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ज्ञान है आलोक अगम का
सब प्रश्नों का समाधान तत्त्व-मीमासा के ठोस धरातल से ही उपलब्ध हो सकता है।
आचार-दर्शन और तत्त्व-मीमासा के पारस्परिक सबध को स्पष्ट करते हुए डॉ० राधाकृष्णन लिखते हैं कि-"कोई भी आचार शास्त्र तत्त्व-दर्शन पर या चरम-सत्य के एक दार्शनिक सिद्धात पर अवश्य आश्रित होता है । चरम सत्य के सबध मे हमारी जैसी अवधारणा होती है, उसके अनुरूप ही हमारा आचरण होता है । दर्शन और आचरण साथ-साथ चलते हैं।
वास्तव मे जब तक तत्त्व के स्वरूप या जीवन के आदर्श का बोध नही हो जाता, तब तक आचरण का मूल्याकन भी सभव नहीं। क्योकि यह मूल्याकन तो व्यवहार या सकल्प के नैतिक आदर्श के सदर्भ मे ही किया जा सकता है । यही एक ऐसा बिंदु है, जहा तत्त्व-मीमासा और आचार-दर्शन मिलते हैं । अत दोनो को एक-दूसरे से अलग नही किया जा सकता।
मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं(१) ज्ञानात्मक (२) अनुभूत्यात्मक (३) क्रियात्मक । अत दार्शनिक अध्ययन के भी तीन विभाग हो जाते हैं(१) तत्त्व-दर्शन (२) धर्म-दर्शन (३) आचार-दर्शन ।
इन तीनो की विषय-वस्तु भिन्न नही है । मात्र अध्ययन के पक्षो की भिन्नता है । जब व्यक्ति किसी ध्येय की पूर्ति के लिए विशिष्ट प्रकार का प्रयत्न करता है, तब लक्ष्य के स्वरूप, उसकी क्रियाशीलता और कार्य-पद्धति इन सब पक्षो पर समग्रता से विचार किया जाता है। इसलिए ये तीनो जुडे
जीवन के विभिन्न पक्ष होते हुए भी एक सीमा के बाद तत्त्व-दर्शन, धर्म-दर्शन और आचार-दर्शन तीनो एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाते हैं । क्योंकि जीवन और जगत् एक ऐसी सगति है, जिसमे सभी तथ्य इतने सापेक्ष हैं कि उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता।
__लगभग सभी भारतीय दर्शनो की यह प्रकृति रही है कि आचारशास्त्र को तत्त्व या दर्शन से पृथक् नही करते । जैन, बौद्ध, वेदान्त, गीता आदि दर्शनो मे कही भी तत्त्व और जीवन-व्यवहार मे विभाजक रेखा नही मिलती।
जैन विचारको ने तत्त्व, दर्शन और आचार-जीवन के इन तीनो पक्षो को अलग-अलग देखा अवश्य है, पर इन्हे अलग किया नहीं। ये सभी आपस में इतने घुले-मिले हुए हैं कि इन्हे एक दूसरे से अलग करना सभव भी नहीं है। आचार-मीमासा को धर्म-मीमासा और तत्त्व-मीमासा से न अलग किया जा सकता है और न उनसे अलग कर उसे समझा जा सकता