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जैनधर्म . जीवन और जगत्
उसके दृष्टिकोण और चरित्र मे विकार उत्पन्न करते हैं। वे आत्मा की शक्ति को स्खलित करते हैं। कुछ कर्म-परमाण शरीर- मणि और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं । इस प्रकार आश्व बन्ध का निर्माण करता है। बन्ध पुण्य-कर्म और पाप-कर्म द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है । कर्मप्रभावित आत्मा ही जन्म-मरण की परम्परा को आगे बढाती है । जन्म-मरण की यात्रा ही ससार है। उसका हेतु है---आश्रव । आधव कर्माकर्षणहेतुरात्मपरिणाम माधवः ।
-जैन सिद्धांत दीपिका ४/१६ कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं । आश्रव चेतना के छेद हैं। उनके द्वारा विजातीय तत्त्व-कर्म रजे निरन्तर आत्मा मे प्रवेश करती रहती हैं । आश्रव को रूपक की भाषा मे समझाया गया है। जैसे नौका मे छेद होते हैं, तालाब के नाला होता है, मकान के द्वार होते हैं, वैसे ही आत्मा के आश्रव होते हैं । आश्रव कर्म ग्रहण करने वाले आत्मपरिणाम हैं । आत्मा की अवस्था है, इसीलिए जीव है ।
आश्रव पाच हैं -- १ मिथ्यात्व आश्रव-विपरित श्रद्धा, तत्त्व के प्रति अरुचि । २. अविरित आश्रव-पौद्गलिक सुखो के प्रति अव्यक्त लालसा । ३ प्रमाद आश्रव-धर्माचरण के प्रति अनुत्साह, आत्म-विस्मृति । ४ कषाय आश्रव-आत्मा की आतरिक उत्तप्ति ।
५ योग आश्रव-मन, वचन और काय की चचलता, प्रवृत्ति । मिथ्यात्व आश्रव
अतत्त्व मे तत्त्व का सज्ञान, अमोक्ष मे मोक्ष का सज्ञान तथा अधर्म में धर्म का सज्ञान मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व से प्राणी की चेतना मुढ होती है । उससे दृष्टिकोण मिथ्या होता है ।
मिथ्यात्वी विपरीत मान्यता से दीर्घ ससारी हो जाता है । उसे प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वह जड जगत् को अपने आकर्षण का केन्द्र मानता है । मिथ्यात्व की तुलना गीता के तमोगुण से होती है । वहा कहा गया है कि वह बुद्धि ताममी होती है, जो तम से व्याप्त होकर अधर्म को धर्म समझती है और सत्य को विपरीत मानती है ।
___ बुद्ध की भाषा मे वह दृष्टाश्रव है, जो यथार्थ मे अयथार्थ का दर्शन करता है, तथा अयथार्थ मे यथार्थ का । पतजलि इसे "अविद्या" कहते हैं। मिथ्यात्व की विद्यमानता मे न तो तत्त्वो के प्रति श्रद्धा जागृत होती है और न सत्य के प्रति भाकर्षण । यह मिथ्यात्व मोह के उदय मे सतत मूढ़ रहता