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त्रिपदी अस्तित्व के तीन मायाम
सत्तावाद । जैन-दर्शन दोनो का समन्वय कर "परिणामी-नित्यवाद" की स्थापना करता है।
उसके अनुसार सत् वह है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण से युक्त
सत् उसे कहते हैं, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुण से युक्त हो। यह है जैन-दर्शन का परिणामी नित्यत्ववाद । इसका तात्पर्य है-वस्तु अपने अस्तित्व रूप मे सदा कायम रहती है। कभी भी उसका अस्तित्व समाप्त नही होता, किंतु उत्पाद और विनाश के रूप मे उसका रूपातरण होता रहता है। इसे जैन-दर्शन पर्याय-परिवर्तन कहता है । जैसे दूध से दही बनता है। इस प्रक्रिया मे दूध नष्ट हो जाता है, दही अस्तित्व मे आ जाता है, यह पर्याय है । पर दूध और दही-ये दोनो गोरस हैं । गोरसत्व मे कोई अतर नहीं है, यह अन्वयी धर्म ध्रौव्य है।' लोक शाश्वत भी अशाश्वत भी
गौतम ने पूछा-भते । लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? भगवान् ने कहा-लोक द्रव्य से शाश्वत है और पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है, परिवर्तनशील है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ के शब्दों मे
परिणामिनि विश्वेऽस्मिन् अनादि निधने ध्रुवम् । सर्वे विपरिवर्तन्ते, चेतना अप्यचेतना ॥
-सबोघि १५/३१ यह विश्व अनादि-निधन है, ध्रुव है, फिर भी परिणामी है। इसमे चेतन और अचेतन सभी पदार्थ विविध रूपो में परिवर्तित होते रहते हैं। "उत्पादव्ययधर्माणो, भावा ध्रौव्यान्विता अपि ।" प्रत्येक पदार्थ ध्रौव्य-- युक्त होते हुए भी उत्पाद और व्यय-धर्मा है।
जैसे विश्व ध्रव है, वैसे ही द्रव्य की दृष्टि से जड चेतन प्रत्येक पदार्थ ध्रुव है, नियत है । ये ससार मे जितने हैं, उतने ही रहेगे । ससार मे न एक जीव घटता है, न एक जीव बढ़ता है, भौतिक जगत् मे न एक अणु कम होता है, न एक अणु अधिक होता है और न कभी जीव अजीव वनता है।
नक्षीयन्ते न वर्धन्ते सति जीवा अवस्थिताः । मजीवो जीवता नंति न जीवो यात्यजीवताम् ।।
~सबोधि १२/६० १ जैन-दर्शन मनन और मीमासा, पृ० १८६ । २ श्री भिक्षु न्याय कणिका-उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक सत् । ३ उत्पन्नदधि भावेन, नष्ट दुग्धतया पय ।
गोरसत्वात् स्थिर जानन् स्याद्वादद्विड् जनोऽपि ।।