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जैनधर्म . जीवन और जगत्
भगवान् महावीर ने कहा -- "जावंतऽविज्जा परिसा सव्वे ते दुका समया । लुप्पति बहुसो मूढा, मसारमि अणतए।" (उत्तरायणाणि 1१)
जितने भी अविद्यावान अज्ञानी प्राणी है, वे गब दुगो को उत्पन्न करने वाले हैं। वे अनन्त ससार में बार-बार नष्ट-विनष्ट होते रहते हैं। मृत्यु को प्राप्त करते रहते हैं । आत्मा की कालिकता के बिना अनन्त बार मृत्यु सभव नही।
"न तस्स दुश्य विमयति नाइप्रो, न मित्तवग्गा न सुया न वधवा । एक्को सय पच्चणहोई दुप, फत्तारमेव अणुजाई फम्म ।। उत्तरज्झयणाणि १३/२३
सुख-दुग्न सबके अपने अपने होते हैं । इमीलिए उम अविद्या-जनित दु ख को न ज्ञातिजन बाट सकते हैं. न मित्र बाट मरते हैं, न बन्धु-बाधव । अपने कृत कम स्वय को ही भोगने पडते है । क्योकि कम सदा कर्ता का अनुगमन करता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि निरन्तर क्रियाशील जीवात्मा अपनी सत-असत् प्रवृत्ति से कम-मलो का सचय करती रहती है । पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना तण नए सस्कारो को सचय करना उमका स्वभाव है । उन्ही सचित सस्कारों की प्रेरणा से वह बार-बार जन्म और मृत्यु की अतहीन परम्परा मे परावर्तन करता रहता है। चार गतियो और चौरासी लाख जीव-योनियो मे सुख-दु ख का सवेदन करता रहता है । यही है पुनर्जन्मवाद ।
पुनर्जन्म की प्रतीति करने वाले या उसे प्रतिष्ठित करने वाले मुख्यत तीन स्रोत हैं
१ प्रत्यक्ष-ज्ञानी और दार्शनिक । २ ताकिक। ३ वैज्ञानिक ।
प्रत्यक्ष ज्ञानियो ने अनुभव के आधार पर प्रतिपादित किया- जन्म के पहले भी जीवन होता है और मृत्यु के बाद भी जीवन की धारा पुन चाल हो जाती है । वर्तमान तो मध्यवर्ती विराम है जिसका पूर्व और पश्चात नहीं होता उसका मध्य भी नही होता । जिसका मध्य है उसका पूर्वापर भाव भी निश्चित होता है। वर्तमान जीवन जन्म-परम्परा की मध्यवर्ती कडी है। वह पूर्व कडी और अपर कडी से जुडी है । वे कडिया ही पूर्वजन्म एव पुनर्जन्म हैं।