों मे पुदगल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो खडित भी होता है और आपस मे सबद्ध भी होता है।
पुद्गल की व्यावहारिक पहचान है-जो छुआ जा सके, चखा जा सके, सघा जा सके और देखा जा सके वह पुदगल है । इसकी सैद्धातिक परिभाषा होती है -"स्पर्श-रस-गध-वर्णवान-पुद्गल" अर्थात् जिस द्रव्य मे स्पर्श, रस, गघ और वण निश्चित रूप में पाए जाए, वह पुद्गल है ।
स्पर्श-स्पर्श आठ प्रकार का होता है - स्निग्ध, रुक्ष, मृदु, कठोर, शीत, उष्ण, लघु और गुरु । स्थूल पुद्गल-समूह (स्कन्ध) मे नाठो ही स्पर्श होते हैं । सूक्ष्म पुद्गल समूह में चार स्पर्श होते हैं - स्निग्ध-रुक्ष तथा शीत सौर उष्ण ।