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जैनधर्म जीवन और जगत्
इस नमस्कार महामत्र मे किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया । अहंत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये साधना की दिशा मे प्रस्थित साधको की उत्तरोत्तर विकसित अवस्थाए अथवा सिद्धि प्राप्त आत्माओ की भूमिकाए हैं। इन भूमिकाओ पर जो भी आरोहण करता है, वह वदनीय हो जाता है, नमस्य हो जाता है । नमस्कार महामत्र के माध्यम से हम अर्हता, सिद्धता, आचार-सम्पन्नता, ज्ञान-सम्पन्नता और साधुता को वदना करते हैं।
इससे ज्ञात होता है, जैन-धर्म व्यापक और उदार दृष्टि वाला धर्म है । वह जाति, वर्ण, वर्ग आदि की सकीर्णताओ से सर्वथा मुक्त सार्वभौम धर्म है । यद्यपि जैन-धर्म वर्तमान में मुख्यत वैश्य वर्ग से जुडा हुआ है, पर प्राचीन समय मे सभी वर्गों और जातियो के लोग जैन-धर्म के अनुयायी थे । भगवान् महावीर क्षत्रिय थे, उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति आदि ब्राह्मण थे । शालिभद्र, धन्ना आदि अणगार वैश्य थे। उनका प्रमुख श्रावक आनन्द किसान था । तपस्वी हरिकेशबल चण्डाल कुल मे उत्पन्न थे। आज भी दक्षिण भारत मे महाराष्ट्र आदि कई राज्यो मे कृषिकार, कुभकार आदि जैन है। आचार्य विनोबा भावे के शब्दो मे जैन-धर्म की निजी विशेषताए हैं---
० चिंतन मे अनाक्रामक, ० आचरण मे सहिष्णु और ० प्रचार-प्रसार में सयमित । काका कालेलकर ने कहा-"जैन-धर्म मे विश्वधर्म बनने की क्षमता
जैनधर्म-दर्शन को मौलिक अवधारणाएं
जैन-दर्शन विश्व के सभी दर्शनो मे विलक्षण है। क्योकि इसकी अवधारणाए मौलिक हैं । वैसे सभी धर्मों और दर्शनो मे कतिपय विलक्षणताए होती हैं, पर जैन-दर्शन कुछ ऐसी अतिरिक्त विलक्षणताए अपने मे समेटे हुए है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । इस एक पद्य के आधार पर हमे जैन-दर्शन के सम्बन्ध मे पर्याप्त जानकारी मिल सकती है
आदर्शोऽत्र जिनेन्द्र आप्तपुरुष रत्नत्रयाराधना। स्याद्वाद. समयः समन्वयमयः सृष्टिर्मता शाश्वती॥ फर्तृत्वं सुखदु खयो स्वनिहित धौव्य व्ययोत्पत्तिमत् । एका मानव जातिरित्युपगमोऽसौ जैन-धर्मो महान् ।
(गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलमी) जन-धर्म महान् है । उसमे आदर्श है-आप्त पुरुष, उसका साधनापय है-रत्नत्रयो की आराधना, सिद्धात है --समन्वय प्रधान अनेकान्तवाद ।