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जैनधर्म जीवन और जगत्
जन्म मे ही मिलता है । वस्तुत देखा जाए तो स्वर्गीय सुख, नारकीय दुख, पशुता और मानवता ये सब मानवीय मनोवृत्ति, उसके चिंतन और व्यवहार पर निर्भर है। सयम और सतुलन का जीवन जीने वाला इसी जन्म मे स्वर्गीय सुखो का अनुभव करता है। इसके विपरीत वासना, व्यसन और विवेक-हीनता का जीवन जीने वाला इसी जन्म को नरक बना लेता है ।
स्वर्ग और नरक की व्याख्या के पश्चात् शिक्षक ने छात्रो से पूछाविद्यार्थियो | आप मे से नरक जाना कौन पसन्द करेगा ? स्वीकृति मे किसी का हाथ ऊपर नही उठा। शिक्षक ने दूसरी बार पूछा-अब बताए, स्वर्ग जाना कौन पसन्द करेगा ? एक लडके को छोड सबके हाथ ऊपर उठ गए। शिक्षक ने पूछा क्यो मनीष | तुम्हे कही नही जाना है ? मनीप का उत्तर था-मुझे कही जाने की अपेक्षा नहीं है, मैं जहा रहगा, वही स्वर्गीय वातावरण का निर्माण करूगा ।
पाशविक वृत्तियो का परिष्कार कर मानवीय चेतना का विकास ही दिव्यता की दिशा को उजागर करता है।
सदर्भ -
१ सबोधि १५/२२,२३ । २ जैन तत्त्व विद्या १/५ । ३. ठाण-~४/४/६२८ से ६३१ ।